समाजख़बर ग्राउंड रिपोर्ट : किसानों की कहानी, उनकी ज़ुबानी, बिहार से सिंघु बॉर्डर तक

ग्राउंड रिपोर्ट : किसानों की कहानी, उनकी ज़ुबानी, बिहार से सिंघु बॉर्डर तक

अम्बाला से आए एक बुगुर्ज जिनका नाम बलकार सिंह था इस आंदोलन को क्रांति बताते हैं। उनके अनुसार इतिहास इन महीनों को वैसे दर्ज़ करेगा जैसे सदियों में होने वाली किसी एक क्रांति को करता है। बलकार सिंह ने कहा, "हमारे खाने कमाने का साधन हमसे छीनने की कोशिश की जा रही है। सरकार से हमें ये उम्मीद नहीं थी। हमारा काम सिर्फ़ खेतों में संघर्ष करना है। चार पांच बन्दे मिलकर क़ानून बना रहे हैं जिनको किसानी के बारे में पता नहीं है। अडानी अम्बानी जैसे लोग।

मैं बिहार की मूल निवासी हूं, मेरी मां के परिवार में रोज़ी-रोटी का मुख्य ज़रिया हमेशा से खेतीबाड़ी रही है। सिंघु बॉर्डर पर जाने से पहले मैंने अपनी मामी से बात की थी। वह महिला किसान हैं। बिहार में खेती, बीज, बाज़ार, मुनाफ़े-नुकसान की समझ रखती हैं और खेती करते हुए उनके जीवन के 20-22 साल बीत चुके हैं। बिहार और पंजाब में खेती और उससे आने वाले मुनाफ़े पर मेरे पास कई तुलनात्मक सवाल थे जिनका जवाब मैं आंकड़ों के ब्यौरे के अलावा ज़मीनी स्तर काम करने वालों से जानना चाहती थी। बिहार के नवादा ज़िले के ग्राम हरला से अंजू देवी बताती हैं कि बिहार में राज्य सरकार द्वारा निर्धारित मिनिमम सपोर्ट प्राइस पर धान-गेंहू नहीं बिक पाता। हर ग्राम पंचायत में एक पैक्स की व्यवस्था है। लेकिन पैक्स किसानों से अनाज़ के खरीद पर उन्हें पक्का सरकारी कागज़ बनाकर नहीं देता। परिणामस्वरूप किसानों को अनाज़ के दाम मिलने में साल भर से ज्यादा समय लग जाता है। बिना सरकारी दस्तावेजों के पैक्स द्वारा यह रक़म देने में मुक़रने की संभवना भी बनी रहती है। इसलिए वे अपनी फसल बाज़र के सेठ या दुकानदारों को बेचते हैं। दुकानदार मिनिमम सपोर्ट प्राइस से कम राशि देकर अनाज़ उनसे खरीद लेता है। चूंकि वह पैसे हांथो-हाथ देता है, उस गांव के किसानों को यह व्यवस्था ज्यादा ठीक लगती है। हालांकि इस रेट पर फसल बेचने में उनका मुनाफ़ा बेहद कम रह जाता है। फ़सल पर लगे पैसे, पानी की कमी में डीज़ल से खेत पटाने में गए पैसे, खाद इत्यादि का ख़र्च भर निकल पाता है। बता दें कि बिहार में सरकारी मंडी की व्यवस्था साल 2006 से ही हटा दी गई थी।

बिहार से, कृषक अंजू देवी

कृषि से होने वाली आमदनी की बात करें तो पंजाब और हरियाणा में स्थिति अलग है, बेहतर है। सरकारी मंडी खत्म होने पर अगर किसानों की हालत सुधरनी होती तो बिहार के किसानों की हालत इतनी दयनीय नहीं होती। बिहार में अनाज़ धान-गेंहू के अलावा दलहन, फलों और सब्जियों की भी उपज होती है। इसके बावजूद हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक पंजाब के किसान बिहार के किसानों से 30 फ़ीसद अधिक कमाई करते हैं। यह रिपोर्ट साल 2018-19 की थी। इन नए कृषि कानूनों के ज़रिये केंद्र सरकार बिहार जैसे राज्यों में मंडी व्यवस्था, पैक्स के भ्रष्ट व्यवहार को दुरुस्त करने के बजाय पंजाब-हरीयाणा जैसे कृषि समृद्धि राज्यों के किसानों की मुश्किलें बढ़ा रही है।

इस मुद्दे पर पंजाब-हरीयाणा के किसानों की राय जानना भी ज़रूरी है। दिल्ली के सिंघु और टिकरी बॉर्डर पर बीते तीन महीनों से लगातार कृषि कानूनों को लेकर अपनी मांगों के साथ बैठे किसान मुख्यतः पंजाब और हरियाणा से हैं। टिकरी बॉर्डर पर इन राज्यों के अलावा कुछ किसान उत्तर प्रदेश और बिहार से भी हैं। मुझे इन बातों का पता वैसे ही चलता रहा जैसे किसी अन्य नागरिक को चल रहा था। इस स्त्रोतों के अलावा मुख्यधारा टीवी चैनल किसान आंदोलन के साथ अलग-अलग तरह के नकारात्मक टैग जोड़ रहे हैं। इस कारण ज़मीनी तथ्यों को निष्पक्ष रूप से जानने के लिए वहां जाना ही एकमात्र विकल्प की तरह नज़र आता है।

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4 जनवरी 2020 , सिंघु बॉर्डर, तस्वीर साभार : अनुराग आनंद

सिंघु बॉर्डर क्षेत्र शुरू होने के थोड़ी देर पहले पुलिस बैरिकेड लगी है। बैरिकेड के एक तरफ़ पुलिस कैम्प हैं दूसरी तरफ 6-7 किलोमीटर तक विस्तृत किसानों का धरना स्थल है। उस दिन तेज़ बारिश हो रही थी। दिल्ली में ठंड के बीच मूसलाधर बारिश का तीसरा दिन था, चार जनवरी, 2020। जगह-जगह ट्रैक्टरों के ऊपर पन्नी, तिरपाल की छत बनाए किसान बैठे थे। ऐसे ही एक ट्रैक्टर में थे पंजाब से आए तीन कृषक, कल्दीप सिंह, रणजीत सिंह, मनदीप सिंह। वे तीनों तरणतारण , अमृतसर से आए थे। उन्होंने बताया कि वे सिंघु बॉर्डर पर सबसे पहले आने वाले लोगों में से हैं। रणजीत सिंह कहते हैं, “हमें खाने-पीने की दिक़्क़त नहीं है। बादाम की जगह बादाम मिल रहा है, दूध की जगह दूध मिल रहा है। पीछे मौसमी बांट रहे हैं, सिंह दाना बांट रहे हैं। हमारी दवाई का कैम्प लगा हुआ है। फ़्री है।” कल्दीप, रणजीत और मनजीत ये बताना चाहते थे कि अगर सरकार उनकी मांगें नहीं सुनती हैं तो किसानों के पास सामूहिक तौर पर यहां बॉर्डर पर इस आंदोलन को खड़े रखने के संसाधन हैं। 

तस्वीर में बाएं से, कल्दीप सिंह, रणजीत सिंह, मनदीप सिंह. तस्वीर साभार : अनुराग आनंद

बैरिकेड से एक किलोमीटर आगे निहंग दल के तम्बू लगे थे। तम्बू के आसपास तीन-चार घोड़े बंधे थे। एक तम्बू के अंदर कुछ निहंग सदस्यों द्वारा खाना बनाया जा रहा था। मंगल सिंह नाम के एक सदस्य ने लम्बी बातचीत के दौरान बताया कि निहंग जत्था पूरे साल भ्रमण करता है। उन्होंने अपने आप को ‘चक्रवर्ती’ बताया। इस बार उन्हें लगा कि उनकी जरूरत वहां है इसलिए वे वहां रुक गए हैं। मंगल सिंह दस साल पंजाब पुलिस का हिस्सा थे, कुछ साल उन्होंने ड्राइवर का काम भी किया। मंगल सिंह कहते हैं “अगर यहां लोगों को साल भर, दो साल रहना पड़ा तो हम भी यहीं रहेंगे। बरसात में आजकल थोड़ी दिक्क़तें आ रही है लेकिन हम धीरे-धीरे और शेड बनाएंगे। हमें सेवा के बदले ज़रूरत का सारा सामान मिल जाता है। यहां पैसे की जरूरत आई तो अपने कुछ घोड़े बेच देंगे।” एक सवाल के जवाब में मंगल सिंह के साथी गरमेल सिंह आगे बताते हैं कि इस समूह में महिलाएं भी होती हैं लेकिन इस समय वहां जो जत्था रुका है उसमें ज्यादातर पुरुष सदस्य हैं। वे शादीशुदा हैं, उनके पास खेतिहर जमीनें हैं, उनका परिवार उनके गांव में रहता है। उन्होंने अपने जिले का नाम बरनाला बताया। उन्होंने मुझे पूछा कि मैं किस जिले से हूं। भागलपुर नाम सुनते ही उन्होंने भागलपुर जिले के पास पड़ने वाले पूर्णिया जिले के अपने यात्रा-अनुभव सुनाए। ये लोग व्यवहार से बिलकुल वैसे साधाहरण बुजुर्ग हैं जिन्हें अपने जीवन की कहानियां सुनाने का शौक है, इस आंदोलन स्थल पर रह रहे लोगों को कुछ विशेष मिडिया चैनलों द्वारा “आतंकवादी” , “भाड़े पर धरना देने वाले लोग ” कहना उन चैनल के टीवी दर्शकों की बुद्धि भ्रमित करने जैसा ही है।

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बाएं से दाएं : मंगल सिंह, गरमल सिंह , तस्वीर साभार: ऐश्वर्या

एक जगह कुछ पोस्टर्स दिखे। उनमें से एक पोस्टर पर मुख्यधारा मीडिया के प्रति किसानों ने अपनी शिकायत व्यंग्य के रूप में दर्ज कर रखी थी। लिखा था, “जाबांज़ सांप ने मछली को डूबने से बचाया: भारतीय मीडिया”। इस पोस्टर को भारत के मुख्यधारा मीडिया पर लिए गए व्यंग्यात्मक चुटकी के साथ-साथ सामाजिक शक्ति श्रेणी पर किए गए एक कटाक्ष के तौर पर देखा जा सकता है। यह सृजनात्मक पोस्टर आपको जॉर्ज ऑरवेल की लिखी क़िताब ‘एनिमल फ़ार्म’ की याद दिला सकता है। यही कारण है कि ज्यादातर किसान पूछ रहे थे कि उनसे बात करने वाला अगर किसी मीडिया चैनल से है तो किस चैनल से है। उत्तर जानकर तसल्ली करने के बाद ही वे बातचीत करने में सहज हो रहे थे।

किसान आंदोलन से एक पोस्टर, तस्वीर साभार: ऐश्वर्या

जैसा कि मनदीप सिंह ने बताया था थोड़े ही दूर पर फ्री मेडिकल कैम्पस लगे थे। इन कैम्पों पर किसी न किसी किसान समूह का नाम ज्यादातर पंजाबी में लिखा था। कुछ युवा जिनका संबंध किसान परिवार और इन समूहों से था, इन कैम्प्स में मदद के लिए मौजूद थे। हरियाणा सरकार की तरफ़ से उपलब्ध करवाए गए एक एम्बुलेंस में बैठे दो सरकारी स्वास्थ्य कर्मचारियों से बात हुई। अनिल कुमार, एक स्वास्थ्य कर्मचारी से बातचीत के दौरान यह निकलकर आया कि हरियाणा सरकार की तरफ से दस एम्बुलेंस और प्रत्येक एम्बुलेंस में दो स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारी दिए गए हैं। इसे मेडिकल कैम्प की तरह देखा जा सकता। इन कर्मचारियों के पास हल्की-फुल्की बीमारियों की दवाइयां हैं। वे रेकॉर्ड के लिए उन दवाओं और जिन्हें दवाई दी जा रही है उसका रजिस्टर बनाकर रखते हैं। अनिल कुमार के अनुसार कोरोना का एक भी केस प्रदर्शन स्थल से उनकी नज़र में नहीं आया है। हालांकि बूढ़े, बच्चों और महिलाओं को सर्दी, खांसी पेट दर्द इत्यादि जैसी बीमारियों की शिकायतें आती रहती हैं। उन्होंने बारिश, ठंड और तत्कालीन मौसम के बदलाव का असर वहां मौजूद लोगों के स्वास्थ्य पर गंभीर रूप से पड़ने की आशंका जताई। किसान आंदोलन में 4 जनवरी तक 51 मौतों की ख़बर पर अनिल ने कहा “मेरे अनुसार इसका कारण दिल का दौरा पड़ना है। मेरे पास अटैक के बहुत मरीज़ आए हैं।” 

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दिल्ली की ठंड में बारिश के कारण उस दिन भी मौसम वाक़ई ख़राब था। सड़कों पर कीचड़ था। कई जगह लोग बारिश में भीगते हुए शेड बना रहे थे। आग जलाने के लिए जो लकड़ियां जगह-जगह रखी थी गीली हो चुकी थी। इसके बावजूद कूड़े का सड़क पर बिखराव न हो इसकी व्यवस्था चाक-चौबंद थी। जहां भी लंगर खिलाया जा रहा था, वहां 2-3 कूड़ेदान रखे थे। कुछ जगह जहां कूड़ेदान भर चुके थे वहां लंगर में खाने वाले लोग एक जगह कोने में पत्तल, कूड़ा डाल रहे थे। इन लंगरों में खाने वाले कई ऐसे लोग थे जिनका किसान आंदोलन से प्रत्यक्ष रूप से कोई नाता नहीं था। ऐसे ही एक व्यक्ति हैं पवन कुमार। वह चाय पीते हुए बताते हैं, “मैं यहां इस रास्ते से काम करने जाता हूं। आगे से मुझे गाड़ी मिल जाएगी। यहां से चाय नास्ता कर लेता हूं। भला हो इन लोगों का। मुझे नहीं मालूम सरकार इनकी बात क्यों नहीं सुन रही। कुछ दिक़्क़त होगी तभी ये लोग घर छोड़कर यहां पर बरसात ठंड में हैं। वैसे इनके लंगर में मैं रोज़ खाता हूँ। पैसे बच जाते हैं। ये मजदूरी करने वाले परिवार, कूड़ा बीनने वाली लड़कियां सभी खाना वाना ठीक से खा पा रही हैं पिछले कुछ महीनों से।” पवन सिंह के भूखे पेट को खाना मिलने के बाद चेहरे पर आये संतोष का भाव था। प्रत्येक नागरिक के लिए दो समय की रोटी की व्यवस्था करना सरकार का कर्तव्य होता है जिसे कुछ लोगों के लिए सिंघु बॉर्डर पर किसान आंदोलन पूरा कर रही है। 

अम्बाला से आए एक बुगुर्ज जिनका नाम बलकार सिंह था इस आंदोलन को क्रांति बताते हैं। उनके अनुसार इतिहास इन महीनों को वैसे दर्ज़ करेगा जैसे सदियों में होने वाली किसी एक क्रांति को करता है।

पंजाब के किसी गांव का सामूहिक कैम्प हमें दिखा। अलग-अलग घर के सदस्य रोटी पकाने में अपनी सहभागिता दे रहे थे। 40-45 साल की एक औरत रोटी के लिए आटे की लोई बना रही थी। आटा गूंथने, रोटियां बेलने, पकाने का काम 6-7 पुरूष मिलकर कर रहे थे। एक नौजवान ने पूछने पर बताया कि पिछले कुछ महीनों में उसने रोटियां बनानी सीखी है। वह पेशे से इंजीनियरिंग था। उसने बताया कि इस आंदोलन को लेकर देश-विदेश में रह रहे पंजाबी युवक, चाहे वे किसी भी नौकरी में हो बेहद जुड़ाव महसूस कर रहे हैं क्योंकि जमीनें और खेती उनकी पहचान का अहम हिस्सा है। यही कारण है कि पंजाबी म्यूजिक इंडस्ट्री के लोग इस आंदोलन को लेकर संवेदनशील हैं। 

आगे बढ़ने पर सड़क के एक तरफ कुछ वाशिंग मशीन लगे दिखे। यहां लोग अपने अपने तम्बू, ट्रकों से कपड़े लाकर धो रहे थे। मशीन से निकला पानी निकल सड़क पर जमा न हो इसके लिए पानी के निकास के लिए नाले की व्यवस्था की गई थी। इस जगह से थोड़ी दूर पर हरियाणा से आए किसानों का तंबू था। वहां लगभग 12 बुजुर्ग और तीन-चार युवा सदस्य बैठे थे। वहां मौजूद अम्बाला से आए एक बुगुर्ज जिनका नाम बलकार सिंह था इस आंदोलन को क्रांति बताते हैं। उनके अनुसार इतिहास इन महीनों को वैसे दर्ज़ करेगा जैसे सदियों में होने वाली किसी एक क्रांति को करता है। बलकार सिंह ने कहा, “हमारे खाने कमाने का साधन हमसे छीनने की कोशिश की जा रही है। सरकार से हमें ये उम्मीद नहीं थी। हमारा काम सिर्फ़ खेतों में संघर्ष करना है। चार पांच बन्दे मिलकर क़ानून बना रहे हैं जिनको किसानी के बारे में पता नहीं है। अडानी अम्बानी जैसे लोग। बिल बनाते वक्त हमसे कोई राय नहीं ली गई। आप बिहार से हैं, वहां किसानी की हालात पता होगी आपको। वहां से किसान के पास इतना सामर्थ्य नहीं है कि यहां इतने दिन रहकर अपना सारी जरूरतों को पूरा करते हुए विरोध-प्रदर्शन का हिस्सा बन सकें। उन्हें कभी फसल की सही कीमत नहीं मिलती। उनकी हालत सरकारी बाबुओं के कारण खराब हुई। ये वही हमारे साथ भी करना चाह रहे हैं। ये कहते हैं राष्ट्रवादी, सबसे बड़ा राष्ट्रीवादी किसान होता है।” उनसे जब यह सवाल किया गया कि बढ़ती ठंड में वे तबियत का ख़्याल कैसे कर पा रहे हैं तो उन्होंने कहा, “मोदी से यह अपील करते हैं देश का राजा प्रजा के बारे में सोचे, सबसे बड़ी संख्या में प्रजा खेती करती है। प्राइवेट कॉरपोरेट के हाथ में कल को ज़मीन आ जाए उससे अच्छा हम अपनी ज़मीन के लिए मर जाएं। रोज़ के मरने से एक बार मरना अच्छा हुआ न। सरकार तो खैर क्या मार देगी, परमात्मा ही मार सकता है। हमारी पत्नियां बच्चे भी आते हैं। बरसात में वे कल घर चले गए। एक घर से एक ही बीमार पड़े तो अच्छा है।”

अम्बाला से बलकार सिंह, तस्वीर साभार: ऐश्वर्या

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इन उम्रदराज़ लोगों की दृढ़ता देखने लायक़ है। कई लोगों के बीच केंद्र सरकार का आदेश मानने वाली पुलिस को लेकर थोड़ी अलग धारणाएं हैं। जैसे ज्यादातर युवाओं और महिलाओं का कहना था कि किसान परेड करते हुए 26 जनवरी को लाल किले जाएंगे क्योंकि यह देश सबका है। वे किसी तरह की हिंसा में विश्वास नहीं रखते। अगर पुलिस उनपर हिंसक कार्रवाई करेगी तब भी परेड करते हुए लाल किला जाने के मक़सद से वे पीछे नहीं हटेंगे। हालांकि कुछ बुजुर्ग ऐसे भी मिले जिनका विश्वास था कि पुलिस उनपर हिंसक कार्रवाई कर ही नहीं सकती क्योंकि पुलिस के जवान किसान के बेटे हैं। वे बात को मानने से इनकार करते रहे कि पुलिस सरकारी आर्डर पर भी उन्हें परेड करने से रोकना चाहेगी। लेकिन वे बातें जिसे लेकर वहां उपस्थित हर एक व्यक्ति, चाहे वो किसी भी उम्र, लैंगिक पहचान या जाति का हो निश्चित था वह थी- बिना कृषि कानूनों के वापस हुए आंदोलन खत्म नहीं होगा। ज़ाहिर है कि बिगड़ते मौसम का प्रभाव वहां मौजूद लोगों के स्वास्थ्य पर हो रहा है लेकिन वे अपनी ज़मीन के लिए अपने सब कुछ झेलने को दृढ़ हैं, उन्हें पता है कि उनके पास यहां बैठे रहकर विरोध दर्ज़ करते रहने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। हालांकि उन्होंने हरियाणा सरकार के मेडिकल व्यवस्था दिए जाने की बात पर उत्साह नहीं दिखाया। उनके अनुसार हरयाणा सरकार ने बिल के मामले में किसानों का पक्ष नहीं लिया है।

सिंघु बॉर्डर के इस आंदोलन को दिल्ली में हुए अन्य कई आंदोलनों से अलग इस मायने में माना जा सकता है कि यहां मंच के नीचे बड़ी संख्या में बैठे सभी किसानों को भी उनकी एकमात्र मांग पता है। वे और उनका पूरा परिवार उसे हासिल करने के लिए संकल्पित हैं। तीन महीने से ज्यादा समय से चलने वाला यह आंदोलन जो सरकार द्वारा मांगें नहीं पूरी किए जाने के परिणामस्वरूप अनिश्चित काल तक चल सकता है। इस में कई दिक्क़तें रोज़मर्रा की स्तिथियों को लेकर आ सकती हैं। लेकिन यहां उपयोग में कई छोटे छोटे जुगाड़ हैं। कपड़े धुलने के लिए, खाने और चाय की व्यवस्था थोड़ी-थोड़ी दूर पर होते लंगरों में है, कई लोग यहां ठेले पर मोज़े, बैग इत्यादि बेच रहे हैं। मनोरंजन के लिए संसाधन जैसे हुक्का, म्यूजिक सिस्टम, किताबों का स्टॉल, आपस में बातचीत इत्यादि लोग अपनी व्यक्तिगत सुविधानुसार कर रहे हैं। तीन कमरे वाले 20-30 मोबाइल बाथरूम दिल्ली सरकार द्वारा उपलब्ध करवाए गए है। मौजूद युवाओं ने बताया कि इनके अलावा किसानों द्वारा अपने शौचालय घर की व्यवस्था खुद भी की गई है। आपको कई बार यह जगह ‘कम्यूनिटी फीलिंग’ के सबसे अच्छा उदाहरण की तरह नज़र आ सकती है।

बुक स्टाल, तस्वीर साभार: ऐश्वर्या

कोई भी लंबे समय तक चलने वाला आंदोलन तब कमज़ोर पड़ने की आशंका से गुजरना पड़ता है जब वहां मौजूद लोगों को बुनियादी सुविधाओं जैसे खाना, स्वास्थ्य, शौचालय इत्यादि की कमी लगातार झेलनी पड़े, यह आंदोलन अलग-अलग उम्र और नौकरीपेशे वाले लोगों से संबंध रखता है जिनकी पृष्ठभूमि कृषि है। उनकी यह कृषि व्यवस्था बिहार जैसे राज्य से अलग है। इसलिए कृषि के मुनाफ़े और पैदावार के बदौलत, अन्य नौकरी पेशे में गए किसानों के बच्चों की मदद द्वारा किसान इस आंदोलन को बनाये रखने के पक्ष में हैं। ताकि भविष्य में उनकी हालत न तो कॉरपोरेट के हाँथों की कठपुतली जैसी हो जाये और न ही उन्हें बिहार की कृषि व्यवस्था जैसी मार झेलनी पड़े। 

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सभी तस्वीरें लेखक ऐश्वर्या द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं।

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