लघु फ़िल्म : ख्याली पुलाव (26 मिनट)
प्लैटफ़ॉर्म : यूट्यूब
कहानी और निर्देशन : तरुण डुडेजा
कलाकार : प्राजक्ता कोहली, यशपाल शर्मा, गीता शर्मा, प्रियंका शर्मा, अनुष्का शर्मा, प्रिंस बजाज, सुनील चितकारा
प्रोड्यूसर : ‘वन डिजिटल एंटरटेनमेंट’
फ़िल्म ‘ख़्याली पुलाव’ के ज़रिए कॉन्टेंट क्रिएटर प्राजक्ता कोहली ने अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा है। हालांकि यह एक शार्ट फ़िल्म है लेकिन उनका बढ़िया काम उनके क़िरदार आशा के रूप में स्क्रीन पर नज़र आता है। अगर सिनेमा जगत में बनी हरियाणा पर आधारित मुख्यधारा की फ़िल्में जैसे ‘लाल रंग’, ‘दंगल’ से तुलना करें तो प्राजक्ता द्वारा बोले गए डायलॉग में बहुत मंझा हुआ हरियाणवी लहज़ा सुनने में नहीं आता। लेकिन प्राजक्ता के चेहरे की भाव-भंगिमा और क़िरदार के प्रति लेखन और अभिनय में बरती गई ईमानदारी बहुत ही मासूम तरीक़े से इस बात को दर्शकों के सामने से ढक देती है। ख्याली पुलाव की कहानी हरियाणा के छोटे से गांव मंजरी पर आधारित है। गांव का एक साधारण-सा परिवार है। छोटे से गांव की एक साधारण सी लड़की है आशा। फ़िल्म के पहले दृश्य में आशा सरकारी स्कूल की दीवार को देख रही होती है। दीवार पर संदेश लिखना सरकारी योजना के तहत सरकारी स्कूलों के रंगाई-पुताई कार्यक्रम का हिस्सा होता है। फिलहाल वह सफ़ेद है, उस पर कुछ नहीं लिखा होता।
और पढ़ें : मिर्ज़ापुर सीज़न 2 : स्त्री द्वेष और हिंसा का कॉकटेल परोसती वेब सीरीज़
जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, आशा के बारे में छोटी-छोटी बातें पता चलती हैं जो कि कहानी में महवपूर्ण हैं। वह पढ़ाई-लिखाई में अव्वल है। घरवालों की नज़र में एक आज्ञाकारी बेटी। शिक्षकों को उससे कोई ख़ास परेशानी नहीं है। तभी आशा के मन में एक बहुत छोटी सी इच्छा जागती है। यह इच्छा क्या है यह बात आपको 25 मिनट फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलेगी। हालांकि यह इच्छा खेलकूद से जुड़ी है यह बात आपको शुरू के कुछ मिनटों में ही मालूम चल पड़ जाएगा। आशा शारीरिक रूप से बहुत फुर्तीली या मजबूत नहीं है। वह पहले कभी खेलकूद में गंभीरता से रुचि नहीं लेती दिखती। अचानक से उसके फुटबॉल टीम में शामिल होकर स्कूल की तरफ़ से प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के फैसले से उसकी सहेली, मां-बाप, यहां तक कि स्पोर्ट्स टीचर भी दंग हो जाते हैं। उससे बार-बार सभी लोग अलग अलग मौकों पर पूछते हैं, “क्यों खेलना है?” आशा कभी जवाब नहीं देती। यह बात उसकी अपने लिए पाली गई उस छोटी सी उम्मीद से जुड़ी है। एक छोटा सा आज़ाद सपना जिसके लिए वह खेलना चाहती है।
यह फ़िल्म ज्यादातर खेलकूद के मैदान में से होकर गुज़रती है या आशा के फुटबॉल में बेहतर प्रदर्शन कर पाने के संघर्ष में। फिल्म में यह सब हल्के-फुल्के अंदाज़ में बिना भारी भरकम शब्दों या दृश्यों का सहारा लिए दिखाया गया है। यह फ़िल्म फुटबॉल को आशा के एक छोटे से सपने और अपने गांव में रहते हुए उसे पाने के बीच की कड़ी की तरह रखा गया है। हरियाणा का मंजरी भारत के उन तमाम जगहों जैसा है जहां औरतों के लिए नियम-कायदों की लंबी फेहरिस्त है। जिन्हें मानते हुए जीवन जीना कई औरतें स्वीकार कर चुकी हैं। आशा को उसके साधारण सपने, रोज़ के जीवन में ऐसी नई चीजें जानने, देखने की इच्छा, जो उसकी छोटी सी दुनिया के बाहर के हैं उसे आसपास की लड़कियों-औरतों से अलग बनाती हैं।
ख्याली पुलाव के दृश्य में उसकी दोस्त कहती है, “तुझे पता है न जो लड़कियां स्पोर्ट्स खेलें हैं उनकी झिल्ली फट जावे हैं। कौण करेगा तेरे ते शादी?” समाज के बनाए गए इन नियमों को आशा सुनती तो है लेकिन मानती नहीं। वह उन्हें एकदम से नकारती भी नहीं है।
और पढ़ें : फ़िल्म रात अकेली है : औरतों पर बनी फ़िल्म जिसमें नायक हावी है न
ख्याली पुलाव के दृश्य में उसकी दोस्त कहती है, “तुझे पता है न जो लड़कियां स्पोर्ट्स खेलें हैं उनकी झिल्ली फट जावे हैं। कौण करेगा तेरे ते शादी?” समाज के बनाए गए इन नियमों को आशा सुनती तो है लेकिन मानती नहीं। वह उन्हें एकदम से नकारती भी नहीं है। उसने अपने मन की करने के लिए अपने तरीक़े और जुगाड़ बना रखे हैं। वह गांव के एक लड़के को कुछ पैसे देकर उसका स्मार्टफोन और इंटरनेट इस्तेमाल करती है। यूट्यूब पर फुटबॉल की तकनीक सीखती है, फ़ेसबुक पर फेक आईडी बनाकर शहर की लड़कियों को जीन्स पहने देख उनकी दुनिया के बारे में सोचकर खुश होती है और उस दुनिया का कुछ हिस्सा अपने गांव में जी पाने के तरीक़े इजाज़त चाहती है। फ़िल्म में एक जगह आशा के पिता उसकी मां से गांव की किसी लड़की के बारे में बताते हुए कह रहा होता है कि कैसे उसने फेसबुक पर अपनी जीन्स में फ़ोटो लगा दी और उसके ऐसा करने से समाज में उसके परिवार की बदनामी हो गई। मां उस लड़की की शादी को लेकर चिंता जताती है। किसी दीपिका नाम की ‘बेशर्म’ लड़की ने उस तस्वीर के नीचे ‘नाइस फ़ोटो’ लिखी थी। ये दीपिका हमारी ही आशा का फेक प्रोफ़ाइल है। आशा अपनी सीमित आज़ादी और समाज द्वारा दी गई सुविधाओं की हदों में रहते हुए सपने देखती रहती है। उसके यही सपने उसे पितृसतात्मक समाज में पीछे के दरवाज़े खोलने के नुस्खे निकालने की प्रेरणा हैं। आशा कोई ‘रेबल’ नहीं है। वो “वंडर वुमन” है।
एक दृश्य में जब स्मार्टफोन वाला लड़का कहता है, “मैं स्मार्ट हूं क्योंकि मेरे पास दो स्मार्टफोन हैं।” आशा भावहीन चेहरे के साथ कहती है, “क्योंकि तू छोरा है”। इस लघु फ़िल्म में आपको छोटे शहरों में तकनीक, ख़ासकर फ़ोन और इंटरनेट के प्रयोग में नैतिकता के नाम पर समाज द्वारा लगाए गए पाबंदियों का ढांचा साफ़ दिख जाएगा। असल जिंदगी में छोटे शहरों की लड़कियां दुपट्टे से छाती ढकें, औरतें घूंघट काढ़े जिस तरह से सड़क पर चलती हुई, घरों से लेकर हर जगह परंपराओं के नाम पर रूढ़ियों का इतना बोझ उठती हैं कि वे इन्हें अपने भाग्य का सच मानने लगती हैं। आशा की आखों पर ऐसी कोई पट्टी नहीं बंधी। वह इंटरनेट पर छिपकर दुनिया देखती है। फ़िल्म में इस किरदार का नाम आशा रखा जाना एक शाब्दिक प्रतिबिंब की तरह देखा जा सकता है।
स्पोर्ट्स मास्टर के क़िरदार में यशपाल शर्मा में अपने पिछले सभी किरदारों की तरह इस किरदार के साथ भी न्याय किया है। उनके जरिये लड़कों को स्पोर्ट्स की प्रशिक्षण देने वालों की तुलना में लड़कियों को स्पोर्ट्स सिखाने वालों की उपेक्षित हालात के मुद्दे को छूने की कोशिश हुई है। भारत में क्रिकेटर जैसे खेल को जनता धर्म मानती है। उस में भी महिला और पुरूष टीम को फैंस से मिलने वाली प्रसिद्धि, विज्ञापन-ब्रैंड के प्रचार से मिलने वाले पैसे, हर तरह के सरकारी फंड आदि में बहुत बड़ा अंतर है। हालांकि इस बात की कुढ़न यशपाल के क़िरदार को नकारात्मक रूप से प्रभावित नहीं करती है। फ़िल्म में दो बहुत ही छोटे बैकग्राउंड में चलते गाने भी हैं। दोनों के बोल दृश्य को अभिव्यक्ति के मायनों में कलात्मक रूप से सुंदर बनाते हैं।
फ़िल्म देखी जाने लायक़ है। 26 मिनट के बाद भी यह फ़िल्म आपके साथ ठहरी रहती है। आपको अपने आसपास पास छोटी-छोटी आशा के लिए बड़ी-बड़ी दूरियां तय कर लेने वाली सारी साधारण लड़कियां, औरतें याद आती रहेंगी। कैसे अपनी पसंद की एक बहुत ही आम चीज़ कर पाने के लिए एक स्कूल की लड़की सिर्फ लड़की होने के कारण सौ पापड़ बेलती है, सौ हथकंडे अपनाती है। आप को कई बार औरत के शरीर में जन्म लेकर जीने की थकान आशा के चेहरे पर दिखेगी। कई बार उसी समाज में रहते हुए अपने छोटे-छोटे पैंतरे लगाकर पैंतरों हासिल की गई आशा की मुस्कान दिखेगी। ऐसी ही एक मुस्कान के लिए फ़िल्म जरूर देखें। अंत में जब आशा का वह सपना उसे आईने में देखने मिलता है, तभी कई किरदारों द्वारा आशा से बार-बार पूछे गए सवाल “तुझे क्यों खेलना है?” का जवाब दर्शकों को मिलता है। सफदर हाश्मी की ये पंक्तियां स्कूल की उस खाली दीवार पर सबसे आख़री दृश्य में पुताई से लिखी नज़र आती है “हमसे कोई पूछे बच्चों आज़ादी क्या होती है हम कह देंगे उस दिन सबकी पूरी छुट्टी होती है”।
और पढ़ें : मसाबा-मसाबा : महिलाओं की दोस्ती की कहानी कहती एक सीरीज़