स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य पोस्टपार्टम डिप्रेशन को नज़रंदाज़ करती हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था और समाज

पोस्टपार्टम डिप्रेशन को नज़रंदाज़ करती हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था और समाज

जहां भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अंधविश्वास, अज्ञानता और संकोच जुड़ा है, जाहिर है कि मातृत्व को गौरवांवित करने वाला समाज अपने ही बच्चे के पैदा होने से अवसाद जैसे समस्या को अपना नहीं पाता।

भारत में मां बनना किसी महिला के लिए सबसे बड़ी सफलता मानी जाती है। बहू या बेटी कितनी भी अनपेक्षित हो, गर्भवती होना उसके और परिवार के लिए सौभाग्य की बात होती है। किसी भी मां से यह उम्मीद रखना कि बच्चे के जन्म मात्र से ही उसका मन प्रसन्न होना चाहिए, अवास्तविक है। एक बच्चे का जन्म नई मां के स्वास्थ्य को भी शारीरिक और मानसिक रूप में प्रभावित करता है। बच्चे का जन्म मां के लिए साधारण चिंता से लेकर खुशी, भय या उत्तेजना पैदा कर सकता है। महिलाओं को प्रसव के बाद न सिर्फ बच्चे की देखभाल बल्कि शारीरिक और हॉर्मोनल परिवर्तन का भी सामना करना पड़ता है। इसलिए इन कारणों से महिलाएं अवसाद यानी पोस्टपार्टम डिप्रेशन की शिकार हो सकती हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि नौ महीने की महिला की अल्पावधि महत्वपूर्णता अचानक तब खत्म हो जाती है जब बच्चा दुनिया में आ जाता है।

जहां एक नवजात शिशु को पालने के नुस्खे और तरीके पर जोर दिया जाता है, वहीं, मां बनी उस महिला की शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को अकसर पूरी तरह नज़रंदाज किया जाता है। एक नवजात बच्चे की देख-रेख में कई तरह की सावधानी का ख्याल रखना होता है। साथ ही भारतीय समाज में बच्चे के पालन-पोषण के लिए कई सामाजिक मानदंड निश्चित होने से बहुत सी महिलाएं दबाव में होती हैं। ‘पैटर्नल लीव’ की अवधारणा भी भारत में लोकप्रिय न होने के कारण महिलाओं को अपने साथी से वह सहयोग नहीं मिलता जिस कि उन्हें जरूरत होती है या अपेक्षित है।

जहां भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अंधविश्वास, अज्ञानता और संकोच जुड़ा है, जाहिर है कि मातृत्व को गौरवांवित करने वाला समाज अपने ही बच्चे के पैदा होने से अवसाद जैसे समस्या को अपना नहीं पाता।

साल 2018 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा भारत की महिलाओं पर किए गए एक लंबे शोध में पाया गया कि मां बनने के बाद लगभग 22 प्रतिशत महिलाएं पोस्टपार्टम डिप्रेशन (पीपीडी) का सामना करती हैं।। कई बार नई मां में मामूली अवसाद का जन्म होता है जिसे साधारणतः ‘बेबी ब्लूज़’ कहा जाता है। लेकिन पीपीडी में चिकित्सा की आवश्यकता होती है और यदि इसका इलाज न किया जाए तो यह बच्चे और स्वयं की देखभाल करने की क्षमता को प्रभावित करता है। प्रसवोत्तर मनोरोग यानी पोस्टपार्टम डिप्रेशन को तीन श्रेणियों में बांटा गया है। पहला प्रसवोत्तर उदासी जिसे साधारण भाषा में बेबी ब्लूज़ कहा जाता है। प्रसवोत्तर मनोविकार और प्रसवोत्तर अवसाद अधिक जटिल और खतरनाक रूप है। इस अध्ययन के शोधकर्ताओं के अनुसार यह गौर करने वाली बात है कि भारत मातृ मृत्यु दर में लगातार सुधार कर रहा है जिसका मतलब है कि भविष्य में महिलाओं के प्रसव से जुड़ी मानसिक स्वास्थ्य विकारों को कम करने की ओर प्रयास किए जा सकेंगे। भारत में पीपीडी पर प्रयोग सिद्ध अध्ययनों की बढ़ती संख्या के बावजूद मजबूत व्यवस्थित सबूतों की कमी है जो न केवल पीपीडी के सभी नकारात्मक पक्षों को बल्कि इससे संबंधित कारकों को भी अनदेखा करती है। शोधकर्ता कहते हैं कि पोस्टपार्टम डिप्रेशन में हमारी वर्तमान समझ काफी हद तक कुछ क्षेत्रीय अध्ययनों पर ही निर्भर है, जिसमें राष्ट्रव्यापी आंकड़े बहुत कम हैं।

और पढ़ें : सरोगेसी से जुड़ी जरूरी बातें और भारतीय क़ानून

भारत में पीपीडी के विषय में सोहा अली खान, हाल ही में दोबारा मां बनी टीवी अदाकारा छवि मित्तल सहित कई महिला बॉलीवुड और टीवी सितारों ने खुलकर बात की है। अभिनेत्री समीरा रेड्डी जो दो बच्चों की मां हैं, अपनी गर्भावस्था के दौरान सोशल मीडिया के माध्यम से इन विषयों पर काफी मुखर रही थी। पीपीडी से जूझते हुए समीरा ने कहा था कि उनके बच्चे हंस के जन्म के बाद मई 2015 में उनका वजन 102 किलोग्राम हो चुका था। इस वजह से वह खुद से पूरी तरह अलगाव महसूस करने लगी थी। उन्होंने न सिर्फ बच्चे को अपने पति को सौंप दिया था बल्कि यह भी कहा था कि उन्हें अपने मातृत्व की शुरुआत अच्छी नहीं लग रही थी। सोशल मीडिया पर अपने परेशानियों को बताते हुए वह कहती हैं कि उन्हें यह समझने में ही लगभग एक सप्ताह लग गया कि उनके साथ क्या हो रहा था। वह कहती हैं कि शारीरिक और मानसिक बदलाव के कारण उनका आत्मविश्वास नष्ट हो गया था। वह एक साल बाद भी अपना वजन कम नहीं कर पा रही थी और इतने साल बॉलीवुड की चकाचौंध वाली दुनिया में रहने के बाद वह नहीं चाहती थी लोग उनके वजन के कारण उनका मजाक उड़ाए। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें इस विषय पर अधिक सहयोग नहीं मिला। इसलिए अपने वास्तविकता और खुद को अपनाने में उन्हें समय लगा।

जहां भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अंधविश्वास, अज्ञानता और संकोच जुड़ा है, जाहिर है कि मातृत्व को गौरवांवित करने वाला समाज अपने ही बच्चे के पैदा होने से अवसाद जैसे समस्या को अपना नहीं पाता। भारत जैसे वृहद देश में आधी से ज्यादा ग्रामीण आबादी को आशा स्वास्थ्य कर्मी, सरकारी चिकित्सालयों और स्वास्थ्य केंद्रों पर चिकित्सा के लिए निर्भर करना पड़ता है। यहां मानसिक स्वास्थ्य को लेकर न जानकारी होती है न चिकित्सा के लिए प्रशिक्षण। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की वेबसाईट में आशा कर्मचारियों की भूमिकाओं के अंतर्गत आशा कार्यकर्ताओं द्वारा महिलाओं को बच्चे के जन्म की तैयारी, सुरक्षित प्रसव के महत्व, स्तनपान, पूरक आहार, टीकाकरण, गर्भनिरोधक, प्रजनन पथ संक्रमण/ यौन संक्रमण (आरटीआई/ एसटीआई) और छोटे बच्चे की देखभाल सहित आम संक्रमण की रोकथाम के बारे में जानकारी देने का उल्लेख है लेकिन इनमें मांओं के मानसिक स्वास्थ्य के देखभाल के उपाय का कोई जिक्र नहीं है। अनुपचारित पीपीडी और बच्चे के खराब विकास के बीच भी संबंध पाया गया है। पीपीडी को मनोचिकित्सा के अंतर्गत एक प्रमुख अवसाद ग्रस्तता विकार (एमडीडी) के रूप में परिभाषित किया गया है। महिलाओं में अवसाद गर्भावस्था के दौरान शुरू हो सकता है या प्रसव के पहले महीने के बाद भी हो सकता है।

और पढ़ें : परिवार नियोजन का भार छीन रहा है महिलाओं की आज़ादी और अधिकार

कोविड -19 महामारी के दौरान भी महिलाओं में अवसाद के बढ़ने की खबर थी। कोरोना के कारण नकारात्मक माहौल, छोटे परिवार होने के कारण लोगों की कमी, महामारी के दौरान नजदीकी लोगों से दूरी, बढ़े हुए घरेलू काम और व्यावसायिक काम, पर्याप्त नींद की कमी, कोविड की स्थिति के कारण चिकित्सा सुविधाओं में कमी, अनिश्चितता और असुरक्षा या नौकरी खोने का डर आदि कई कारणों से महिलाएं पीपीडी से अधिक ग्रसित हुई। जबकि भारत में मानसिक स्वास्थ्य के महत्व की जागरूकता बढ़ी है, पर पीपीडी को अभी तक एक गंभीर समस्या नहीं माना जाता है। शायद इन्हीं कारणों से इसे कई बार ‘बेबी ब्लूज़’ के रूप में खारिज कर यह मान लिया जाता है कि समय के साथ यह अपने-आप ठीक हो जाएगा। दुर्भाग्यवश यह उपाय सभी के लिए कारगर साबित नहीं होती और इसलिए समय रहते उचित चिकित्सा आवश्यक होती है। जरूरी है कि महिलाओं को मातृत्व के बाद दुखी या चिंतित होने से उन्हें दोषी या शर्मिंदगी न महसूस करवाया जाए। मातृत्व हर महिला के लिए अलग एहसास और अनुभव लाती है इसलिए सभी को एक ही रूढ़िवादी सामाजिक तराजू में तौलना सही नहीं। अमूमन मांएं अपनी भावनाओं को नियंत्रण करने के चक्कर में खुद अवसाद ग्रसित हो जाती है। समय है कि हम अपने समाज को जागरूक और संवेदनशील बनाएं ताकि पीपीडी से पीड़ित महिलाओं को मदद और चिकित्सा मिल सके।

और पढ़ें : कोरोना काल में महिलाओं की पहुंच से दूर हुए पीरियड्स प्रॉडक्ट्स


 तस्वीर साभार : Financial Express

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content