समाजकैंपस आईआईटी खड़गपुर की प्रोफेसर सीमा सिंह के बहाने बात अकादमिक दुनिया में मौजूद जातिवाद पर

आईआईटी खड़गपुर की प्रोफेसर सीमा सिंह के बहाने बात अकादमिक दुनिया में मौजूद जातिवाद पर

हैदराबाद विश्वविद्यालय के रोहित विमुला की संस्थागत हत्या ऐसे ही भेदभाव का दुखद परिणाम है। वेमुला ने अपनी चिट्ठी में इस बात का ज़िक्र किया था, उन्होंने लिखा था कि कैसे लोगों को अकादमिक दुनिया में, सड़कों पर, राजनीति में, जीवन और मृत्य में केवल 'आइटम' और 'थिंग' यानी सामान की तरह देखा जाता है, उन्हें सिर्फ गिनती के लिए रखा जाता है।

बीते 25 अप्रैल को एक वीडियो पब्लिक डोमेन में आता है। यह वीडियो आईआईटी खड़गपुर में 128 विद्यार्थियों की एक ऑनलाइन क्लास से जुड़ा था। वीडियो में एसोसिएट प्रोफेसर, सीमा सिंह विद्यार्थियों को राष्ट्रगान पर खड़े होने का दवाब डालती नज़र आती हैं। वह भड़की हुई हैं क्योंकि सभी विद्यार्थी उनके द्वारा क्लास की शुरुआत में राष्ट्रगान बजाने पर खड़े नहीं हुए। वह उन्हें गालियां देती हैं। सीमा सिंह आगे कहती हैं कि वह ये गालियां इन विद्यार्थियों के माता-पिता को भी दे रही हैं क्योंकि विद्यार्थियों के इस व्यवहार के लिए वे भी जिम्मेदार हैं। प्रोफेसर अपने विद्यार्थियों को उनके 20 अंक जो कि उनके हाथ में है, उसे काट लेने की धमकी देती हैं। वे आगे कहती हैं, “मैं दिखाऊंगी तुम्हें कि मैं कौन हूं। चाहे महिला बाल विकास मंत्रालय जाओ या एससी-एसटी कल्याण मंत्रालय, मुझे जो तुम्हारे साथ करना है उससे मुझे कोई नहीं रोक सकता।” आखिर में वह बच्चों के लिए फिर से गाली निकालते हुए पूछती हैं कि क्या उन्हें बात समझ आई। 

सीमा सिंह आईआईटी खड़गपुर में ‘हयूमैनिटिज़ एंड सोशल साइंसेज़’ पढ़ाती हैं। वह जिस ऑनलाइन क्लास में अपने अभद्र व्यवहार और जातिवाद रवैये को प्रदर्शित कर रही थीं वह क्लास SC, ST, OBC और PwD विद्यार्थियों के लिए आईआईटी द्वारा आयोजित एक कोर्स का हिस्सा है जिसमें वे अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं। द वायर की रिपोर्ट के मुताबिक यह कोर्स पिछड़ी जातियों, शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों के लिए है। आरक्षित कैटगरी में जिन बच्चों का चुनाव हो जाता है लेकिन उन्हें आईआईटी में सीट नहीं मिल पाती, वे अपनी मर्ज़ी से एक साल के लिए इस कोर्स को करते हैं ताकि सालभर बाद उन्हें दाखिला मिल सके। साल के अंत में कोर्स के इंस्ट्रक्टर बच्चों का आंकलन करते हैं। इस कोर्स में मिले नंबर के आधार पर इस बात का फैसला होता है कि उन्हें पास समझा जाए या फेल। पास होने वाले विद्यार्थी भारत के किसी भी आईआईटी में दाख़िला ले सकते हैं। इसलिए कोर्स में अलग अलग क्लास लेने वाले प्रोफेसरों की भूमिका विद्यार्थियों के करियर और जीवन की दिशा तय करने में अहम हो जाती है। ये सब जानते हुए सीमा सिंह का यह व्यवहार, छात्रों को फेल करने की धमकी सीधा-सीधा जातिगत भेदभाव है।

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हालांकि ये देश के बड़े शिक्षण संस्थानों और अकादमिक जगत में सवर्णों द्वारा अक़्सर दिखाया गया खतरनाक दोहरा व्यवहार ही है कि सीमा सिंह ने जातिगत भेदभाव पर एक रिसर्च पेपर पब्लिश किया है। अपने पेपर में बताती हैं कि कैसे क्लासरूम को समावेशी होने की जरूरत है क्योंकि समाज में जातिगत, आर्थिक, नस्लीय और लैंगिक भेदभाव मौजूद है। अपने पेपर में वह लिखती हैं कि शिक्षा हासिल करने की क्रिया में आलोचनात्मक होना ज़रूरी है, और ये पूछना कि आसपास या अकेडमिया में जो भी हो रहा है वह किसके हित में हो रहा है। सोशल मीडिया पर सक्रिय कई दलित, बहुजन समुदाय से जुड़े अकाउंट्स ने सीमा सिंह के इस मामले को एक पैटर्न बताया है। उन्होंने लिखा है कि इस तरह के रिसर्च पेपर लिखने वाली एक सवर्ण स्त्री कैसे भूल जाती है कि क्लासरूम एक कम्यूनिटी है, प्रोफेशनल और अकादमिक जगत में एक विशेष स्थान पर पहुंच कर, एक विशेष तरह की बुद्धिजीवी भाषा सीखकर उच्च जाति के लोग जाति आधारित शोषण पर लिखते हैं और नाम, कमाते हैं लेकिन अपने निज़ी जीवन में वे प्रगतिशील नहीं होते, निज़ी जीवन में उनका यह ढोंग खंडित हो जाता है। ठीक ऐसा ही कुछ हमें सीमा सिंह के केस में देखने मिलता है।

जिस अकड़ से एक प्रोफेसर एससी-एसटी मंत्रालय से नहीं डरने की बात कह रही हैं ये जाति व्यवस्था के बारे में बहुत कुछ बताता है। यह अकड़ इस बात का प्रमाण है कि अकादमिक जगत में भी लोगों को अपनी उच्च जाति और रुतबे का एहसास है और वे इस का भरपूर प्रयोग करते हैं।

अकादमिक दुनिया में जातिवाद

सीमा सिंह इस बात से परिचित हैं कि वे जिन बच्चों को पढ़ा रही हैं वे तथाकथित उच्च जाति से नहीं है। इसलिए उन्हें उनके अभिभावकों के प्रति अभद्र शब्द प्रयोग करने की हिम्मत मिलती है। जिस बात को लेकर वह क्रोधित हैं, वह है राष्ट्रगान पर खड़े ना होना। राष्ट्र-गौरव अपमान निवारण-अधिनियम 1971 के खण्ड 3 के तहत राष्ट्रगान के सम्मान करने की बात कही गई है। हालांकि सम्मान की परिभाषा में खड़े होकर ही सम्मान दिखाया जा सकता है इसे लेकर भारतीय न्यायपालिका की कोई साफ़ राय नहीं है। 2016 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सभी सिनेमाघरों में राष्ट्रगान चलाया जाना अनिवार्य किया गया था, लेकिन 2018 में तीन जजों वाली बेंच ने इस आदेश को वापस ले लिया था। उन्होंने सिनेमाघरों में राष्ट्रगान का बजाया जाना वैकल्पिक बताया था। जब ‘सम्मान’ की परिभाषा को लेकर अलग-अलग विचार हैं तब एक ऑनलाइन क्लासरूम में कथित रूप से बच्चों को राष्ट्रगान पर खड़े न होने पर एक प्रोफेसर द्वारा उनका करियर और जीवन बर्बाद कर देने की धमकी आजकल के भारत में फैली चरम और घातक राष्ट्रवाद का उदाहरण ही तो है। इस भारत में ‘राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम’ की बड़ी ही संकुचित परिभाषाएं हैं। इतनी संकुचित कि इसमें भारत की विविधता समा नहीं पा रही है।

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दूसरी बात, भारत का इतिहास उठाकर देखें तो यहां हिन्दू धर्म की उच्च जातियों ने कभी दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियों को अपने जितना ‘पवित्र’ और ‘संपूर्ण हिन्दू’ नहीं माना। मंदिरों में प्रवेश की मनाही से लेकर नल से पानी पीने में रोकटोक, हिंसा भारत के जाति व्यवस्था का इतिहास रहा है। इस इतिहास के दोहराव का उदाहरण इस नए भारत में भी देखने को मिल जाता है। जिस अकड़ से एक प्रोफेसर एससी-एसटी मंत्रालय से नहीं डरने की बात कह रही हैं ये जाति व्यवस्था के बारे में बहुत कुछ बताता है। यह अकड़ इस बात का प्रमाण है कि अकादमिक जगत में भी लोगों को अपनी उच्च जाति और रुतबे का एहसास है और वे इस का भरपूर प्रयोग करते हैं।

हैदराबाद विश्वविद्यालय के रोहित विमुला की संस्थागत हत्या ऐसे ही भेदभाव का दुखद परिणाम है। वेमुला ने अपनी चिट्ठी में इस बात का ज़िक्र किया था, उन्होंने लिखा था कि कैसे लोगों को अकादमिक दुनिया में, सड़कों पर, राजनीति में, जीवन और मृत्य में केवल ‘आइटम’ और ‘थिंग’ यानी सामान की तरह देखा जाता है, उन्हें सिर्फ गिनती के लिए रखा जाता है।

वहीं सीमा सिंह एक अन्य वीडियो में एक विद्यार्थी के ईमेल को बेवकूफ़ाना ईमेल बताते हुए कहती हैं कि किसी के घर में मृत्यु हो जाए तो वह इंसान ईमेल लिखने की हालत में भी नहीं रहेगा। दरअसल एक छात्रा ने अपने दादा जी की मौत हो जाने के कारण उनसे कुछ दिनों की छुट्टी मांगी थी। सीमा सिंह इस कारण को मानने से सिंह का ऐसा बोलना ऑनलाइन क्लास के दौर की सबसे कड़वी सच्चाई डिजिटल संसाधनों के गैप को खारिज़ कर देना और विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य के प्रति उनका नकारात्मक और प्रिविलेज्ड रवैया है। भारतीय समाज में जिस तरह से जातिगत आधार पर संसाधनों का बंटवारा है, किसी एक समूह का उनपर कब्ज़ा रहा है और किसी अन्य समूह को उससे वंचित रखा गया है, यह अनदेखा नहीं किया जा सकता। सीमा सिंह ने ऐसी बात इसी कोर्स के तहत ली जाने वाली एक क्लास में की थी। जबकि ‘learning to learn from the other: subaltern life narrative, everyday classroom and critical pedagogy’ नाम अपने रिसर्च पेपर में वह संसाधनों के इस बंटवारे और शिक्षा पर इसके प्रभाव का ज़िक्र करती हैं। इंटरनेट सुविधा, अच्छी इंटरनेट स्पीड, पढ़ाई के लिए घर में एक शांत कमरा/जगह, घर का काम करने से राहत, इत्यादि जैसी दिक्क़तें घरों से क्लास करने पर विद्यार्थियों को उठानी पड़ती है। ऐसे में कोरोना काल का यह भयावह रूप हर इंसान को अलग अलग तरह से प्रभावित कर रहा है। इस स्तिथि में कोई विद्यार्थी अगर अपने प्रोफेसर से यह उम्मीद करे कि उसकी मानसिक हालात समझी जाएगी तो इसमें गलत क्या है। ख़ासकर क्लासरूम को समावेशी करने की बात लिखने वाली प्रोफेसर से तो ये उम्मीद की ही जा सकती थी। हालांकि प्रोफेसर ने यहां भी निराश ही किया।

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इस वीडियो के वायरल होने के बाद सीमा सिंह अपने माफ़ीनामे में अपनी तबीयत और मानसिक स्वास्थ्य का हवाला देते हुए कहती हैं कि वह बहुत परेशान थीं और उनका मकसद किसी को ठेस पहुंचाना नहीं था। सीमा सिंह इस बात को भूल जाती है कि मानसिक स्वास्थ्य को सामाजिक वैक्यूम में नहीं देखा जा सकता है, मानसिक स्वास्थ्य जिसको कैसे प्रभावित करता है और कौन उसे कैसे ठीक रख पाता है यह व्यक्ति की आर्थिक क्षमता और सामाजिक पहचान निर्धारित करती है। इसलिए उनका बुरे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य से उनके जातिवादी व्यवहार को न्यायसंगत नहीं ठहरा सकता। सीमा सिंह अकादमिक दुनिया के उस जातिवादी ढांचे का हिस्सा हैं जिसका शिकार अकादमिक और मानसिक स्वास्थ्य के पैमाने पर निचली और पिछड़ी जातियों के बच्चे होते आए हैं।

हैदराबाद विश्वविद्यालय के रोहित विमुला की संस्थागत हत्या ऐसे ही भेदभाव का दुखद परिणाम है। वेमुला ने अपनी चिट्ठी में इस बात का ज़िक्र किया था, उन्होंने लिखा था कि कैसे लोगों को अकादमिक दुनिया में, सड़कों पर, राजनीति में, जीवन और मृत्य में केवल ‘आइटम’ और ‘थिंग’ यानी सामान की तरह देखा जाता है, उन्हें सिर्फ गिनती के लिए रखा जाता है। अकादमिक जगत में काम करती संस्थागत जाति व्यवस्था पर सवाल खड़ा करना और उसे तोड़ना जरूरी है। इसका एक और उदाहरण 1972 में दिल्ली विश्वविद्यालय समेत कई अकादमिक स्पेस में हुए ऐंटी-मंडल कमीशन प्रोटेस्ट्स हैं। जब मंडल कमीशन का गठन ओबीसी जातियों को सरकारी कार्यालयों में सीट देने के लिए किया गया तब अकादमिक स्पेस में भी इसका खूब विरोध हुआ। विरोध में दिया गया मुख्य तर्क होता था ‘मेरिट का सवाल।’ एक तरफ अकादमिक जगत मेरिट की बात करता है वहीं दूसरी ओर वह यह बात भूल जाता कि कैसे शिक्षा पर लंबे समय तक एक जाति विशेष का अधिपत्य रहा।

इस इतिहास के कारण कुछ जातियां सामाजिक स्तर और शिक्षा हासिल करने में जानकारी और अकादमिक नेटवर्किंग यानी जान-पहचान दोनों के स्तर पर पहले से ही आगे हैं। ऐसी जातियां जब अपने प्रिविलेज़ को मेरिट समझ बैठतीं हैं तब उन्हें सामाजिक बराबरी और प्रतिनिधित्व की बात खैरात देने जैसी लगने लगती है। वे नाराज़ दिखने लगते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनका हक़ किसी और को दिया जा रहा है। यही कारण है कि प्रगतिशील विषयों पर लिखने पढ़ने वाले लोग भी निज़ी जीवन में तथाकथित छोटी जातियों को ‘मेरिट’ हासिल करने लायक़ नहीं समझते। मेरिट को वे हमेशा सवर्ण गेज़ से देखते हैं। उच्च शिक्षा की बात करें तो कई विद्यार्थी ऐसे होते हैं जो अपनी जाति और समुदाय से इतनी शिक्षा हासिल करने वाले पहले व्यक्ति होते हैं। ऐसे में अकादमिक दुनिया की भाषा, तौर तरीक़े, जानकारियां समझने में उन्हें उन लोगों ज़्यादा दिक्क़तें आतीं हैं और वक्त लगता है जिस जाति के लोगों का शिक्षा और शिक्षण संस्थानों पर आधिपत्य रहा है, उनके मानसिक स्वास्थ्य और उच्च शिक्षा हासिल करने के संघर्षों को ऐसे जातिवादी लोग और भी कठिन बना देते हैं।

और पढ़ें : न्याय प्रणाली में व्याप्त जातिवाद को उखाड़ फेंकने से ही मिलेगा दलित महिलाओं को न्याय


तस्वीर साभार : Deccan Herald

Comments:

  1. Divya says:

    Central university of Rajasthan 2019, dept of pharmacy also have sc caste discrimination case. After filling application in sc st delhi. Still no action has been taken against these faculties. Student left hir education.

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