एडिटर्स नोट : यह लेख फेमिनिस्ट अप्रोच टू टेक्नॉलजी के प्रशिक्षण कार्यक्रम से जुड़ी लड़कियों द्वारा लिखे गए लेखों में से एक है। इन लेखों के ज़रिये बिहार और झारखंड के अलग-अलग इलाकों में रहने वाली लड़कियों ने कोविड-19 के दौरान अपने अनुभवों को दर्शाया है। फेमिनिज़म इन इंडिया और फेमिनिस्ट अप्रोच टू टेक्नॉलजी साथ मिलकर इन लेखों को आपसे सामने लेकर आए हैं अपने अभियान #LockdownKeKisse के तहत। इस अभियान के अंतर्गत यह लेख झारखंड के गिरीडीह ज़िले की लक्ष्मी ने लिखा है जिसमें वह बता रही हैं लक्षिता की कहानी।
“उड़ना नहीं आता है पर उड़ने की कोशिश कर रही हूं,
लड़ना नहीं आता है पर अपने हक की लड़ाई लड़ रही हूं“
मेरा नाम लक्षिता है। मैं झारखंड के एक छोटे से ज़िले में रहती हूं और अभी एक छात्रा हूं। इन दिनों पूरी दुनिया में कोरोना वायरस महामारी का साया छाया हुआ है। भारत में कोरोना वायरस का पहला मरीज पिछले साल 30 जनवरी को मिला था। फिर देश में जैसे-जैसे संक्रमण फैलता गया धीरे-धीरे मरीजों की संख्या बढ़ती चली गई। बीमारी को तेज़ी से बढ़ते देखकर भारत सरकार ने पूरे देश में 24 मार्च को लॉकडाउन लगा दिया और सबलोग अपने-अपने घर में बंद हो गए। इस लॉकडाउन ने सबसे ज्यादा महिलाओं और लड़कियों की जिंदगी को बांध दिया। इस कोरोना वायरस के कारण सबकी जिंदगी में बहुत बदलाव आए हैं। मेरी जिंदगी में कोरोना के कारण बदलाव अलग तरह से आया है। हम जिस समाज में रहते हैं वहां लड़कियों के लिए पहले से ही बहुत सारी बंदिशें हैं, नियम हैं और लड़कियों को उनका पालन करना पड़ता है। लड़कियों को कभी उनके हक, उनकी आज़ादी के बारे में नहीं बताया जाता है। उन्हें हमेशा घर की चारदीवारी के पीछे कैद रखा जाता है। लेकिन मैं इन सब नियम-बंदिशों को पीछे छोड़कर आगे निकल गई थी। अपनी मर्ज़ी से जीने लगी थी। मैं अपने सारे काम खुद करने लगी थी। चाहे वह काम बाहर का हो या घर का मैं उसे अपने तरीके से करना पसंद करती हूं।
दोस्तों के साथ घूमना मुझे बहुत ही अच्छा लगता है। दोस्तों के साथ घूमने से मुझे ख़ुशी मिलती थी। मुझे एक ऐसी जगह मिल गई थी जहां मुझे खुद को जानने का मौका मिला। मैं फैट (FAT) संस्था के टेक सेंटर जाने लगी थी। जहां ये सारी बातें बताई और समझाई जाती थी। वहां जाकर मुझे पता चला कि मैं लड़की हूं इसका मतलब यह नहीं है कि मेरा कोई अधिकार नहीं है, मुझे खुलकर जीने का हक नहीं है। वक़्त के साथ मुझे भी अपने अधिकारों के बारे में पता चला और मैं उन्हें पाने की कोशिश में लग गई। तर्क-वितर्क करते करते धीरे-धीरे मुझे आज़ादी मिलने लगी थी। इस आज़ादी के लिए मैंने बहुत मेहनत की थी। कई बार बहस करने के दौरान मुझे डांट भी पड़ जाती थी। कभी-कभी मेरी मैं मुझे मारती भी थी। मां का कहना था कि मेरा मुंह इतना चलता है जिसका कोई जवाब नहीं है। मैं पागल हो गई हूं। लेकिन मेरे सिर पर भूत सवार था आज़ादी का। घरवालों के पास मेरे सवालों के जवाब नहीं होते थे तो वे मुझे ज्यादा नहीं रोक पाते थे। मैं अपने कामों के लिए बाहर आराम से आने-जाने लगी थी।
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हम जिस समाज में रहते हैं वहां लड़कियों के लिए पहले से ही बहुत सारी बंदिशें हैं, नियम हैं और लड़कियों को उनका पालन करना पड़ता है।
लॉकडाउन से पहले तो समय तो अच्छे से गुज़र रहा था लेकिन कोविड -19 लॉकडाउन ने फिर से मेरी जिंदगी वहीं ला दी जहां से मैं दूर रहना चाहती थी। मुझे अब आज़ादी की आदत थी, पर कोरोना के कारण मुझे भी घर पर बंद होना पड़ा। मुझे घुटन होने लगी। मैं मानसिक रूप से थोड़ी सुस्त होती जा रही थी। मुझे रोज़ बाहर जाने की आदत थी। मैं हर दिन टेक सेंटर और पढ़ने के लिए कोचिंग जाती थी। घर पर रहकर मुझे लगता था कि मैं बीमार हूं। किसी भी काम में मेरा मन नहीं लगता था। हर चीज़ बेस्वाद लगने लगी, सर भारी-भारी सा लगने लगा। लॉकडाउन के कारण मैं महीनों से घर पर बंद थी। मैं भी फैट के #कोरोना_नहीं_करुणा अभियान के तहत लोगों की मदद करना चाहती थी। मैं आस-पास की जानकारी लेती रहती थी। कुछ लोगों को मैंने कह रखा था कि अगर कोई ज़रूरतमंद हो तो मुझे बताए। एक दिन मुझे पता चला कि कुछ लोगों को मदद की ज़रूरत है। वे लोग मज़दूर थे। मैं उन्हें ज्यादा नहीं जानती थी। फिर भी उनसे मैंने बात की कि वे क्या करते हैं ? उन्होंने बताया कि उनका रोज़ का कमाना खाना है पर इन दिनों तो सब बंद है। घर में बच्चे हैं और खाने-पीने को दिक्कत हो रही है।
मुझे यह जानकर बहुत ही बुरा लगा। मानो मैं एक ऐसी सच्चाई से मिल रही थी जिसके बारे में सिर्फ सुना था। आज अपने कानों से सुन रही थी, अपनी आंखों से देख रही थी। मुझे बहुत दुख हो रहा था। मैं भी बहुत अमीर नहीं हूं पर मेरे पास मदद के लिए लोग थे। मैंने पहले कोरोना वायरस के बारे में फैली अफ़वाह के बारे में मजदूरों से कुछ देर बात की। उन्हें बताया कि यह बीमारी है। इसका इलाज पूजा-पाठ नहीं है। उसके बाद मुझे उनकी मदद के लिए राशन डीलर के पास जाना था। राशन डीलर को सरकार की ओर से राशन मिला था। उनलोगों को देने के लिए जिनके पास राशन कार्ड नहीं है पर कुछ भी कागज़ न होने के कारण उन मजदूरों को राशन नहीं मिल पाया। मैं कुछ मदद कर सकती थी, लेकिन मुझे घर से जाने नहीं दिया गया। ऐसा कोरोना से पहले नहीं था। पहले मैं खुद के कामों के लिए खुद बाहर जाती थी। अब मुझे न जाने देकर मेरे भाई को भेजा जाने लगा। घर में सारे फैसले बड़े पापा लेते हैं। उन्होंने ही मुझसे 2 साल छोटे भाई को जाने को कहा और वो गया। जाते समय भाई मुझे देख रहा था जबकि पहले वह अपने कामों में व्यस्त रहता था। मुझे तब लगा कि मैं पहले जिस आज़ादी से घूमती थी वह इन्हें पसंद नहीं था। शायद इसलिए मुझे फिर से रोका जा रहा है। अभी इनके पास कोरोना वायरस का बहाना है।
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मुझे उस हर इंसान पर गुस्सा आता है जो बेटी को अपनी इज़्ज़त कहते हैं और इज़्ज़त के नाम पर उन्हें घर में बंद रखना चाहते हैं। मुझे बुरा लगा, पर मेरे लिए उन मजदूरों की मदद करना ज्यादा ज़रूरी था। कुछ दूसरे लोग लॉकडाउन में मदद के लिए पैसे देते थे। वो लोग भी #कोरोनानहींकरुणा अभियान से जुड़े हुए थे। मैं उनसे पैसे लेकर मजदूरों की ज़रूरत के सामान की लिस्ट बनाकर सामान लेने जा रही थी। फिर मुझे रोका गया और मेरे छोटे भाई को भेजा गया। अगर मुझे रोकने का कारण बीमारी होती तो मेरे छोटे भाई को भी जाने नहीं दिया जाता पर मेरे छोटे भाई को जाने दिया जा रहा था। बड़े पापा बोले कि वहां दुकान के पास लोग होते हैं। वहां मुझे नहीं जाना है। इस पर मेरे पापा ने कहा कि लक्षिता को जाने देते हैं। इसे सब पता है कि क्या कितना लेना है। बड़े पापा ने पापा को भी डांट दिया। मेरे पापा चुप हो गए क्योंकि बड़े पापा की बात सबको माननी पड़ती है। वह घर के सबसे बड़े हैं। उनके मना करने के बावजूद भी मैं गई तो बड़े पापा गुस्सा हो गए और दोबारा कुछ नहीं बोले। मैं सामान लेकर आई और उन मजदूरों को मैंने सामान दिया। वे लोग सामान लेकर धन्यवाद बोलकर चले गए पर मेरे मन में एक सवाल चल रहा था कि क्यों मुझे आज बाहर जाने से रोका जा रहा था।
दूसरे दिन मैं फिर अपने कुछ काम से बाहर गई तो घर आते-आते थोड़ी देर हो गई। इसके बाद मुझसे काफी सवाल जवाब किया गया, जो कोविड के पहले नहीं होता था। मैं फिर से वहीं फंसी जा रही थी जहां से मैं निकली थी। मैं यह सोचकर परेशान हो गई थी। मुझे और भी लोगों की मदद करनी थी। ऐसे कैसे चलेगा? घर में मैंने बात की कि क्यों मुझे अब हर बात पर रोका-टोका जा रहा है। कुछ समय के बाद वे कहने लगे कि बीमारी इतनी तेजी से बढ़ रही है, थोड़ा तो ख्याल रखना चाहिए। तब मुझे लगा कि ये सब वही पुरानी धारणाएं हैं। मैं रुकी नहीं। अपने कामों के लिए बाहर आती-जाती रही। इस दौरान मैंने पूरी सावधानी बरती। मास्क लगाना, सामाजिक दूरी बनाए रखना, हाथ धोते रहना – इन सब बातों पर मैं भरपूर ध्यान देती थी। लॉकडाउन के कारण ज्यादातर काम फ़ोन से ही करती थी। फ़ोन से ही ज़रूरतमंद लोगों का पता लगाती थी। फिर मैं सामान उनको अपने घर बुलाकर दे देती थी। मेरे पापा भी कुछ लोगों को जानते थे जिनको मदद की ज़रूरत थी।
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लॉकडाउन में फ़ोन मेरा एक बड़ा जरिया था लोगों की मदद करने का। इसी वक़्त मैं और भी अभियान से जुड़ी और उस अभियान के दौरान मैंने बहुत सारे बुजुर्ग लोगों से बात की। फ़ोन से ही उनको इस बीमारी के बारे में बताना, उनकी तबीयत के बारे में पूछना और उन्हें अगर किसी मदद की ज़रूरत हो तो संस्था को बताना ताकि वे लोग उनकी मदद कर सकें। जिसे जिस प्रकार की मदद की ज़रूरत होती उसकी उसी तरह से मदद की जाती थी। जब सब्जीवाले के पास मास्क नहीं होता तो मैं उन्हें मास्क दे दिया करती थी। हमारे घर की तरफ जो भी कुछ बेचने आते बिना मास्क लगाए आते थे। मैं उन्हें भी मास्क देती थी ये सब करने में मुझे बहुत ही ख़ुशी मिलती थी। लोगों से मुझे काफी तारीफ मिलती थी। रिश्तेदार भी बोलते लड़की बड़ी हो गई है। जान-पहचानवाले खुश होकर बताते कि मैं कैसे सबकी मदद कर रही हूं। बुजुर्गों से बात करती तो वे भी मुझे आर्शीवाद देते थे और कहते कि तुम बहुत अच्छा काम कर रही हो।
मैं लोगों की मदद करती रही और इससे जो मेरी मानसिक रूप से सुस्ती थी वह कम होने लगी। मैं नियमित रूप से अपना काम करने लगी तो पहले से बेहतर महसूस करने लगी। मेरा दिन का काम था। लोगों की मदद करने के साथ मेरे अधिकार और मेरी आज़ादी छिन ना जाए, उसका भी मैं ख्याल रख रही हूं और ये सब करने का हौसला मुझे फैट और टेक सेंटर से मिला। भविष्य में भी अपनी हिम्मत को बनाए रखूंगी ताकि बेवजह की बंदिशों को पीछे छोड़कर आगे चलूं। इसी लॉकडाउन ने मुझे बहुत कुछ सिखाया भी, जैसे ऑनलाइन मीटिंग करना और भी बहुत सारी तकनीकी चीजें मैंने सीखीं। अब मैं वही तकनीकी चीजें दूसरी लड़कियों को सिखा रही हूं वह भी ऑनलाइन। इस तरह मेरी जिंदगी में कोरोना वायरस की वजह से बदलाव अलग ढंग से आए। कुछ बुरा हुआ तो कुछ सीखने को मिला और कुछ खुशियां भी मिली।
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