अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस वैश्विक स्तर पर सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी और उनकी सफ़लता को महत्व देने वाले दिन के रूप में मनाया जाता है। इस दिन दुनियाभर के नारीवादी संगठन और महिला अधिकारों के पक्षधर समाज में लिंग आधारित भेदभाव को खत्म करने के लिए अपने प्रयासों में और अधिक तीव्रता लाने लिए नीतियां बनाते हैं। यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के अस्तित्व और उनकी मौजूदगी का उत्सव मनाने वाला दिन है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इस साल के अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की थीम ‘वीमेंस इन लीडरशिप: अचीविंग एन इक्वल फ्यूचर इन अ कोविड-19 वर्ल्ड’ यानी ‘नेतृत्व में महिलाएं: कोविड-19 के दौर में एक बेहतर भविष्य प्राप्त करती हुई’ रखी गई है। इसमें कोविड-19 के दौरान विश्वभर में महिलाओं द्वारा स्वास्थ्यकर्मी, केयरगिवर और सामुदायिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में निभाई गई ज़िम्मेदारी का प्रभाव दर्शाते हुए समाज में उनकी बढ़ती भागीदारी पर ज़ोर दिया जाएगा। कुछ अन्य समूहों द्वारा इस दिन को ‘चूज़ टू चैलेंज’ थीम के तहत मनाया जाएगा। यह थीम समाज में इस धारणा को मज़बूती से रखना चाहती है कि महिलाएं अपने साथ हो रहे किसी भी तरह के शोषण और भेदभाव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाकर उन्हें चुनौती दें।
एक महिला के रूप में हम सबने यह महसूस किया है कि यौन हिंसा जैसी घटनाओं में भी औरतों को ही दोष दिया जाता है। यह विचार हमारे आस-पास, घरों और परिवारों में भी प्रचलित है। ऐसे में, एक स्त्री जिसके साथ शोषण होता है, वह सशक्तता से अपनी आवाज़ नहीं उठा पाती। इसी संकोच और सामाजिक भय को तोड़ने के लिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2021 की थीम ‘चूज़ टू चैलेंज’ रखी गई है, जिसके तहत हमें अपने साथ हो रहे शोषण के ख़िलाफ़ तो बोलना ही है। साथ ही सामूहिक रूप से समावेशी विश्व बनाने के लिए अन्य महिलाओं के संघर्ष में भी ‘सॉलिडेरिटी’ देकर उनकी आवाज़ को मज़बूत करना है।
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अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस : ऐतिहासिक जड़ें
महिलाओं और उनके मुद्दों को केंद्र में रखकर किसी आयोजन की पहली शुरुआत ‘राष्ट्रीय महिला दिवस’ के रूप में 28 फरवरी,1909 में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका द्वारा की गई थी। यह पहल अमेरिकी लेबर एक्टिविस्ट ‘थेरेसा सरबर मालकिएल’ की सलाह पर की गई थी, जो महिला अधिकार के मुद्दों को लेकर लगातार अपनी बात रख रही थी और समाज में प्रचलित ‘व्हाइट सुप्रीमेसी’ का विरोध कर रही थी। इसके कुछ समय बाद, ‘अंतरराष्ट्रीय समाजवादी महिला संघ’ (इंटरनेशनल सोशलिस्ट वीमेंस कॉन्फ्रेंस’ के डेनमार्क अधिवेशन आयोजित किया गया। इसमें जर्मनी के डेलीगेट्स क्लारा ज़ेटकिन, केट डनकर, पॉला थिएड जैसी नारीवादियों ने अमरीकी सहयोगियों से प्रेरित होकर यह विचार रखा कि साल में एक दिन महिला दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए। इस कॉन्फ्रेंस में 17 देशों से 100 सदस्य सम्मिलित हुए थे। सबने महिलाओं के वोट के अधिकार से लेकर अन्य समनाधिकारों के संघर्ष के लिए नीति निर्माण की पर अपनी सहमति दर्ज करवाई थी। हालांकि इस समय तक दिन तय नहीं किया गया था।
इस कॉन्फ्रेंस के एक साल बाद 19 मार्च, 1911 में पहली बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यानी दुनिया के अलग-अलग भागों में क़रीब दस लाख लोग एकत्रित हुए और उन्होंने प्रदर्शन किया। केवल ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य में 300 से अधिक प्रदर्शन किए गए। इस दौरान महिलाओं ने वोट का अधिकार, सार्वजनिक कार्यक्षेत्र में उनके लिए अवसरों की मांग करते हुए रोजगार में होने वाले लैंगिक भेदभाव को खत्म करने की मांग की। 1913 में रूसी महिलाओं ने फ़रवरी माह के आख़िरी शनिवार को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाना शुरू किया जिसके अगले साल जर्मनी में यह पहली बार 8 मार्च को मनाया गया क्योंकि यह दिन रविवार का था और तबसे यह जर्मन महिलाओं के लिए वोट के अधिकार की मांग को लेकर हर साल मनाया जाने लगा।
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8 मार्च, 1917 में रूस की टेक्सटाइल कम्पनी में काम करने वाली महिलाएं सड़क पर उतरकर और पूरे शहर में प्रदर्शन करने लगीं। इसने फरवरी क्रांति और अक्टूबर क्रांति की शुरुआत की जो आगे चलकर रूसी क्रांति में बदली। प्रथम विश्व युध्द के दौरान भी महिलाओं में ‘रोटी और शांति’ की बात करते हुए युद्ध खत्म करने की मांग की। इस प्रकार, दुनिया के अलग-अलग भागों में महिलाएं सामाजिक क्षेत्र में उतरकर अपनी बात जनता के सामने रख रही थी। बाद में सोवियत रूस ने इस दिन को आधिकारिक तौर पर अपना लिया जिसके बाद साम्यवादी देशों और आंदोलनों में यह व्यापक तौर पर मनाया जाने लगा। 1967 के बाद ‘सेकंड वेव फेमिनिस्ट्स’ ने इसे अपना लिया और इस दिन का इस्तेमाल संगठित होकर अपनी बात रखने के लिए होने लगा। यूरोप में कई बार इसको ‘वीमेंस इंटरनेशनल डे ऑफ स्ट्रगल’ कहा जाने लगा। 1970-80 के दशक में वामपंथी और लेबर संगठनों ने भी महिला समूहों के साथ जुड़कर समान आय, समान आर्थिक अवसर, प्रजनन अधिकार, बच्चा पालने में भूमिका व महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा के खिलाफ जैसे मुद्दों को उठाया।
इसी दशक के 1975 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी महिला अधिकारों और विश्व शांति जैसे मुद्दे को आधार बनाकर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की शुरुआत की। मानव जीवन के सामाजिक-सांस्कृतिक औप आर्थिक पृष्ठभूमि में मौजूद भेदभाव और शोषण के केंद्र में पितृसत्ता है। यह पितृसत्ता अभी भी समाज में मौजूद है और अन्य भेदभावपूर्ण व्यवहारों को पोषित कर रही है। इसलिए, वार्षिक स्तर पर महिला संगठन व महिला अधिकारों के पक्षधर इस दिन एकजुट होकर सामाजिक वैचारिकी में बदलाव हेतु प्रदर्शन करते हैं और आगे की नीतियां गढ़ते हैं। हालांकि धीरे-धीरे समाज में वृहद बदलावों व क्रांतिकारी परिवर्तन के प्रतीक इस दिन की महत्ता को सीमित करने की कोशिश की जा रही है। यह कोशिश पूंजीवाद द्वारा बाज़ार के माध्यम से की जा रही है।
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पूंजीवाद और महिला दिवस
पूंजीवाद दरअसल पॉपुलर एजेंडे पर संचालित अवधारणा है। इसलिए प्रत्येक दिन को वह अपने हिसाब से इस्तेमाल करना चाहता है। इसी कोशिश में वह इस दिन को भी बाज़ार तक सीमित करना चाहता है। यही कारण है कि वे महिलाएं जिनका शोषण सबसे पहले आर्थिक आधार पर हुआ और फिर सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से उसका सामान्यीकरण कर दिया गया। इसने उन्हें भी ग्राहक’ बना लिया है और ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ को होली, क्रिसमस या ईद की तरह देखते हुए ‘वीमेंस डे धमाका’ और ‘बम्पर सेल’ देकर भुनाने की कोशिश करता है। जबकि कॉरपोरेट और बाज़ार ने महिलाओं का शोषण करने में कोई कसर नहीं रखी है। महिलाओं को पिछड़ा मानकर उन्हें पुरुषों के बराबर काम करने से अवसर न देने से लेकर अनुचित कार्यावधि और असमान वेतन जैसी समस्याएं इसकी ही प्रवृत्तियां हैं। आप याद करिए ‘मैनफोर्स’ जैसे कम्पनियों के विज्ञापन, जहां एक ओर इसका नाम अपने आप में ‘मर्दवाद’ की अवधारणा को मज़बूत दिखाने की कोशिश करते हुए समाज मे प्रचलित ‘पुरूष’ के कंस्ट्रक्ट को मजबूती से रखता है। वहीं औरत एक वस्तु से अधिक कुछ नहीं होती।
इसके अलावा कॉमर्शियल फिल्मों का वह दृश्य बही याद करिए जहां रिसेप्शनिस्ट की भूमिका में हमेशा एक औरत होती है। ये कोई सामान्य दृश्य नहीं है, बल्कि ऐसे प्रतीकों का इस्तेमाल कर बाज़ार औरत को एक ‘ऑब्जेक्ट’ की तरह पेश करता है, यानी औरत निर्णय लेने की भूमिका में परिपक्व नहीं है, वह केवल ‘आकर्षण’ की विषय-वस्तु भर है। आप याद करिए ज़ोमैटो पीरियड लीव की बहसों को, जिसमें जानी-मानी महिलाएं भी ‘पीरियड लीव’ जैसे ज़रूरी मुद्दों के ख़िलाफ़ खड़ी दिख रही थीं― आख़िर क्यों!
इसका कारण यह है कि कॉरपोरेट महिलाओं की भूमिका को सीमित करता है। दरअसल, पूंजीवाद से संचालित निजी क्षेत्र में बड़े और निर्णयकारी भूमिकाओं में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर है। वही डर है, जिसके कारण बरखा दत्त जैसी पत्रकार यह तर्क देती हैं कि पीरियड लीव के बहाने अब औरतों को जोख़िम भरे या बड़े और महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स से हटा दिया जाएगा और यह डर पूरी तरीके से ग़लत भी नहीं है, ऐसा ही होता है। कितने ही उदाहरण पड़े हैं, जिनमें प्रेग्नेंसी के बाद महिलाओं को उनकी पूर्व-भूमिकाएं नहीं दी जाती हैं। ऐसा मान लिया जाता है कि वे कम ‘प्रोडक्टिव’ होंगी क्योंकि उनका ध्यान अपने बच्चे पर होगा, साथ ही कॉरपोरेट यह मानकर चलता है कि बच्चा पालने की ज़िम्मेदारी भी औरत की ही है। हालांकि इसका दोहरा रवैया तब साफ़ हो जाता है, जब एक ओर तो यह औरतों को कम उत्पादक मानते हुए उनका शोषण करता है, वहीं दूसरी ओर कूपन और छूट का प्रलोभन देकर अपना बाज़ार चलाता है।
ऐसे समय में, जब बाज़ार ज़रूरी बहसों व मुद्दों से जनता का ध्यान भटका कर वस्तुओं तक सीमित करने की कोशिश में लगा है और इसमें उसे ‘स्टेट’ का भी पूरा सहयोग मिल रहा है, क्योंकि राज्य खुद भी पित्रसत्ता को खत्म नहीं करना चाहता। इसलिए नारीवादियों, बुद्धिजीवियों व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की ज़िम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है, क्योंकि हमसे पहले स्त्री अधिकारों की मांग में संघर्षशील हमारी ‘फोरमदर्स’ ने लगातार आवाज़ उठाकर स्त्री अस्तित्व के इन प्रतीकों को स्थापित किया है और इसलिए ही इन प्रतीकों में छिपे सभी के लिए समान-समाज की अवधारणा को प्राप्त करने के लिए हमें मेहनत करनी चाहिए।
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