‘सावित्री सिस्टर्स एट आज़ादी कूच’ एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म है। यह फ़िल्म आपको ‘चलचित्र अभियान’ के यूट्यूब चैनल पर मिल जाएगी। फ़िल्म के नाम में जिन महिलाओं को सावित्रीबाई फुले की बहनें कहकर बुलाया जा रहा है, वे हैं मधु बेन और लक्ष्मी बेन। फ़िल्म के पहले दृश्य में मधु बेन के साथ कई महिलाएं हांथों में नीले रंग का ‘जय भीम’ लिखा ध्वज लेकर चल रही हैं। पीछे से लाउडस्पीकर पर आवाज़ आ रही है, “ये आज़ादी झूठी है, देश की जनता भूखी है..लड़ेंगे, जीतेंगे।” यह दृश्य साल 2017 के आज़ादी मार्च/कूच का एक हिस्सा है। गुजरात के ऊना शहर में 11 जुलाई 2016 के दिन चार दलित पुरुषों के साथ हिंसा हुई, उनपर झूठे इल्ज़ाम लगाए गए कि वे गौ हत्या में शामिल हैं। वे चारों एक गाय के शव को उठाने गए थे। इस घटना के विरोध में कई जगह आवाज़ें उठी। गुजरात में दस दिवसीय यात्रा का आयोजन किया गया जिसका समापन 15 अगस्त को ऊना में हुआ।
ठीक एक साल बाद 2017 में 11 से 18 जुलाई तक एक यात्रा आयोजित की गई, ‘आज़ादी कूच’ यात्रा। इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य दलितों के हक़ की ज़मीनों को वापस लेना था। ये ज़मीनें सरकार द्वारा उन्हें दी गई थी, ज़मीन कागज़ पर उनके नाम थी लेकिन अवैध तरीके से इलाके के शोषणकारी तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने उसपर कब्ज़ा कर रखा था। इस यात्रा का मक़सद इन ज़मीनों को वापस लेना था। आज़ादी कूच यात्रा मेहसाणा और बनासकांठा जिले के कई शहरों, कस्बों, गांव से होते हुए निकली। डॉक्यूमेंट्री बनाने वाले नकुल सिंह साहनी ने मुख्यतः अपने कैमरा को इस मार्च में शामिल दो दलित महिलाओं के यात्रा अनुभवों पर केंद्रित किया है, मधु बेन और लक्ष्मी बेन। ये दोनों दलित अधिकार मंच की सदस्य हैं। हालांकि इस यात्रा में युवा नेता और विधायक जिग्नेश मेवानी भी शामिल थे, डॉक्यूमेंट्री के कुछ दृश्यों में मंच पर उन्हें देखा जा सकता है।
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वीमेन्स डेवलेपमेंट सेल, मिरांडा हॉउस द्वारा आयोजित एक चर्चा में इस फ़िल्म पर बात करते हुए नकुल साहनी बताते हैं कि वे भी अन्य कई लोगों की तरह इस ऐतिहासिक यात्रा में शामिल होने गए थे, लेकिन फिर उन्होंने यात्रा के हिस्सों को डॉक्यूमेंट करना ठीक समझा। इन्हीं हिस्सों को मिलाकर बाद में फ़िल्म तैयार की गई। साहनी बताते हैं कि किसी भी विरोध-प्रदर्शनस्थल या प्रदर्शन यात्रा में एक साथ कई चीजें घट रही होती हैं यानि कि प्रदर्शन में शामिल लोग अपनी मुख्य मांग को लेकर सजग और संगठित तो होते ही हैं लेकिन एक समुदाय और समाज के तौर पर अन्य कई आंतरिक कुरीतियों को तोड़ने का स्पेस बनता दिखता है। जैसे दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन में कई पुरुष पहली बार चूल्हा संभालते दिखे। ऐसे में वे लोग अनजाने में और परिस्थितियों की मांग के तहत ही सही लेकिन रसोई से जुड़े लिंग आधारित भूमिकाओं को तोड़ रहे होते हैं। ‘आज़ादी कूच’ केवल ज़मीन की लड़ाई नहीं है बल्कि यह स्पेस लैंगिक न्याय यानी जेंडर जस्टिस की बात बुलंद तरीके से करती है। नकुल साहनी ने अपनी डॉक्यूमेंट्री में इस आवाज़ को जेंडर जस्टिस से जुड़े सवाल और जवाब दोनों की तरह दिखाया है। इस डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म में कई ऐसे दृश्य हैं जो एक शोषित जाति समुदाय की महिलाओं द्वारा उनके दृष्टिकोण और अनुभवों से पितृसत्ता को ज़मीनी स्तर पर सवाल के घेरे में लाते हैं और सामाजिक न्याय की बात करते हैं।
दृश्य एक, मधु बेन बस में बैठी भीम गीत गाती हुई नज़र आती हैं। आइए भीम गीत की प्रथा को समझते हैं। भीम गीत को लोक गीत कहा जा सकता है, भीम गीत कई मायनों में अन्य भारतीय लोक गीतों से अलग होते हैं। जहां अन्य गीतों में हिन्दू पौराणिक कथाओं का ज़िक्र होता है भीम गीत बाबा साहब आंबेडकर के जीवन और उनके विचारों पर केंद्रित होते हैं। भीम गीत में भारतीय संविधान के आदर्शों का जय घोष भी सुनने मिलता है। भीम गीतों में से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बातों में से एक है स्त्री मुक्ति संगीत। बाबा साहब आंबेडकर के विचारों में स्त्री समानता और उनके अधिकारों को सुनिश्चित किए बिना जाति संघर्ष अधूरी है। उन्होंने कहा था, ‘किसी समुदाय की प्रगति का आंकलन उस समुदाय की स्त्रियों की दशा देखकर किया जाना चाहिए।’ भीम गीतों में कुछ गीत बच्चों के जन्म के समय गाए जाने वाले हैं जिन्हें ‘पालना’ कहते हैं, कुछ गीत ऐसे हैं जो दलित महिलाएं खेतों में काम करते हुए गाती थीं क्योंकि इनमें से कई गीत मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक गई हैं, इन गीतों का मक़सद बच्चों, महिलाओं व अन्य लोगों तक बाबा साहेब की बातें आसानी से पहुंचाना और उन्हें अपने अधिकारों को लेकर जागरूक करना है। उन्नीस मिनट अठारह सेकंड की पूरी डॉक्यूमेंट्री में कई जगह भीम गीत और ‘जागृति’ शब्द सुनने को मिलता है। फ़िल्म के अंग में महिलाएं एक साथ स्त्री मुक्ति गीत गाती, आगे बढ़ती नज़र आतीं हैं।
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दृश्य दो। एक मंच पर कुछ महिलाएं जब मधु बेन को शॉल देने जाती हैं तब मधु बेन कहती हैं कि वह शॉल तब ही लेंगी जब ये बहनें अपने अपने सिर से लंबे घूंघट हटाकर उन्हें शॉल ओढ़ाएंगी। मैं यहां शॉल लेने नहीं आई। मैं चाहती हूं कि वे मेरी तरह मुक्त हो।” साथ ही वह सभा में बैठे पुरुषों से वे पूछती हैं, ‘आपमें से किसी कोई को दिक़्क़त है अगर यह घूंघट हटा लें तो?’ यह घटना ग्रामीण दलित महिलाओं द्वारा अपने समुदाय के पुरुषों को महिला मुक्ति से जुड़ी एक छोटी लेकिन जरूरी बात का अहसास दिलाने की क्षमता रखती है।
दृश्य तीन। मधु बेन गांव की लड़कियों से बात कर रही हैं और उनसे उनकी पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछ रही हैं। लड़कियां बताती है कि वे कॉलेज इसलिए नहीं जा पाती क्योंकि उन्हें गांव से दूर जाना पड़ता है। एक छोटा लड़का कहता नज़र आता है कि लड़कियों को गांव से बाहर नहीं भेजना चाहिए। मधु बेन के कारण पूछने पर वह कहता है, ‘लड़कियों को पता होगा, मुझे क्या पता।’ इस दृश्य में आपको समाजिक परिवेश का वो हिस्सा देखने मिल जाएगा जो व्यक्ति को बहुत छोटी उम्र से लड़कियों के लिए बनी नियमों की एक बड़ी फेहरिस्त का किसी न किसी तरह एहसास करवा देता है। मधु बेन के समझाने पर मुख्य स्टेज़ से बच्ची अपने परिवार की आर्थिक स्थिति और अपनी जातिगत पहचान बताते हुए कहती है कि उसके अभिभावकों ने उसे बड़ी मुश्किल से ग्यारवीं तक पढ़ाया लेकिन वो आगे भी पढ़ना चाहती है। शहर जाना, कॉलेज जाना चाहती है हालांकि उसके माता-पिता इससे असहमत हैं।
दृश्य चार। लक्ष्मी बेन का भाषण जिसमें वे महिलाओं से जागरूक होने और अपने हक पहचानने को कह रही हैं। एक सवाल के जवाब में वह कहती हैं, ‘हमें तब पता चला जब वे वहां पैसे लेकर प्लाटिंग करने लगे। हमारे पास तीस हज़ार क्या तीस रुपये भी नहीं हैं। हम दलित संगठन मिलकर वहां गए और वहां भूख हड़ताल की।’ वे बताती हैं कि इस हड़ताल के फलस्वरूप अधिकारियों ने उनकी बात मानते हुए लिखित में उन्हें उनकी ज़मीन वापस दी, ज़मीन पर उनके समुदाय के नाम का और किसी अन्य द्वारा अवैध प्लाटिंग करने पर करवाई किये जाने का बोर्ड लगाया। शहर से नजदीक लावरा गांव में राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच और बनासकांठा दलित संगठन ने उन ज़मीनों को वापस लिया जो असल में वहां के दलित समुदाय की थी।
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फिल्म के एक और दृश्य में लक्ष्मी बेन अन्य महिलाओं के साथ बैठी हैं, वे एक सवाल के जवाब में कहती नज़र आती हैं, ‘ज़मीन तो हमें मिल जाएगी लेकिन हमें और भी लड़ाईयां लड़नी हैं। जैसे यहां कई महिलाएं हैं जिनके पति शराब पीते हैं, उनपर शक करते हैं, हमें इन महिलाओं से बात करनी है, उन्हें बताना है कि पहले घर में पति से बात करिए, उनमें जागृति लानी है, उन्हें कहना है अपनी हक के लिए लड़िए।’ उनके पास की एक महिला कुछ और आगे जोड़ती हैं। वो बताती हैं कि कैसे दलित महिलाओं की अपनी दिक्क़तें हैं और ज़मीन वापस मिलना उनमें से एक का समाधान है। नकुल साहनी ने मिरांडा हॉउस में अपनी फ़िल्म पर बात करते हुए आंखों देखी बताया था, पुलिस प्रशासन और शोषणकारी जातीय समुदाय के स्थानी निवासी ‘आज़ादी कूच’ से खुश नहीं थे। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक जिग्नेश मेवाणी ने कहा था कि सरकार ‘आज़ादी कूच’ से सहमी हुई है। ‘इस यात्रा के दौरान हमें रोकने के लिए हर कोशिश की गई है।’
फ़िल्म में सुनने मिला भीम गीत शोषित समाज की अपनी कहानी और परंपरा का वाहक है। ऐसे आर्ट फॉर्म्स को मुख्यधारा संस्कृति में जगह छीनने की ज़रूरत है। जातीय आधार पर शोषित समुदाय को अपना प्रतिनिधित्व केवल राजनीतिक स्तर पर लेना काफ़ी नहीं है, क्योंकि सांस्कृतिक स्तर पर भी उन्हें शोषित किया गया है। भाषाई व्याकरण में एक जाति विशेष के नाम को गाली की तरह प्रयोग करना इसका प्रमाण है। इसलिए कल्चरल रेक्लेमेशन यानी सांस्कृतिक स्तर पर अपने हक की जगह लेना इन समुदायों का अधिकार और उसकी प्रतिष्ठा का सवाल है। यूट्यूब पर ‘डेंजर चमार’ गाना इसी का उदाहरण है। ‘सावित्री सिस्टर्स एट आज़ाद कूच’ एक ऐसी डॉक्यूमेंट्री है, जिसने अपने समय में ज़मीनी स्तर पर हो रही सामाजिक हक की लड़ाई को रिकॉर्ड किया है।किसी स्टेज़ के नेता की नज़र से नहीं बल्कि दलित संगठन से जुड़ी दो आम ग्रमीण महिलाएं जिन्होंने इस यात्रा के दौरान लैंगिक न्याय के संघर्ष को आसपास की महिलाओं के लिए जिंदा किया, की तरफ़ से इस फ़िल्म को डॉक्यूमेंट किया गया है।
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तस्वीर साभार : Sabrang India