इंटरसेक्शनलशरीर ‘मेरा शरीर मेरा है, फिर इससे जुड़े फैसले कोई और क्यों ले’

‘मेरा शरीर मेरा है, फिर इससे जुड़े फैसले कोई और क्यों ले’

किसी भी महिला को खुद के जीवन के सारे फैसले लेने की पूरी स्वतंत्रता हो चाहे वह फैसला उसके शरीर से जुड़ा हो या फिर उसके भविष्य से जुड़ा हो।

एक महिला और उसका शरीर लेकिन उसके शरीर से जुड़े फैसले कोई और लेता है। चौंकिए मत यह सब आज की ही बातें है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) ने हाल ही में मॉय बॉडी इज माय ओन के शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें दुनियाभर की महिलाओं की स्थिति बहुत ही चिंताजनक बतायी गई है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 57 गरीब और विकासशील देशों में रहने वाली महिलाओं के हालात बेहद खराब है। इन देशों में महिलाओं को यौन संबंधों के लिए मना करने तक का अधिकार नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की यह रिपोर्ट दैहिक स्वायत्तता पर आधारित है, जिसमें यह बात निकल कर आई है कि महिलाएं अपने स्वयं के शरीर के लिए भी फैसले नहीं ले पाती है। महिलाओं की हां और ना कोई मायने नहीं रखती है।

UNFPA की इस रिपोर्ट के अनुसार आधे से ज्यादा महिलाओं को स्वयं के शरीर के बारे में फैसला लेने का कोई अधिकार नहीं है। महिलाओं के स्वास्थ्य, गर्भनिरोधक के उपयोग या अपने साथी के साथ यौन संबंध बनाने तक के निर्णय वह खुद नहीं करती हैं। दुनिया की बहुत सी महिलाएं और लड़कियों को उनके शरीर या जीवन से जुड़े किसी भी फैसले पर किसी दूसरे व्यक्ति का प्रभाव ज्यादा रहता है।

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दैहिक स्वायत्तता क्या है ?

दैहिक स्वायत्तता से आशय है कि किसी भी महिला को खुद के जीवन के सारे फैसले लेने की पूरी स्वतंत्रता हो चाहे वह फैसला उसके शरीर से जुड़ा हो या फिर उसके भविष्य से जुड़ा हो। इसमें उसे खुद की इच्छा से अपना साथी चुनने, उसे किसके साथ यौन संबंध बनाने, गर्भवती होने, चिकित्सा परामर्श कब लेनी है जैसे फैसले वह खुद लेती हो न कि उसको किसी कि अनुमति की ज़रूरत हो। वास्तव में हमारे समाज में ही नहीं बल्कि दुनिया में महिलाओं और लड़कियों पर हमेशा एक किस्म की निगरानी रखी जाती है। पितृसत्ता की यह निगरानी उनकी हर तरह की स्वायत्तता को खत्म करने की कोशिश करती है। इसमें महिला के स्वयं के वजूद की कोई अहमियत नहीं होती है। इस तरह के वैचारिक पहरे से उनकी सेहत, जीवन की योजनाएं आदि सभी प्रभावित होती हैं। जहां पुरुष पूरी तरह से शारीरिक स्वयत्तता से भरपूर जीवन जीता है वहीं एक महिला अपनी राय भी नहीं जाहिर कर पाती है।

हमारे समाज में ही नहीं बल्कि दुनिया में महिलाओं और लड़कियों पर हमेशा एक किस्म की निगरानी रखी जाती है। पितृसत्ता की यह निगरानी उनकी हर तरह की स्वायत्तता को खत्म करने की कोशिश करती है।

दैहिक स्वायत्तता का उल्लंघन कब होता है ?

दैहिक स्वायत्तता का उल्लंघन कब होता है, इसके कई उदाहरण मौजूद हैॆ। जैसे, जब एक महिला को उसके जीवनसाथी के कहने पर गर्भनिरोधक दवाईयों का सेवन करना पड़े। महिला को उसकी सहमति के बिना अपनी साथी के साथ सेक्स करना पड़े। जब अलग-अलग यौनिक पहचान वाले लोग बिना किसी डर और शोषण के सड़क पर न चल सकें। जब विकलांग लोगों से उनके अधिकार छीन लिए जाते हैं, उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह सब दैहिक स्वायत्तता के उल्लंघन के अंदर आता है। किसी भी इंसान पर यदि उससे शक्तिशाली व्यक्ति उसके शरीर पर अपना हक दिखाकर उसकी सहमति और इच्छा को कुचलता है वह उस इंसान ही दैहिक स्वायत्ता का उल्लंघन है।

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कमजोर होती भागीदारी

किसी भी समाज के लिए महिला और पुरुष दोनों की समान स्थिति ही उस समाज को कुशल बनाती है लेकिन दुनिया भर में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से महिला के निजी जीवन स्तर पर ही स्थिति बेहद खराब है। शारीरिक स्वायत्ता न मिलने के कारण महिलाओं को लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है। जिसका सीधा असर उनके मानसिक सेहत पर पड़ता है, जिस कारण महिलाओं में आत्मविश्वास की सीधी कमी देखी जाती है। UNFPA की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के एक चौथाई देश की केवल 55 प्रतिशत महिलाएं ही है जो अपने निजी जीवन से जुड़े फैसले लेने में सक्षम है। 75 प्रतिशत देश की महिलाओं को ही गर्भनिरोधक दवाईयां मिल पाती हैं। 29 प्रतिशत देशों की महिलाओं के लिए मातृत्व अवकाश की कोई व्यवस्था नहीं है। ये तमाम आंकड़े महिला को एक इंसान के सारे अधिकार लेने की राह की रुकावटे हैं। जो दिखाती हैं कि महिला और उनके शरीर को एक वस्तु की तरह ही माना जाता है। पितृसत्ता की शासन करने की मानसिकता ही है जो महिला को एक उपभोग की तरह माना जाता है जिसमें उसे कुछ भी कहने सुनने की कोई स्वतंत्रता नहीं है।  

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(यह लेख पूजा राठी ने लिखा है।)

तस्वीर : सुश्रीता बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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