पश्चिम बंगाल चुनाव में तथाकथित देश की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी को हराकर ममता बनर्जी के नेतृत्व तृणमूल कांग्रेस सरकार बनाने जा रही है। ये अपने आपमें एक ऐतिहासिक जीत है, जब महिला नेतृत्व में एक बड़ी पार्टी को लोकतंत्र में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा। ममता बनर्जी ने एकबार फिर अपनी राजनीतिक कुशलता से इतिहास रचा है, जो काबिल-ए-तारीफ़ है। लेकिन चुनावी परिणामों के बीच हम बुनियादी मुद्दे को बिल्कुल भी नज़रंदाज़ नहीं कर सकते, खासकर तब जब देश की जनता बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में दम तोड़ रही है। आइए महिला नेतृत्व की इस ऐतिहासिक जीत के बीच चर्चा करें कोरोना त्रासदी में महिलाओं की स्थिति की, जिनके न कोई रिकॉर्ड दर्ज़ किए जाते है और न कोई रिपोर्ट।
कोरोना की दूसरी लहर ‘महामारी’ के साथ-साथ ‘त्रासदी’ का स्वरूप ले चुका है। शमशान घाट कोरोना मृतकों की लाशों से पट रहे है। अस्पतालों की ख़स्ता हालात का भयावह मंजर अब सबके सामने है। कई रिसर्च में सामने आया है कि कोरोना महामारी से मरने वाले लोगों की संख्या में बड़ी संख्या उनलोगों की है जिन्हें सही समय में उचित इलाज नहीं मिल सका। बड़ी संख्या उनलोगों की भी है जो अस्पताल तक पहुँच भी नहीं पाए और उनकी मौत हो गयी है। यही वजह है कि सरकारी आँकड़ों और शमशान में लाशों के ढ़ेरों की संख्या में बड़ा फ़र्क़ देखने को मिल रहा है। अस्पताल और शमशान के मंजर को लगातार मीडिया के माध्यम से उजागर किया जा रहा है। लेकिन होम आइसोलेशन की तस्वीर अभी भी मीडिया के लेंस और कलम से दूर है जहां बहुत से लोग कोरोना को मात देकर स्वस्थ भी हो रहे है और इस होम आइसोलेशन में अहम भूमिका निभाती है – ‘महिलाएँ।‘
पच्चीस वर्षीय नेहा (बदला हुआ नाम) और उसके पति बीस दिन पहले कोरोना पॉज़िटिव हुए। लेकिन घर में नेहा की ढाई साल की बच्ची और बूढ़े सास-ससुर निगेटिव थे। नेहा ने बताया कि ये उसकी ज़िंदगी का सबसे मुश्किल समय था। संक्रमित होने के बावजूद उसपर ख़ुद और अपने पति की देखभाल और ज़रूरी चीजों की ज़िम्मेदारी तो थी ही, लेकिन इसके साथ ही उसपर अपनी बच्ची और सास-ससुर के खाने और घर की साफ़-सफ़ाई की ज़िम्मेदारी थी। नेहा बताती है कि संक्रमण की वजह हर काम चार गुना बढ़ गया था और वो मदद के लिए किसी भी बुला भी नहीं सकती थी और काम के इस बोझ और संक्रमण ने उन्हें न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक रूप से भी तोड़ दिया था। यही वजह रही कि रिपोर्ट निगेटिव आने के बाद भी वे शारीरिक और मानसिक रूप से बेहद कमजोर हो चुकी हैं।
‘सत्ता’ जनता को चुनावी जीत-हार का झुनझुना थमाने को तैयार है और अपने चुनाव का निर्णय आपको करना है।
वहीं पूजा (बदला हुआ नाम) के पार्टनर कोरोना पॉज़िटिव हो गए। कामकाजी पूजा इनदिनों वर्क फ़्राम होम कर रही हैं। पार्टनर के संक्रमित होने की वजह से उनपर काम का बोझ अचानक से चार गुना बढ़ गया। क़रीब सोलह दिन बाद उनके पार्टनर की रिपोर्ट निगेटिव आयी। इस दौरान पूजा ने अपने काम से छुट्टी नहीं ली, क्योंकि उन्हें डर था कि अगर वह अभी छुट्टी लेती है और फिर कुछ दिनों बाद अगर उन्हें संक्रमण होता है तो उन्हें और छुट्टी लेनी पड़ेगी और लंबी छुट्टी लेने पर उनकी नौकरी ख़तरे में आ सकती है। ये पूरा समय पूजा के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से उन्हें थका देने वाला था।
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ज़ाहिर है कोरोना जैसे जानलेवा संक्रमण को मात देना इतना आसान नहीं है, जब किसी परिवार का एक सदस्य संक्रमित होता है तो इसका पूरा भार घर की महिलाओं पर आता है। क्योंकि आज भी घर, रसोई और परिवार के बीमार लोगों की ज़िम्मेदारी महिलाओं के हिस्से होती है। नेहा और पूजा जैसी ढ़ेरों महिलाएँ इस संक्रमण की दोहरी मार झेलने को मजबूर है। ये संक्रमण पिछली बार की ही तरह इसबार भी महिलाओं की सामाजिक, शारीरिक और मानसिक प्रस्थिति को पीछे धकेलने का काम कर रहा है। साथ ही, इस त्रासदी में समाज आर्थिक तंगी को भी झेलने को मजबूर है और जिस तरह परिवार में किसी एक के बीमार होने पर अधिकतम बोझ महिलाओं के सिर आता है ठीक उसी तरह परिवार में आर्थिक तंगी की भरपाई भी महिलाओं के अवसरों को कम करके ही शुरू की जाती है, फिर वो उनकी शिक्षा की बात हो या जल्दी शादी कर उनके अधिकारों के हनन की।
इतना ही नहीं, जिन परिवारों के मुखिया जिनपर परिवार के लिए पैसे कमाने की ज़िम्मेदारी है वे आज भी अधिक मात्रा में पुरुष ही है और जब वे इस जानलेवा संक्रमण से अपनी जान गँवा रहे हैं तो परिवार की पूरी ज़िम्मेदारी महिलाओं के कंधों पर आ रही है। चूँकि समाज परिवार की संस्था में महिलाओं को परजीवी लता की तरह तैयार करता है, इसी वजह से अधिकतर मध्यमवर्गीय परिवारों में आज भी महिलाएँ पूरी तरह परिवार के पुरुष सदस्यों पर अपनी आर्थिक ज़रूरतों के आश्रित है। अब जब पुरुष सदस्य इस संक्रमण में चपेट में आ रहे है तो इसका सीधा प्रभाव महिलाओं पर पड़ रहा है।
आज जब हम कोरोना की इस त्रासदी के भयावह दौर से गुजर रहे है, ऐसे में हमें ‘सिस्टम’ के पर्याय में परिवार और समाज के जेंडर आधारित पितृसत्तात्मक ढाँचें को भी शामिल कर इसकी जटिलताओं और कुप्रभावों को उजागर करना ज़रूरी है। ज़रूरी है कि होम आइसोलेशन की तस्वीरें भी सामने आए। हो सकता है आपको मेरी ये बात और नकारात्मकता फैलाने वाली लगी, पर यक़ीन मानिए जब तक हम समस्याओं को सही समय पर उजागर नहीं करते है तब तक उसकी गंभीरता को समझ नहीं पाते है और न ही उसके किसी हल के बारे में सोच पाते है। यही वजह है कि जब भी किसी आपदा की बात होती है तो संसाधनों की उपलब्धता और अनुपलब्धता तक बात सीमित रह जाती है और आधी आबादी व वंचित समुदायों के सवाल हमेशा पीछे छूट जाते है, क्योंकि हम उन्हें ज़रूरी नहीं मानते। पर अब हमें समझना होगा कि इस संक्रमण के प्रभावों का हर स्तर पर विश्लेषण नहीं किया गया तो ये हमारे समाज को भीतर ही भीतर खोखला करता चला जाएगा। बाक़ी ‘सत्ता’ जनता को चुनावी जीत-हार का झुनझुना थमाने को तैयार है और अपने चुनाव का निर्णय आपको करना है।
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तस्वीर साभार : thewire.in
Very good analysis