मैं उस वक्त अपनी एक दोस्त की बर्थडे पार्टी में थी। तभी एक दोस्त ने अचानक मज़ाक के लहजे में कहा, “अरे मालूम चला? हमने कहा क्या? उसने बताया कि ऑनलाइन शॉपिंग साइट मिंत्रा के ‘आपत्तिजनक’ लोगो पर किसी लड़की ने पीटिशन डाली है। मैंने पूछा, “क्यों, क्या हो गया? अभी कुछ दिन पहले ही ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लैटफॉर्म ऐमज़ॉन पर आई वेबसीरीज़ ‘तांडव’ देखकर लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत हो गई थी। इससे पहले स्टैंड-अप कॉमीडियन मुनव्वर फारूकी के जोक्स से भावनाएं आहत हुई, फिर 26 जनवरी को कथित तौर पर तिरंगे का अपमान हुआ, अब किसकी भावनाओं को क्षति पहुंच गई। अब ऑनलाइन शॉपिंग साइट मिंत्रा के लोगो से किसी की भावना आहत हुई। मिंत्रा के लोगो के ख़िलाफ़ पीटिशन डालने वाली महिला को कंपनी का लोगो एक नंगी लड़की के जैसा लग रहा था। उफ्फ! यह कहना था कि पार्टी का रंग ही बदल गया। फिर एक ही दिन बाद मालूम चला कि मिंत्रा ने अपना लोगो बदल भी दिया। मैंने सोचा, ‘चलो अच्छा हुआ, अभी तक सिर्फ धर्म, फलों और जिला-प्रदेशों के नाम बदलकर उनकी सुरक्षा हो रही थी। अब लड़कियां भी सुरक्षित हैं, होनी भी चाहिए। उन्हें तो सुरक्षित ‘रखने’ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। क्यों? ठीक है न?
मिंत्रा एक भारतीय ई-कॉमर्स कंपनी है जिसकी शुरुआत साल 2007 में हुई थी। इसकी स्थापना मुकेश बंसल ने आशुतोष लवानिया और विनीत सक्सेना के साथ मिलकर की थी। दिसंबर 2020 में अवेस्ता फाउंडेशन की फाउंडर-डायरेक्टर नाज़ पटेल ने मुंबई पुलिस की साइबर सेल में मिंत्रा के खिलाफ यह शिकायत दर्ज करवाई कि मिंत्रा का लोगो आपत्तिजनक है क्योंकि यह एक नंगी लड़की की टांगों जैसा दिखता है। औरतों की अस्मिता बचाने का बोझ अपने कंधों पर लेकर चलने वाले भारत के लोगों के लिए इतना होना कहना ही काफी था। आजकल के #boycott के फैशन के ज़माने में ट्विटर पर #boycottmyntra छाने लगा। ध्यान रहे यह उसी देश के लोगों की भावनाएं हैं जो पूरे विश्व में महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश होने का गौरव लिए फिरता है। जिसे एक वक्त पर महिलाओं की अस्मिता की फ़िक्र रहती है तो अगले पल यह उन्हीं औरतों के लिए अपराधी बन जाता है। शायद ऐसे ही देश से हम यह उम्मीद भी कर सकते हैं कि उसे एक कंपनी के लोगो में भी महिलाओं की योनि ही नज़र आए।
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जितना निराशाजनक मिंत्रा का लोगो बदले जाने का घटनाक्रम है उससे कहीं ज़्यादा बुरा उसके पीछे काम करने वाला तंत्र है और यह तंत्र खुद में इतना उलझा हुआ है कि समझ नहीं आता कि कौन सा सिरा पकड़कर इसे किस तरह सुलझाकर समझाया जाए।
हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने कहा था कि किसी नाबालिग का का स्तन दबाना तब तक पॉक्सो ऐक्ट के तहत यौन हिंसा के अंतर्गत नहीं आएगा जबतक आरोपित और शोषित की त्वचा एक दूसरे के संपर्क में न आई हो यानि जबतक यह स्पष्ट न हो कि आरोपित ने शोषित के कपड़े हटाए थे या नहीं। हम महिलाओं की ‘अस्मिता’ एक कंपनी के लोगो को बदलकर उस वक़्त में बचा रहे हैं जिस वक़्त में बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की एक जज कहती हैं कि एक पुरुष का किसी नाबालिग के सामने पैंट की चेन खोलना यौन हिंसा नहीं है। जहां प्रत्यक्ष तौर पर यौन शोषण हो रहा है हम वहां उक्त तरह के बेवकूफ़ी भरे फैसले सुनाकर उनके शोषण को नज़रंदाज़ कर रहे हैं। वहीं जब कोई एक लोगो देखकर योनि की कल्पना करता है, हम उसके पीछे नारी अस्मिता का झंडा लहरा रहे हैं। यकीनन हम एक तार्किक समाज के तौर पर बुरी तरह परास्त हुए हैं।
जितना निराशाजनक मिंत्रा का लोगो बदले जाने का घटनाक्रम है उससे कहीं ज़्यादा बुरा उसके पीछे काम करने वाला तंत्र है और यह तंत्र खुद में इतना उलझा हुआ है कि समझ नहीं आता कि कौन सा सिरा पकड़कर इसे किस तरह सुलझाकर समझाया जाए। हम उस समाज में रहते हैं जहां ‘लड़के’ और ‘लड़कियों’ को ‘लड़के’ और ‘लड़कियों’ की तरह बनाया जाता है। एक इंसान को समाज के बनाए जेंडर के ढांचे में ढालने की प्रक्रिया की जड़ें बेहद मज़बूत है है कि क्योंकि ये हम ही हैं जो गुलाबी लड़कियों का रंग और नीला लड़कों का रंग बनाते हैं। यह हमारी मांए ही हैं जो अपनी बेटियों को ‘रसोई की रानियां’ और बेटों को ‘पलकों का राजा बनाती हैं।’ वही अपनी बेटियों को ‘सही’ कपड़े पहनने की हिदायत देती हैं लेकिन बेटों को बचपन से ही महिलाओं की इज्ज़त करना सिखाना उचित नहीं समझती। ये हमारे पिता ही हैं जिन्हें अपनी नज़रों के सामने ब्रा, पैंटी या फिर पैड्स बर्दाश्त नहीं होते लेकिन उन्हें कहीं भी कपड़े बदलने में दो बार सोचना भी नहीं पड़ता। लैंगिक असमानता के ये उन्हीं के रोपे हुए बीज होते हैं जो उनके बेटे भी ‘अपने घर की महिलाओं’ की मर्ज़ी की परवाह नहीं करते बल्कि उनपर अपने फैसले थोपते हैं। यह हमारे आपके भाई ही हैं जिन्हें अपनी बहनों का ऊंची आवाज़ में बात करने या फिर देर रात बाहर निकलने पर आपत्ति होती है। जो हमेशा हमें ‘सुरक्षित रखते’ हैं। ये हमारे आस-पास के लोग ही हैं जिन्हें एक लड़का और एक लड़की की दोस्ती से आपत्ति हो जाती है और जो कैरेक्टर सर्टिफिकेट बांटने का काम बखूबी करते हैं।
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हमारा समाज वह समाज है जो लड़कियों को एक तिजोरी के तौर पर देखता है और हर व्यक्ति उस तिजोरी के अंदर का सामान उसके अंदर ही रहने देना चाहता है ताकि एक बंद कमरे में उसे इत्मिनान से खोलकर आंखें फाड़-फाड़कर देख सके। यही सोच और यही तंत्र है जो पुरुषों को सड़क किनारे खड़ा होकर पेशाब करने का ‘अधिकार’ देता है मगर एक लोगो में योनि जैसी किसी कृति के होने की कल्पना मात्र को आपत्तिजनक करार देता है। मेरी माने तो यह लिंग या जेंडर दरअसल इसी समाज की देन है। यही कारण है कि आज अलग-अलग जेंडर से जुड़े इतने सारे अपराध हर रोज़ घटित हो रहे हैं। यकीन मानिए इन अपराधों में बहुत तेज़ी से कमी आ सकती है अगर हम इन्हें लड़का, लड़की, गे, लेस्बियन आदि न मानकर पहले सिर्फ इंसान माने। दरअसल, हमें चाहिए कि हर जेंडर, हर यौनिकता के लोग आपस में खुलकर बात कर सकें खुद के बारे में, खुद के शरीर के बारे में, खुद की भावनाओं के बारे में। मुझे लगता है कि आज के समय की जो सबसे ज़रूरी मांग होनी चाहिए वह स्कूलों में सेक्स एजुकेशन की होनी चाहिए। बायोलॉजी की किताबों में एक की बजाय और अधिक एनाटोमी के चैप्टर्स होने चाहिए और ऐसे गुणी और जानकार शिक्षकों होने चाहिए जिन्हें ऐसे जरूरी और बुनियादी चैप्टर्स को पलटवाने की बजाय कैसे पढ़ाना है, वह मालूम हो।
आप कहेंगे कि देखो ज़रा कैसी बेशर्म लड़की है। लड़की होकर भी कैसी अश्लील बातें कर रही है। एक तो उस पीटीशन ने मिंत्रा के ‘आपत्तिजनक’ लोगो को बदलवाकर ने सभी लड़कियों की योनियां ढक दी और यह उसी को गलत ठहरा रही है। क्यों है न! यही कहेंगे न? माफ़ कीजिएगा, नाज़ पटेल ने जो कदम उठाया उससे वह आपकी हीरो बन सकती हैं, मेरी नहीं। चलिए मुझे उम्मीद है कि ‘इतने बड़े’ कदम के बाद लडकियां सुरक्षित रहेंगी। हर दिन के रेप के मामलों में भारी गिरावट आएगी। उनकी निजी तस्वीरें लीक नहीं होंगी और मान लो ऐसी घटनाएं हो भी गई तो तब भी हमारे समाज को उससे क्या इतनी ही आपत्ति होगी जितनी मिंत्रा के लोगो से हुई?
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तस्वीर साभार : VCC