भारत सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति को मंजूरी दिए हुए लगभग एक साल होने को है। सरकारी दावों की माने तो यह एक ऐतिहासिक कदम था। इतिहास की ओर नज़र डालें तो सरकार का यह दावा कुछ हद तक सही भी नज़र आता है। देश कि पहली शिक्षा नीति साल 1968 में इंदिरा गांधी के शासनकाल में लाई गई इसके बाद साल 1986 में राजीव गांधी सरकार द्वारा दूसरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति को मंजूरी दी गई। इस प्रकार अगर साल 1992 में नरसिम्हा राव की सरकार द्वारा किए गए संशोधन को छोड़ दें तो यह तीसरा मौका है जब भारत सरकार द्वारा नवीन शिक्षा नीति को पारित किया गया है। आम तौर पर यह माना जाता है कि शिक्षा एक ऐसा हथियार है जिससे समाज को उन्नत और रूढ़िवादिता से मुक्त कराया जा सकता है। यही कारण है कि सावित्रीबाई फुले द्वारा स्त्री शिक्षा का झंडा बुलंद किया गया था मगर समाज के अन्य संस्थानों की तरह शिक्षा व्यवस्था में भी लगातार पितृसत्तात्मक मूल्यों को डाला गया है। यही कारण है कि प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने वाला विद्यार्थी परिवार शब्द को जानने के लिए एक ऐसे चित्र को किताब में देखता है जहां एक पुरुष, एक महिला और बच्चे होते हैं। दो पुरुषों, दो महिलाओं या फिर किसी ट्रांसवुमन या ट्रांसमैन को दिखाकर परिवार होने का मतलब नहीं समझाया जाता। इसका कारण है कि यह परिवार की पितृसत्तात्मक परिभाषा में फिट नहीं बैठता।
ऐसे में इस ऐतिहासिक नवीन शिक्षा नीति के पहले पन्ने को देखते हुए यह आशा की जाती है कि यह उन रूढ़ियों को तोड़ने का काम करेगी जो समाज के साथ-साथ हमारी किताबों में भी मौजूद हैं मगर इस नीति से गुज़रते हुए यह आशा भी ख़त्म हो जाती है। विडंबना यह है कि समावेश और न्यायसम्यता के दावे साथ लाई गई इस नीति के में द क्विंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक गे, लेस्बियन या बाई-सेक्शुअल जैसे शब्दों का कहीं ज़िक्र भी नहीं है। तकरीबन 66 पन्नों की इस नीति में केवल 4 बार ‘ट्रांसजेंडर’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। एक बार को देखने में यह वाक्य किसी रेटोरिक मात्र लग सकता है, मगर यहां हमें यह ध्यान देना होगा कि किसी भी नीति या कानून के ड्राफ्ट या अनुवाद में शब्दों पर विशेष ध्यान दिया जाता है क्योंकि यह शब्द ही उस नीति या कानून पर सरकार की नियति को दर्शाता है। इतना ही नहीं इन शब्दों के अपने क़ानूनी महत्त्व भी होते हैं। इस प्रकार नीति से समाज के इस महत्वपूर्ण हिस्से का ज़िक्र न होना यह बताता है कि शिक्षा का अधिकार समाज के इस तबके को देने में सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं है।
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हो सकता है कि स्कूली शिक्षा में क्वीर समुदाय के लिए अलग से प्रावधान करना चुनौतीपूर्ण हो। ऐसा इसलिए क्योंकि इस दौरान ज़्यादातर बच्चों में सेक्स एजुकेशन के अभाव के चलते खुद की यौनिकता को लेकर जागरूकता कम होती है। ऐसे में यह बात इस महत्वपूर्ण सवालों को भी जन्म देती है कि सभी बच्चों तक उचित सेक्स एजुकेशन पहुंच पाए क्या सरकार इस ओर प्रतिबद्ध भी है? इस सवाल के जवाब के लिए जब हम नवीन शिक्षा नीति पर नज़र दौड़ाते हैं तो निराशा ही हाथ लगती है। नई शिक्षा नीति के इस लंबे से ड्राफ्ट में सेक्स एजुकेशन के बाबत कोई भी बात नहीं कही गई है। इस प्रकार एक तबके को उसकी पहचान के बोध से दूर रखना सरकार के भेदभावपूर्ण रवैये को दर्शाती है।
यह समझना ज़रूरी है कि जाति, धर्म और जेंडर सहित तमाम पहचानों के आधार पर किसी भी व्यक्ति के जीवन के संघर्ष अलग-अलग हो सकते हैं। ऐसे में योजना का स्वरूप ऐसा होना ज़रूरी है जिसमें इन पहचानों को शामिल किया जाए।
शिक्षा में क्वीर समुदाय पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह वह पहला कदम है जिसे बढ़ाकर हम एक जेंडर इन्क्लूसिव समाज की कल्पना कर सकते हैं। सरकार के लिए यह प्राथमिकता इसलिए भी होनी चाहिए क्योंकि द वायर की एक रिपोर्ट के मुताबिक बीते साल का एक डाटा यह बताता है कि सीबीएससी के कक्षा 10 और 12 के परिणामों में पास होने वाले ट्रांस छात्रों की संख्या में गिरावट आई है। सीबीएससी बोर्ड से कक्षा 10 और 12 की परीक्षा दे रहे ट्रांस छात्रों में क्रमशः 15.79 और 16.66 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। इन आंकड़ों से भी चिंताजनक बात यह है कि मौजूदा समय में केवल 19 छात्र ऐसे थे जो कक्षा बारहवीं की परीक्षा दे रहे थे। वहीं, केवल छह छात्रों ने ही दसवीं की परीक्षा दी है। यहां इस बात का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है कि अब तक केंद्र सरकार द्वारा पोषित ऐसा कोई भी स्कूल भारत में नहीं है जो पूर्ण रूप से क्वीर समुदाय के लिए हो।
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सभी तक शिक्षा पहुंचे और सभी की पठन-पाठन की प्रक्रिया सुनिश्चित हो सके इसके लिए इस नीति के ड्राफ्ट (अंग्रेज़ी संस्करण) के 26वें पन्ने पर जेंडर इन्क्लूज़न फंड की बात कही गई है। इसका ज़िक्र करते हुए नीति में यह कहा गया है कि इस फंड का उद्देश्य लड़कियों और ट्रांस समुदाय के लोगों को समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना है। नीति के अनुसार इस बाबत केंद्र सरकार राज्यों को कुछ फंड मुहैया करवाएगी ताकि राज्य सरकारें महिलाओं और ट्रांस समुदाय की शिक्षा में आने वाली बाधाओं से निपट सके और स्वच्छता, शौचालय निर्माण और साईकिल वितरण जैसी योजनाओं को प्राथमिकता के साथ धरातल पर उतारा जा सके। इन वर्गों की कठिनाइयां कम हो सकें इसके लिए यहां सामुदायिक हस्तक्षेपका ज़िक्र भी देखने को मिलता है। मगर यह सारी योजना किसी दिवास्वप्न और मृगमरीचिका जैसी लगती हैं क्योंकि ड्राफ्ट में इन योजनाओं का न तो कोई ख़ाका देखने को मिलता है और ना ही सामुदायिक हस्तक्षेप को परिभाषित किया गया है।
इसे विडंबना ही कहेंगे कि जो सरकार ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे के साथ सत्तारूढ़ हुई है उसके द्वारा लाई गई शिक्षा नीति के बारे सामाजिक कार्यकर्ता यह कहने को मजबूर हैं कि यह नीति एक पूरी पीढ़ी को ही शिक्षा से बेदखल कर देगी। एक अंग्रेज़ी वेबसाइट डेवेक्स से इस बारे में बात करते हुए आल इंडिया फ़ोरम फ़ॉर राईट टू एजुकेशन की प्रवक्ता मधु प्रसाद कहती हैं, “एक पूरी पीढ़ी का (शिक्षा व्यवस्था से) सफाया होने का खतरा है क्योंकि नीति बहिष्करण पर आधारित है”।
मौजूदा सरकार द्वारा जब भी कोई नीति लाई गई है उसमें प्राइवेट स्टेकहोल्डर को शामिल करने की बात ज़रूर कही गई है। आसान शब्दों में कहें तो सरकार द्वारा संसाधनों के निजीकरण का प्रयास बार-बार किया गया है। इस बात का विरोध समाज के एक तबके द्वारा बार-बार इस तर्क के साथ किया जाता रहा है कि इससे चीज़ें महंगी हो जाएंगी जिससे समाज का वंचित तबका पीछे छूट जाएगा। इस बात को पुख्ता करते हुए डेवेक्स वेबसाईट से बात करते हुए उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में रहने वाली वंदना भारती कहती हैं, “मेरे घर से मेरा स्कूल तक़रीबन 4 किलोमीटर दूर है, मुझे वहां तक चल कर जाना होता है। यहां मेरे घर के पास कोई भी सरकारी स्कूल नहीं है और हम प्राइवेट स्कूल की फ़ीस नहीं भर सकते।” वंदना की यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि इस नीति के शुरुआती पन्नों (पृष्ठ-6) में ही इसके मूलभूत सिद्धांतों का ज़िक्र करते हुए सरकार द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि शिक्षा में निजी निवेश इनकी प्राथमिकताओं में शामिल है।
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स्कूलों में बढ़ता ड्रॉप आउट रेशियो भी शिक्षण प्रक्रिया की एक प्रमुख बाधा है। नवीन शिक्षा नीति के दसवें पेज में ही इस बारे में बात की गई है। एनएसएसओ के 2017-18 का एक आंकड़ा देते हुए ड्राफ्ट में लिखा है कि 6 से 17 साल की उम्र के बीच 3.22 करोड़ बच्चों ने स्कूल छोड़ा है। पैराग्राफ के शुरुआती हिस्से में जीईआर (Gross enrolment ratio) पर आंकड़े प्रस्तुत करते हुए यह कहा गया है कि कक्षा 6 से 8 के बीच जीईआर का प्रतिशत 90.9 फ़ीसद है। वहीं, कक्षा ग्यारह और बारह के लिए यह आंकड़ा संयुक्त रूप से 56.5 फ़ीसद है। पहली बार में देखने पर सामान्य लगने वाले यह आंकड़े अपने आप में बेहद आपत्तिजनक हैं। यह आंकड़े स्टेट द्वारा किए गए ‘ओवर सिम्पलीफिकेशन’ का एक बेहतरीन उदाहरण है। यह आंकड़ें इस बात को ज़ाहिर करते हैं कि सरकारी योजना निर्माण की प्रक्रिया में सामाजिक पहचान और उससे जुड़े हुए संघर्ष कोई मायने नहीं रखते हैं। यही कारण है कि ड्रॉपआउट पर बात करते हुए सरकार कक्षावार और उम्रवार आंकड़े देती है। ऐसे में जेंडर आधारित कठिनाइयां दरकिनार कर दी जाती हैं।
यह समझना ज़रूरी है कि जाति, धर्म और जेंडर सहित तमाम पहचानों के आधार पर किसी भी व्यक्ति के जीवन के संघर्ष अलग-अलग हो सकते हैं। ऐसे में योजना का स्वरूप ऐसा होना ज़रूरी है जिसमें इन पहचानों को शामिल किया जाए और उनके संघर्षों की पहचान करते हुए उसके उपायों का प्रबंध करना अनिवार्य है। नवीन शिक्षा नीति इस दावे के साथ लायी गई कि यह न्यायसम्य और सामान शैक्षिक मौकों को सुनिश्चित करेगी मगर इस नीति के ड्राफ्ट से गुज़रने पर यह बात किसी जुमले जैसी ही मालूम होती है। इस नीति में सरकार द्वारा डिजिटल शिक्षा पर भी जोर देने की बात कही गई है मगर यह सवाल अब भी प्रासंगिक बना हुआ है कि जिन गावों तक आज भी बिजली और नेटवर्क नहीं पहुंच पाया है वहां यह विचार कितना सटीक बैठेगा और यदि नहीं तो क्या सबका साथ सबका विकास एक मिथक मात्र है?
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तस्वीर साभार : The Telegraph