समाजखेल खेल के मैदान में भी हावी है लैंगिक असमानता

खेल के मैदान में भी हावी है लैंगिक असमानता

मैंने अपने पिता जी से खेल में आगे जाने की इच्छा जताई थी, तब उनका जवाब था, “क्या करोगी खेल कर? इंडिया के लिए मेडल ले आओगी, फिर?”

इस पितृसत्तात्मक समाज में हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीज़ लिंग के आधार पर वर्गीकृत है। कपड़े और रंग से लेकर ऑफिस या घर के काम से लेकर उठने, बैठने, चलने, बात करने आदि का तरीका भी लैंगिक आधार पर ही बंटा हुआ है। लिहाज़ा खेल भी इस प्रवृत्ति से अछूता नहीं है। क्रिकेट और फुटबॉल जैसे खेलों को लड़कों का खेल मानना और खो-खो जैसे खेल लड़कियों के लिए निर्धारित करना इसी लैंगिक असमानता की उपज है। बल्कि अगर सच कहूं तो टीवी पर पहली बार पुरुषों को बैडमिंटन खेलते देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था क्योंकि तब तक मेरे दिमाग में यह बैठा था कि बैडमिंटन लड़कियों का खेल होता है। मैंने तब तक अपने घर के आस-पास किसी भी लड़के को बैडमिंटन खेलते नहीं देखा था। स्कूल में भी जहां लड़कियां खो-खो या बैडमिंटन खेलती थी। लड़के हमेशा क्रिकेट ही खेलते दिखते थे। इस बात से यह अंदाज़ा लगाना कि यह लैंगिक भेदभाव हमारे समाज में कहां से आ रहा है, थोड़ा आसान हो जाता है। मगर सही मार्गदर्शन न मिलने पर यह किस तरह यही भेदभाव घर कर जाता है दिमाग में, यह आज के समय को देखकर हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।

भारत एक ऐसा देश है जहां पुरुष क्रिकेट को एक धर्म माना जाता है। बाकी खेलों को क्रिकेट जितनी तवज्जो नहीं मिलती। न तो खेल मंत्रालय से ही और न ही आम लोगों से। स्कूल और ज़िला जैसे ज़मीनी स्तर पर भी यही हाल है। स्थिति तब और ज्यादा खराब हो जाती है जब महिलाओं के खेल की स्थिति पर नज़र डालें। महिलाओं को न तो खेल में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और न ही उनके लिए खेल आयोजित होते हैं। खेलों में जाने से पहले समाज को सबसे पहले उनके ‘रंग-रूप’ और ‘चेहरा काला हो गया तो शादी कैसे होगी’ की ही चिंता सताती है। इन सबके बावजूद आज अगर हम भारत में महिलाओं के खेल की स्थिति पर नज़र डालें तो वे बेहतरीन प्रदर्शन कर रही हैं। ऐसे में उन सभी महिला खिलाड़ियों का समाज की रूढ़िवादी सोच से आगे जाकर खेल को अपना करियर बनाना मात्र ही उन्हें तारीफ़ का हकदार बना देता है क्योंकि यकीन मानिए हमारे समाज में ऐसा करने के लिए नाते- रिश्तेदार, पड़ोसियों तक से तो क्या परिवार से भी लड़ना पड़ता है। जब मैंने अपने पिता जी से खेल में आगे जाने की इच्छा जताई थी, तब उनका जवाब मुझे शब्दशः याद है। उनका कहना था, “क्या करोगी खेल कर? इंडिया के लिए मेडल ले आओगी, फिर?” 

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मिताली राज, रानी रामपाल, पीवी सिन्धु, दीपा कर्माकर, मैरी कौम, सान्या मिर्ज़ा, हरमनप्रीत कौर, गीता फोगाट, साईना नेहवाल, शिरीन लिमाय, हिमा दास, दुती चंद, झूलन गोस्वामी जैसे अनेक नाम आज अलग-अलग खेल में भारत का सिर ऊंचा किए हुए हैं। मिताली जहां विश्व की सबसे सफल महिला क्रिकेटर्स में से एक हैं। वहीं, सिन्धु 2016 के रियो ओलंपिक्स में सिल्वर मेडल जीतने के बाद टोक्यो ओलंपिक्स 2021 में भारत की तरफ से गोल्ड मेडल की सबसे बड़ी दावेदार हैं। मगर आज भी स्थिति ये है कि अखबारों के स्पोर्ट्स पन्ने का ज्यादातर हिस्सा या तो पुरुष क्रिकेट की खबरों से पटा पड़ा रहता है और या फिर अन्य पुरुष खिलाड़ियों को मिलता है। महिला खिलाड़ियों या उनके खेल को ‘अन्य’ में ही जगह मिलती है।

ये सभी खिलाड़ी जहां वैश्विक स्तर पर भारत का सिर ऊंचा किए हुए हैं, वहीं देश के अंदर इनका बुरा हाल है। इस बात को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता कि खेल में अपना भविष्य बनाने को उत्सुक लड़कियों और उनके परिवार को वित्तीय नज़रिए से खेल में अस्थिर और अप्रत्याशित लगता भविष्य उनके कदम पीछे खींचता है। जहां पुरुष क्रिकेट में अथाह पैसा निवेश किया जाता है, वहीं महिला खिलाड़ियों को उसके आधे पैसे भी नसीब नहीं होते। फिर चाहे वह महिलाओं का क्रिकेट ही क्यों न हो। देश के लिए मेडल लाने के लिए साल भर जी तोड़ मेहनत करते इन सभी खिलाड़ियों को इतनी मेहनत के बाद भी नौकरी करनी पड़ती है और वu भी जब वे खोजने निकलती हैं तो उसके लिए भी कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है और सबसे बड़ा धक्का तो तब लगता है जब खेल कोटा से पढ़ाई करने वाले या खेल कोटा से नौकरी पाने वाले लोगों पर ‘कम डिज़र्विंग’ होने का लांछन लगता है।

मैंने अपने पिता जी से खेल में आगे जाने की इच्छा जताई थी, तब उनका जवाब था, “क्या करोगी खेल कर? इंडिया के लिए मेडल ले आओगी, फिर?”

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बीबीसी द्वारा 2020 में 14 राज्यों में कराए गए एक सर्वे के अनुसार जिन 10,181 लोगों ने सर्वे में भाग लिया था उनमें से 42% लोगों का मानना था कि महिलाओं के खेल पुरुषों जितने ‘मज़ेदार’ नहीं होते। चेहरे की ‘सुंदरता’ और बच्चे जनने की क्षमता पर सवालिया निशान तो ये समाज अनिवार्य रूप से लगाता ही है। इस सर्वे में भी यह सवालिया निशान सहज ही लगा। इस सर्वे ने लोगों के बीच प्रसिद्ध खिलाड़ियों का नाम भी जानने की कोशिश की और जो परिणाम आया वो चौंकाने वाला नहीं था मगर हां, दुर्भाग्यपूर्ण ज़रूर था। जब लोगों से किसी भी एक खिलाड़ी का नाम पूछा गया तो रिटायर हो जाने के बावजूद सचिन तेंदुलकर का नाम सबसे ज्यादा लोगों की ज़ुबान पर था। जो दुर्भाग्यपूर्ण था वो ये कि बीबीसी द्वारा सर्वे किए गए लोगों में से 50% लोग एक भी महिला खिलाड़ी का नाम नहीं बता सके।

हालांकि 18% लोगों ने यह सवाल पूछे जाने पर मशहूर टेनिस खिलाड़ी, सानिया मिर्ज़ा का नाम लिया। साइना नेहवाल और पीवी सिन्धु के बाद पीटी उषा लोगों की जुबान पर थीं। बीबीसी के सर्वे में यह भी पाया गया कि सर्वे में शामिल लोगों का एक तिहाई हिस्सा ऐसा भी था जिसने कबड्डी, कुश्ती, मुक्केबाजी, भारोत्तोलन, एथलेटिक्स जैसे खेलों को महिलाओं के लिए ‘अनुपयुक्त’ बताया। यह सर्वे भारत में महिला खेलों के अप्रचलित होने की सभी निराधार और पितृसत्तात्मक वजहें भी साफ़ दिखाता है। ऐसे में तथाकथित ‘अनुपयुक्त’ खेलों में वैश्विक स्तर पर महिलाओं का सफल प्रदर्शन इन सभी रूढ़िवादी सोच और परंपराओं को ठेंगा दिखाता है। खेल न सिर्फ स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है बल्कि व्यक्तित्व विकास का भी एक अभिन्न अंग है। इसलिए आज महिलाओं के विकास के लिए उन्हें न सिर्फ पढ़ाई में बल्कि साथ-साथ खेल में भी आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है। इस बात पर ज़ोर देने की ज़रूरत है कि न तो उनके जीवन का लक्ष्य उनकी शादी हो सकता है और न ही चेहरे या फिर त्वचा का रंग उनकी शादी का मापदंड ही बन सकता है।

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तस्वीर साभार : livemint.com

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