इक़बाल बानो की पैदाइश अंग्रेज़ी हुक़ूमत के भारत में, दिल्ली में हुई थी। साल था 1935, दिन 27 अगस्त का था। दिल्ली के साथ उनका जज़्बाती रिश्ता ताउम्र बना रहा। उनके घर की जड़ों का रिश्ता रोहतक से भी रहा, उनका बचपन वहीं बीता था। उनके वालिद मूल रूप रोहतक के जमींदार थे। बचपन से उनका लगाव संगीत से था। उनके जीवन का वह पल अहम रहा जब उनके पिता के एक दोस्त ने उनसे कहा, “मेरी बेटियां भी अच्छा गाती हैं। तुम्हारी बेटी को गायकी की विशेष समझ वरदान में मिली है। वह बड़ा नाम बन सकती है अगर तुम उसे संगीत की तालीम दो।” इक़बाल बानो के पिता ने इस बात को संजीदगी से लिया। दिल्ली घराने के उस्ताद के अंतर्गत उनकी तालीम शुरू हुई। इक़बाल बानो ने उस्ताद चांद खान से शास्त्रीय संगीत सीखा। उस्ताद ने उनके हुनर को खूब तराशा। दादरा और ठुमरी की जबरदस्त तालीम दी। साल 1950 में ऑल इंडिया रेडियो को नए गायकों की ज़रूरत थी। उस्ताद अपनी इस शागिर्द को लेकर गए। इक़बाल बानो का ऑडिशन हुआ। ऑडिशन की प्रक्रिया ख़त्म होने से पहले उनसे प्रभावित होकर उन्हें कॉन्ट्रैक्ट दे दिया गया। यहां से इक़बाल बानो का सफ़र रेडियो के लिए शुरू हुआ।
साल 1952 में उनकी शादी मुल्तान के एक जमींदार से हुई। मेहर की रक़म में उनके वालिद ने इक़बाल बानो को पूरी जिंदगी गाने देने का वादा उनके शौहर से लिया। वादा यह भी था कि वह बनो को न सिर्फ़ गाने देंगे बल्कि उनकी हौसला-अफज़ाई भी करेंगे। वादा मंजूर किया गया और इक़बाल बानो निक़ाह के बाद पाकिस्तान चली गईं। तब उनकी उम्र महज़ 17 साल थी। हिंदुस्तान में यूं तो इक़बाल बानो रेडियो पर गाती थी लेकिन पाकिस्तान में उन्हें फ़िल्मी गानों में गाने का काम मिलने लगा। उन्होंने 1954 में ‘गुमनाम’ फ़िल्म के लिए एक गाना गाया जो बहुत हिट हुआ। इस फ़िल्म से उनका बड़ा नाम हुआ।
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50 के दशक में वह उर्दू फ़िल्मों की सिंगिंग स्टार बन चुकी थीं। इक़बाल बानो तब तक ज्यादातर क्लासिकल, ठुमरी, दादरा आदि गाती थी। किसी की सलाह पर उन्होंने गायकी के अंदाज़ में ग़ज़ल सुनाने का प्रयोग किया। उनकी आवाज़ पर यह प्रयोग खूब फला और उनके सफ़र में एक राह और जुड़ गई। वे ग़ज़ल के अलग-अलग मायने कहती, ग़ज़ल के लफ़्ज़ों पर ख़ास ध्यान देती। ग़ज़ल सुनने वालों ने उनकी यह बात बहुत पसंद की। 70 के दशक में उनके पति की मौत हुई, वह मुल्तान छोड़कर लाहौर आ गई। लाहौर में उनसे ऐसे लोग टकराये जिन्हें उनकी प्रतिभा के विलक्षण होने के बारे में समझ आया और ये बात भी कि गायकी की विविधता के मामले में बानो बेहद धनी थी। उन्हें पाकिस्तान के रेडियो पर भी बुलाया जाने लगा। अब तक फ़िल्म ‘क़ातिल’, ‘नागिन’,’सरफ़रोश’, ‘इंतकाम’ जैसी फ़िल्मों में गा चुकी बानो को पाकिस्तानी हुक़ूमत द्वारा सन् 1974 ‘प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस’ से नवाज़ा गया।
इक़बाल बानो स्टेज़ पर काली साड़ी पहनकर आई और कहा, “आदाब! देखिए हम तो फैज़ का कलाम गाएंगे और अगर हमें गिरफ्तार किया जाए तो मेरे साथियों के साथ किया जाए ताकी हम जेल में भी फैज़ को गाकर हुक्मरानों को सुना सके।”
वह शोहरत की बुलंदियों पर थी जब वह घटना घटी जिसने इक़बाल बानो और उनके द्वारा गाए गए फैज़ अहमद फैज़ की ग़ज़ल को प्रतिरोध और साहस का व्यापक चिह्न बनाया। यूं तो वह फैज़ अहमद फैज़ को 1981 से ही गा रही थी लेकिन 20 नवंबर 1985 का दिन अलग दिन साबित हुआ। उस समय पाकिस्तान में आमिर जिया-उल-हक़ ने मुल्क में कई पाबंदियां लागकर रखी थी। हज़ारों राजनीतिक कार्यकता जेल में थे जो अभियक्ति की आज़ादी की बात करते थे। जो इसकी बात करता उसे सीधा जेल में डाल दिया जाता। हबीब जालिब जिन्होंने लिखा है “ऐसे दस्तूर को सुबह बेनूर को मैं नहीं जानता, मैं नहीं मानता” को भी जेल में डाल दिया गया था। फ़ैज़ 1979 में ‘हम देखेंगे’ लिख चुके थे लेकिन उसके छपने पर पाबंदी थी। पाबंदियों की सूची में दो बातें यह भी थी: औरतों के साड़ी पहनने की मनाही और शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के कलाम गाने पर रोक। बानो ने इस पाबंदी को बचकानी बात की तरह लिया और इसके ख़िलाफ़ मुख़ालफ़त करने का ऐलान किया। लौहार स्टेडियम के ‘अल्हमरा हॉल’ में इस आयोजन का होना तय किया गया।
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तय दिन और जगह पर हुक्मरानों ने इक़बाल बानो को रोकने के लिए कई इंतेज़ाम किए थे। शाम का वक़्त था, इस आयोजन के गवाह बनने लहभग पचास हज़ार दर्शक आए थे। इक़बाल बानो स्टेज़ पर काली साड़ी पहनकर आई और कहा, “आदाब! देखिए हम तो फैज़ का कलाम गाएंगे और अगर हमें गिरफ्तार किया जाए तो मेरे साथियों के साथ किया जाए ताकी हम जेल में भी फैज़ को गाकर हुक्मरानों को सुना सके।” आगे उन्होंने जब फैज़ की नज़्म “हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे” की धुन गुनगुनाई तो पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। फ़ैज़ साब के नाती अली मदी हाशमी एक जगह लिखते हैं कि उस दिन वे भी अपने घरवालों के साथ उस हॉल में मौजूद थे। दर्शक बीच-बीच में “इंक़लाब जिंदाबाद” के नारे लगा रहे थे। तालियों की गड़गड़ाहट हर तरफ़ से उठ रही थी। लोगों का जोश कम करने के लिए हॉल की बत्तियां बुझा दी गई। लेकिन गाना रुका नहीं। जब इक़बाल बानो ने गाया, “सब ताज़ उछाले जाएंगे, सब तख़्त गिराए जाएंगे” लोग मानो तालियों की आवाज़ और लोगों के जोश से हुक्मत की सारी पाबंदियां धुंआ होने लगीं। कुछ लोग भावनात्मक होकर हंस रहे थे, कुछ रो रहे थे, कुछ नारे लगा रहे थे। माहौल की गर्मी देखकर बानो को गिरफ्तार करने की हिम्मत पुलिस नहीं कर पाई।
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इसके बाद जिया-उल-हक़ की हुक़ूमत ने आयोजनकर्ताओं के घर रातों-रात छापा पड़वाया। इक़बाल बानो के गाने की रिकॉर्डिंग ज़ब्त कर ली गई। किसी तरह एक रिकॉर्डिंग बची थी। ख़ुफ़िया तरीक़े से उसे दुबई भेजा गया जहां उसकी कॉपी बनाई गई। इसके लाखों कैसेट बाज़र में आ गए। इस घटना के बाद इक़बाल बानो पाकिस्तान के बाहर उतनी ही चर्चित रहीं जितना पाकिस्तान के अंदर। वह जिस भी महफ़िल में जाती उनसे ‘हम देखेंगे’ सुनाने की फरमाइश की जाती। यह गाना ‘सॉन्ग ऑफ प्रोटेस्ट’ बन चुका था। भले ही यह बात पुराने समय के पाकिस्तान की है लेकिन आज भी यह नज़्म कहीं के भी हुक्मत को उतनी ही चिंतित करती है जितनी पाकिस्तानी हुक्मत को तब किया था।
यही कारण है कि 17 दिसम्बर 2019 को आइआइटी कानपुर के कैंपस में कुछ छात्रों ने दिल्ली के जामिया इस्लामिया विश्विद्यालय के विद्यार्थियों पर हुए पुलिस की कार्रवाई के ख़िलाफ़ चल रहे विरोध प्रदर्शन में ‘हम देखेंगे’ गाया तो उनके ख़िलाफ़ जांच के लिए एक कमिटी बिठा दी गयी। ‘द वायर’ में प्रकाशित मार्च, 2020 की एक ख़बर के मुताबिक़ कमिटी ने कहा, नज़्म का गाया जाना “समय और जगह के हिसाब से” ठीक नहीं था। कई टीवी चैनलों ने इसपर बहसें की। एनआरसी और नागरिकता कानून के खिलाफ़ हुए प्रदर्शनों के दौरान भारत के कई विश्वविद्यालयों में कई बार प्रदर्शनकारियों ने ‘हम देखेंगे’ गाकर फ़ैज़ के इस नज़्म को प्रतिरोध के चिह्न की तरह देखा और दिखाया। इक़बाल बानो के जाने के बाद भी उनके गाए ग़ज़ल प्रगतिशील आंदोलनों का हिस्सा बनते रहे हैं। 21 अप्रैल 2009 को लाहौर में इक़बाल बानो का इंतक़ाल हो गया। यह फ़नकारा हमारे बीच हमेशा एक बुलन्द आवाज़ के रूप में मौजूद रहेंगी जब-जब विरोध के स्वर के बीच हम देखेंगे का नारा गूंजेगा।
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