‘एयर पोल्यूशन’ या वायु प्रदूषण आज पूरी दुनिया के लिए एक बड़ा ख़तरा है। हम जिस हवा में सांस लेते हैं, उसी में अगर ज़हर भरा हो तो हम भला स्वस्थ कैसे रह सकते हैं? हमारे देश के लिए ये ख़तरा और भी बड़ा है क्योंकि ग्रीनपीस और एयरविशुअल के एक शोध से पाया गया है कि दुनिया के 30 सबसे दूषित शहरों में से 22 भारत में ही हैं। इनमें से सबसे पहले नंबर पर है हमारी राजधानी दिल्ली। आज भारत में मृत्यु का तीसरा सबसे बड़ा कारण एयर पोल्यूशन ही है और ‘स्टेट ऑफ़ ग्लोबल एयर’ के मुताबिक़ साल 2019 में पूरे देश में 12 लाख लोगों की मौत दूषित हवा में सांस लेने की वजह से हुई है। आज तक प्रदूषण को कम करने की जितनी भी कोशिशें हुई हैं वे नाकाम रही हैं।
वैसे तो एयर पोल्यूशन सभी की जान के लिए ख़तरनाक है। पर औरतों पे इसका असर और भी भयावह है। औरतों को इससे सिर्फ़ मौत का ख़तरा ही नहीं बल्कि ऐसी कई शारीरिक समस्याओं से भी है जिनका प्रभाव लंबे समय तक रहता हो। प्रदूषण का औरतों के शरीर पर क्या असर होता है? हम एक नज़र डालते हैं।
‘नेचर सस्टेनेबिलिटी’ नाम का एक ऑनलाइन जर्नल है जो पर्यावरण-संबंधित मुद्दों पर केंद्रित है। साल 2018 में स्थापित इस जर्नल की एक स्टडी से ये पाया गया था कि दूषित हवा के संस्पर्श में आनेवाली औरतों को ‘साइलेंट मिसकैरिज’ होने की संभावना ज़्यादा है। अब ‘साइलेंट मिसकैरिज’ आम मिसकैरिज से अलग कैसे है? जहां आम मिसकैरिज में दर्द और ख़ून के बहाव जैसे लक्षण अनुभव होते हैं, साइलेंट मिसकैरिज में आपको पता ही नहीं चलता कि मिसकैरिज हुआ है। भ्रूण मरने के बाद शरीर के अंदर ही रह जाता है। शरीर उसे रक्त के रूप में बाहर नहीं निकालता।
इसके पीछे के कारणों पर अभी भी शोध चल रहा है पर ये बात पक्की है कि साइलेंट मिसकैरिज का दूषित हवा के साथ ज़रूर संबंध है। ये ज़्यादातर 39 साल या उसके ऊपर उम्र वाली महिलाओं और किसान-मज़दूर महिलाओं को होता है। इटली के महानगरों में रहनेवाली 1300 औरतों पर एक शोध से पता चला कि महिलाएं जितने दूषित वातावरण में रहती हैं, उनका ‘ओवेरियन रिज़र्व’ उतना कम होता जाता है। ‘ओवेरियन रिज़र्व’ यानी एक औरत के शरीर में कितने और किस तरह के ‘ओवम’ या अंडाणु तैयार होते हैं। पर्याप्त मात्रा में अंडाणु न होने पर, या उनकी क्वालिटी खराब होने पर प्रजनन संबंधित कई मुसीबतें आ सकती हैं।
कई शोध से पता चला है कि दूषित हवा की वजह से नई मांओं को ‘गेस्टेशनल हाइपरटेंशन’ और प्री-एक्लेम्पसिया होने की संभावना बढ़ जाती है।
इसके अलावा भी कई शोध से पता चला है कि दूषित हवा की वजह से नई मांओं को ‘गेस्टेशनल हाइपरटेंशन’ (जन्म देने के बाद ब्लड प्रेशर का अचानक बढ़ जाना) और प्री-एक्लेम्पसिया (जन्म देते समय किडनी या शरीर के किसी और अंग का खराब हो जाना) होने की संभावना बढ़ जाती है।
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कुछ पाठक ये सोच सकते हैं कि ये समस्याएं महानगरों और छोटे शहरों तक ही सीमित हैं, जहां प्रदूषण की मात्रा ज़्यादा है। पर ये धारणा ग़लत है। ये सच है कि गांव-देहात में ‘आउटडोर पोल्यूशन’ या घर के बाहर प्रदूषण इतना ज़्यादा नहीं है, पर ‘इंडोर पोल्यूशन’ यानी घर के अंदर दूषित हवा महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए कहीं ज़्यादा घातक है। ये इसलिए क्योंकि आज भी हम हर गांव में एलपीजी गैस नहीं पहुंचा पाए हैं और ग्रामीण औरतें खाना बनाने के लिए चूल्हे का ही इस्तेमाल करती हैं। इन चूल्हों को लकड़ी, गोबर की कंडी, या कोयले जैसी सामग्री पर आग लगाकर जलाया जाता है और इससे निकलनेवाले धुएं में कार्बन मोनोक्साइड जैसे ज़हरीले पदार्थ होते हैं। दिन में घंटों तक महिलाएं इस ज़हरीले धुएं के संस्पर्श में रहती हैं जिसके कारण उन्हें स्ट्र्रोक. कैंसर, फेंफड़ों और हार्ट की समस्या वगैरह होते हैं। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन के मुताबिक़ एक भारतीय ग्रामीण रसोई में प्रदूषण की मात्रा दिल्ली में देखी गईं प्रदूषण मात्राओं से छह गुना ज़्यादा है। इसके अलावा भी तेल और घी के गरम होने पर जो वाष्प निकलता है, उसके साथ ज़्यादा देर तक संस्पर्ष भी शरीर के लिए ठीक नहीं है।
पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रभाव पर अध्ययन करते समय हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि जेंडर की समस्या इसमें भी है। एक तो हमारी मौजूदा सामाजिक और इंफ्रास्ट्रक्चर-संबंधित व्यवस्थाओं के कारण महिलाओं पर इसके क्या दुष्प्रभाव पड़ते हैं ये गौर करनेवाली बात है। ऊपर से इसके कारण उन्हें हृदय या श्वास संबंधित बीमारियों के साथ साथ प्रजनन की समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है। प्रदूषण किस हद तक औरतों की सेहत के लिए विनाशकारी है, इस पर और चर्चा होनी चाहिए।
एयर पोल्यूशन के इस भयावह प्रभाव से बचने के लिए हम सबको अपनी तरफ़ से पर्यावरण को स्वच्छ बनाने की कोशिश करते रहना चाहिए। ऐसा करने के कुछ तरीके जो हम अपना सकते हैं वे हैं पेड़ लगाना, गाड़ी में पेट्रोल की जगह सीएनजी (कंप्रेस्ड नैचुरल गैस) का इस्तेमाल करना, बिजली की जगह सोलर एनर्जी जैसे वैकल्पिक स्रोत अपनाना, और निजी वाहन का व्यवहार जितना कम हो सके उतना कम करना। उम्मीद है ऐसा करने से हम साफ़, ताज़ी हवा में सांस ले पाएंगे और एक स्वस्थ ज़िंदगी जी पाएंगे।
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तस्वीर साभार : ig.ft.com
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