बायोएथिक्स या जैवनैतिकता वह विषय है जो किसी भी मेडिकल प्रक्रिया में शामिल सभी पहलुओं की नैतिकता पर विमर्श करता है। नारीवादी विमर्श का जैवनैतिकता में अहम स्थान है। साल 1992 में स्थापित ‘इंटरनेशनल नेटवर्क ऑन फेमिनिस्ट अप्प्रोच तो बाओएथिक्स’ नामक संस्था जैवनैतिकता के क्षेत्र में वंचित समुदायों की बात रखती है और उन जैवनैतिक सिद्धान्तों की आलोचना करती है जो इन समुदायों जैसे कि महिलाओं से जुड़े स्वास्थ्य मुद्दों पर ग़लत रवैया अपनाते हैं।
इस संस्था द्वारा प्रकाशित जर्नल IJFAB की एडिटर मैरी सी. रॉलिंसन के अनुसार ज्यादातर मेडिकल व्यवस्था लम्बे समय तक इस पूर्वाग्रह से ग्रसित रही कि पुरुषों द्वारा बनाये गए मेडिसिन सिद्धांत सही हैं व उनके विस्तार के लिए महिलाओं द्वारा जैवनैतिकता के विषय को एकदम अलग तरीक़े से नहीं देखा जाना चाहिए। उन्होंने मानवाधिकार व विज्ञान के इस्तेमाल में हमेशा पुरुषों को केंद्र में रखा व महिलाओं के अनुभव को विशेष मामला माना जाता रहा। शुरुआत से ही स्त्रीवादी जावेनैतिकता इससे असहमत रही हैं।
जैवनैतिकता के अंतर्गत सेरोगेसी
सेरोगेसी की प्रक्रिया में सेरोगेट मां की भूमिका सबसे अहम होती है, यह एक महिला के शरीर से जुड़ा मुद्दा है इसलिए इसपर बात करते समय स्त्रीवादी दृष्टिकोण अपनाना बहुत जरूरी है। ‘सेरोगेट’ शब्द लेटिन भाषा के मूल शब्द ‘सुरोगेट्स’ से बना है जिसका अर्थ है एक औरत का दूसरी औरत के विकल्प के तौर पर होना, आसान भाषा में इसे किराये की कोख़ कहा जा सकता है। सेरोगेसी में एक सेरोगेट मां, बच्चे की चाह रखने वाला एक जोड़ा(विवाहित या अविवाहित) या एक व्यक्ति(सिंगल पेरेंट) होते हैं। मुख्यतः सेरोगेसी दो प्रकार की होती हैं: पारंपरिक(ट्रेडिशनल) सेरोगेसी और गर्भावधि (गेस्टेशनल) सेरोगेसी। पारंपरिक तरीक़े में एक औरत अपनी सहमति से जोड़े/व्यक्ति के स्पर्म से इंसेमिनेट की जाती जाती है। इन मामलों में सेरोगेट मां बच्चे की आनुवंशिक व गर्भावधि मां होती है। जन्म के बाद कानूनी रूप से वह बच्चा आशयित जोड़े/व्यक्ति का होता है व सेरोगेट मां से उसका कोई नाता नहीं रहता। जोड़े में जो पिता है केवल उसका बच्चे के साथ आनुवंशिक रिश्ता होता है। इसके विपरीत गर्भावधि सेरोगेसी में जोड़े(यदि एक मर्द और एक औरत हैं) के दोनों सदस्यों के साथ बच्चे का आनुवंशिक रिश्ता होता है। इस केस में सेरोगेट मां की भूमिका ‘इन विट्रो फर्टिलिजेशन'(IVF) की प्रक्रिया से जन्मे भ्रूण को अपने गर्भ में धारण करती है। IVF एक प्रकार की मेडिकल प्रक्रिया है।
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नैतिक बहस
रोज़मेरी टोंग, अमरीकी स्त्रीवादी दर्शनशास्त्री ने ‘सेरोगेट मदरहुड नामक पेपर में लिखा है : अविवाहित जोड़े, ज्यादातर समलैंगिक व क्वेयर व्यक्ति या शादीशुदा जो भले की प्रजनन क्रिया के लिए सक्षम हों लेकिन मां किसी कारणवश गर्भवती नहीं होना चाहती हो, सिंगल मर्द/औरत, तलाकशुदा व्यक्ति सेरोगेसी की व्यवस्था से बच्चे का सुख भोग पाते हैं।
‘सेरोगेट मदरहुड’ नामक अपने पेपर में रोज़मेरी टोंग ने सेरोगेसी के पक्ष और विपक्ष में बंटे लोगों की कुछ नैतिक चिंताओं को उजागर किया है। विपक्ष में रखे गए कुछ मुख्य बिंदु हैं, अगर दोनों में से एक अभिभाव बच्चे से आनुवंशिक रूप से जुड़ा है तो डिवोर्स के मामलों में वह बच्चे पर ज्यादा अधिकार के लिए मान्य होगा। दूसरी बात, एक बार सेरोगेट मां ने बच्चा अपने गर्भ में धारण कर लिया उसके बाद कानूनी अभिभावक के मन में बच्चे की चाह ख़त्म हो जाने पर सेरोगेट मां का क्या होगा? चूंकि भारत जैसे देश में कई सेरोगेट माएँ प्रक्रिया से जुड़ी कानूनी डील बनवाने को लेकर जागरूक नहीं होती, ऐसे में उनकी स्थिति सवाल व दिक्कतों के घेरे में आ खड़ी होती है। स्त्रीवादियों का कहना है कि इस अभ्यास में बच्चों को वस्तु की तरह प्रस्तुत किया जाता है जिसकी कीमत औरत अपने गर्भ दान कर के चुकाती है। इसके अलावा समृद्ध परिवार की औरतें जो यह दाम चुका पाती हैं बिना गर्भ धारण किये एक वस्तु-बच्चा हासिल कर पाती हैं।
समलैंगिक जोड़ों के लिए अनुवांशिक बच्चा सेरोगेसी से ही सम्भव होता है लेकिन भारत में अब भी वह इस प्रक्रिया के लिए मान्य नहीं हैं।
वहीं इसके समर्थकों का मानना है कि सेरोगेसी की व्यवस्था में आने वाले अवैधता को कानूनी व्यवस्था की कड़ाई से रोका जाना चाहिए बजाय इसे ख़त्म कर देने के। इसके जरिए औरतें अपने शरीर पर अपना अधिकार लागू कर पाती हैं, अपनी सहमति से सरोगेट मां बनने का चुनाव करना औरत का अधिकार है। लाइन के इस तरफ़ खड़ी नारीवादियों के अनुसार इससे औरतों के बीच आर्थिक आधार पर विभाजन रेखा खींच जाने के बजाय यह प्रकिया उन्हें साथ ला सकती है। जो कामकाजी औरतें जिन्हें निजी प्रेग्नेंसी के जरिये बच्चा नहीं बच्चा और आर्थिक रूप से जिन जरूरतमंद औरतों को गर्भ धारण करने में समस्या नहीं है वे साथ आकर एक समावेशी समाज बना पाएंगी।
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भारत में सेरोगेसी
साल 2002 में कमर्शियल सेरोगेसी को भारत में कानूनी तौर से मान्य करार दिया गया। कमर्शियल सेरोगेसी में सेरोगेट मां को चिकित्सक सुविधा व इस सेवा के बदले पैसों का भुगतान किए जाने की व्यवस्था होती है। अमरीका के मुकाबले भारत में कॉमर्शियल सेरोगेसी सस्ती थी, कारण था सेरोगेट मांओं की देखरेख, अधिकार में कमी व उनका शोषण। भारत में कई विवाहित व अविवाहित औरतें आर्थिक व्यक्तिगत या परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने सेरोगेट मां बनना चुनती हैं। घरों में घूम-घूमकर झाड़ू-बर्तन करने के बाद भी पेट भरने लायक़ कमाई न हो पाने के कारण कई औरतें प्राइवेट अस्पतालों के हॉस्टल में रह कर सेरोगेट मां होने की प्रक्रिया पूरी करती। इस से उन्हें पहले किये जा रहे कामों से थोड़ा ज्यादा पैसा मिलता है। इस दौरान उन्हें अपने परिवार से कभी कभार मिलने दिया जाता है। जानकारी की कमी होने के कारण न तो वे अपने हेल्थ इंश्योरेंस की मांग करती न इस प्रक्रिया के क़ानूनी होने को सिद्ध करते किसी प्रकार के दस्तावेज की।
CII की 2012 की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय सेरोगेसी इन्डस्ट्री की वार्षिक आमदनी दो बिलियन डॉलर थी। इसके साथ ही सेरोगेसी से जुड़े अवैध काम जोरों शोरों से चल रहे थे। इस इंडस्ट्री में सबसे ज्यादा कमाई दलालों व क्लीनिकों की होती है। इन सब बातों को देखते हुए 2019 में सेरोगेसी से जुड़ा एक विधेयक बना। फिर 2019 में बने विधेयक में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव के बाद हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सेरोगेसी की प्रक्रिया को नियंत्रित करने से संबंधित सेरोगेसी विधेयक 2020 को मंज़ूरी प्रदान कर दी है।
केवल भारतीय दम्पत्ति ही चुन सकते है सेरोग़ेसी
विधेयक के अनुसार, केवल भारतीय दंपति ही सरोगेसी का विकल्प चुन सकते हैं। यह विधेयक इच्छुक भारतीय निःसंतान विवाहित जोड़े जिसमें महिला की उम्र 23-50 वर्ष और पुरुष की उम्र 26-55 वर्ष हो उन्हें सरोगेसी अपनाने की अनुमति देता है। इसके अतिरिक्त यह विधेयक यह भी सुनिश्चित करता है कि इच्छुक दंपति किसी भी स्थिति में सरोगेसी से पैदा हुए बच्चे को छोड़े नहीं। नवजात बच्चा उन सभी अधिकारों का हकदार होगा जो सामान्य तरीक़े से जन्मे को उपलब्ध होते हैं। तलाकशुदा या विधवा 35-45 साल की औरत सेरोगेसी के बिल में सम्मिलित की गई हैं, सिंगल औरतों को इससे बाहर रखा गया है। एक आरटीआई के जवाब में सीएआरए ने लिखा था कि 2017-18 में सिंगल औरतों द्वारा अडॉप्शन के 495 फॉर्म भरे जाने की संख्या 2018-19 में बढ़कर 589 हो गयी थी। जब अडॉप्शन की अनुमति कानूनी तौर पर दी गयी है तो यह विधेयक इन सिंगल औरतों को सेरोगेसी अपनाने से क्यों रोकना चाहता है।
सिंगल पिता के बारे में भी विधेयक कुछ बात नहीं करता। समाज की सोच जो यह कहती है कि पिता अकेले बच्चे की देखभाल नहीं कर सकता यहाँ हावी होती नजर आती है। बॉलीवुड इंडस्ट्री के कई सिंगल व शादीशुदा पुरुष जैसे तुषार कपूर, शाहरुख खान, आमिर खान ने सेरोगेसी की प्रक्रिया से बच्चे पाए हैं। हालांकि उन्हें यह प्रक्रिया भारत से बाहर करनी पड़ी थी।
यह विधेयक लिव-इन जोड़े, सेम-सेक्स जोड़े, ट्रांसजेंडर समुदाय के बारे में कोई बात नहीं करता। सरकार का कहना है कि ऐसे नियम सेरोगेट बनती औरतों की सुरक्षा व उनके भले के लिए बनाया गया है। देखने वाली बात है कि इन औरतों के अधिकारों के लिए बना कोई भी विधेयक उनके शोषण को रोकने के नियम कड़े बनाएगा ना कि अन्य समुदायों के अधिकारों को छीनने का काम करेगा। समलैंगिक जोड़ों के लिए अनुवांशिक बच्चा सेरोगेसी से ही सम्भव होता है लेकिन भारत में अब भी वह इस प्रक्रिया के लिए मान्य नहीं हैं। समलैंगिकता को सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2018 में वैध करार दिए जाने के बाद भी ऐसे जरूरी विधेयकों में एलजीबीटीक्यू अधिकारों का ज़िक्र नहीं किया जाना एक तरह से गैरबराबरी और कानूनी व सामाजिक भेदभाव की तरफ़ इशारा करता है। सेरोगेट माओं को अपने अधिकारों व क़ानूनी प्रक्रिया के प्रति जागरूक और सशक्त करने, उनके लिए स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाना अनिवार्य करने, मेडिकल दलालों की भूमिका खत्म करने जैसे काम हों ये सुनिश्चित करने की आड़ में इस विधेयक को आधा-अधूरा सा रखा गया है।
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तस्वीर साभार : aajtak