हम यह जानते हैं कि भारत पूर्ण रूप से एक पितृसत्तात्मक देश हैं बाक़ी देशों के तुलना में यहां महिलाओं की मौजूदा स्थिति गंभीर हैं। उन्हें परिवार और समाज में आर्थिक रूप से सशक्त होने का अधिकार अब तक उतना प्राप्त नहीं हैं जितना कि होना चाहिए। उन्हें सिखाया गया है कि वे बढ़ती उम्र के साथ आप अपने पिता, पति और बेटे पर ही निर्भर रहेंगी। लड़कियों के जीवनसाथी चुनने का अधिकार परिवार को है। लड़कियों को सिखाया गया है कि आपका जीवन सिर्फ़ सेवा और समर्पण के लिए है, ना कहने का हक़ उन्हें बिल्कुल नही हैं। इसी पितृसत्तात्मक परवरिश का नतीजा है कि लड़कियों को हमेशा यही बताया गया कि उनका अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं, सेक्स के दौरान उनकी सहमति लेना आवश्यक नहीं होता क्योंकि पति को ‘खुश करना’ एक धर्म की तरह माना जाता है। इसे वैवाहिक बलात्कार यानि मैरिटल रेप की संज्ञा दी गई है लेकिन हमारे देश में अभी तक ऐसा कोई कानून नहीं बना जो इसे अपराध की श्रेणी में रखे। औरतों को उसे बेजान रिश्ते में हर हाल में रहना सिखाया जाता हैं।
भारत में अधिकतर महिलाओं के पास खुद के बच्चे जनने का अधिकार नहीं होता। यह निर्णय परिवार के बड़े-बुजुर्ग करते हैं। बात अगर ग्रामीण क्षेत्र की करें तो, परिवार नियोजन की बातें सिर्फ आंगनबाड़ियों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के रजिस्ट्रर तक ही सीमित होती हैं। अगर परिवार नियोजन की चर्चा होती भी है को इसका पूरा भार हमारे देश में महिलाओं पर ही थोप दिया जाता है। पुरुषों में आज भी नसबंदी को लेकर यह मिथ्य बेहद प्रचलित है कि नसबंदी से वह नपुंसकता का शिकार हो सकते हैं। महिलाओं का अपने ही शरीर पर किस तरह न सिर्फ भारत बल्कि अन्य देशों में भी कोई अधिकार नहीं है इस स्थिति को बयान करती है हाल ही में जारी की गई यूनाइटेड नेशन पॉपुलेशन फंड की रिपोर्ट- ‘State Of World Population Report, 2021: My Body Is My Own’
पितृसत्तात्मक परवरिश का नतीजा है कि लड़कियों को हमेशा यही बताया गया कि सेक्स के दौरान उनकी सहमति लेना आवश्यक नहीं होता क्योंकि पति को ‘खुश करना’ एक धर्म की तरह माना जाता है।
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इस रिपोर्ट के माध्यम से UNFPA ने महिलाओं के खुद के शरीर के बारे में निर्णय लेने की क्षमता को मापा है। साथ ही इसका भी आंकलन किया है कि इन देशों में मौजूद कानून किस हद तक औरतों द्वारा अपने शरीर पर लिए जाने वाले फैसलों में दखल देते हैं/समर्थन करते हैं। यह रिपोर्ट यह भी कहती है कि बलात्कार, यौन हिंसा को दुनियाभर में अपराध की श्रेणी में रखा गया है लेकिन महिलाओं के शरीर के ख़िलाफ होने वाले कुछ उल्लंघन ऐसे भी होते हैं जिनकी जड़ें समाज में व्याप्त लैंगिक असमानता से जुड़ी हुई हैं। इन उल्लंघनों में UNFPA ने बाल विवाह, सेक्स एजुकेशन का न मिलना, ऑनर किलिंग, मैराइटल रेप, वर्जिनिटी टेस्ट, जबरदस्ती शादी, फीमेल जेनाइटल म्यूटिलेशन, होमोफोबिक या ट्रांसफोबिक रेप, जबरन नसबंदी या गर्भनिरोधक का इस्तेमाल, बलात्कारी से सर्वाइवर की शादी जैसे उल्लंघनों को रखा है। इस रिपोर्ट में निम्नलिखित महत्वपूर्ण बातों का ज़िक्र किया गया है:
1- रिपोर्ट के मुताबिक 57 विकासशील देशों में रहनेवाली आधे से अधिक महिलाओं के पास अपने शरीर को लेकर लिए जाने वाले फैसले जैसे गर्भनिरोधक, स्वास्थ्य सुविधाएं, यौनकिता से जुड़े फैसले लेने का कोई अधिकार नहीं होता।
2- केवल 55 फीसद महिलाएं ही अपने स्वास्थ्य देखभाल, गर्भनिरोधक और सेक्स के दौरान हां या ना कहने के लिए पूरी तरह सशक्त हैं।
3- केवल 71 फीसद देश ही व्यापक रूप से मातृत्व अवकाश की गारंटी देते हैं।
4- केवल 75 फीसद देश ही कानूनी रूप से गर्भनिरोधक की पूर्ण पहुंच सुनिश्चित करते हैं।
5- लगभग 80 फीसद देशों ही ऐसे हैं जहां यौन स्वास्थ्य और कल्याण से संबंधित कौनून मौजूद हैं।
6- 56 फीसद देशों में ही ऐसे नीतियां और कानून हैं जो यौन शिक्षा का समर्थन करते हैं
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भारत के संदर्भ में UNFPA की यह रिपोर्ट बताती है कि यहां महिलाओं की स्थिति कितनी दयनीय है। NFHS-4 साल 2015-2016 के मुताबिक वर्तमान में केवल 12% शादीशुदा महिलाएं जिनकी उम्र 15 से 49 के बीच है वे स्वतंत्र रूप से अपनी स्वास्थ्य सेवा के बारे में निर्णय लेती हैं, जबकि 63% अपने जीवनसाथी से परामर्श लेकर ये फैसले करती हैं। हर 10 में से एक महिला का पति ही गर्भनिरोधक के बारे में फैसला लेता है। वहीं, महिलाओं को गर्भनिरोधक के बारे में दी जानेवाली जानकारी भी सीमित होती है। सिर्फ 47 फीसद महिलाएं ही जो गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करती हैं उसके साइड इफेक्ट्स के बारे में जानती हैं। भारत के संदर्भ में यह रिसर्च यह भी बताती है कि 2019 में UNFPA की ही एक रिपोर्ट के मुताबिक नवविवाहित महिलाएं शायद ही शादी के बाद पहली बार हुए सेक्स को जबरदस्ती या उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ मानती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि अगर यह जबरदस्ती भी था तो सेक्स को शादी के रिश्ते में महिलाओं के लिए एक ड्यूटी की तरह देखा जाता है।
सिर्फ़ महिलाओं के लिए ही समाज ये तय करता हैं कि उन्हें किस तरह बोलना है, कब कितनी ज़बान खोलनी है, किस तरह के कपड़े पहनने से वे संस्कारी कहलाएंगी और उनके अपने शरीर से जुड़े फैसले भी यह समाज ही लेता है। ये वो तमाम बातें हैं जिस बारे में महिलाएं एक इंसान होने के नाते खुद ही निर्णय ले सकती हैं। समाज और परिवार पुरजोर कोशिश में लगा रहता है कि महिलाओं, उनके विचारों और उनके शरीर को चारदीवारी में कैद कैसे किया जाए। इस पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं एक तरह से भावनाओ में बंधी हुई मजदूर हैं जो सबके खुशी के लिए सबकुछ करती हैं सिवाय खुद के खुशी को छोड़कर।
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तस्वीर साभार : गूगल