18वीं और 19वीं सदी के सुधारवादी आंदोलनों में महिलाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। भले ही वे संख्या में कम थीं लेकिन उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा और खुद पर यकीन कर अपना वज़द बनाए रखा। कुछ स्त्रियों की भूमिका को इतिहास ने बड़े आराम से नजरअंदाज़ कर दिया है जिनमें से ही एक नाम है, कृपाबाई सत्यानन्दन। बता दें कि कृपाबाई सत्यानन्दन अंग्रेजी में उपन्यास लिखने वाली पहली भारतीय महिला थीं। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से हिंदू स्त्री के जीवन की दुर्दशा बयान की थी। कृपाबाई का जन्म अहमदनगर तत्कालीन बॉम्बे प्रेसिडेंसी) में हुआ था। वह अपने माता- पिता, राधाबाई खिस्ती और हरिपंत की तेरहवीं संतान थीं। बॉम्बे प्रेसिंडेंसी का यह पहला ब्राह्मण परिवार था जिसने ईसाई धर्म अपनाया था। शुरुआती वर्षों में ही उनके पिता की मृत्यु हो गई।
कृपाबाई पर उनके बड़े भाई भास्कर का बड़ा प्रभाव था, वह उनकी पढ़ने में मदद करते थे और किताबों के बारे में बताते थे। भास्कर ने कृपाबाई को इतिहास के महान व्यक्तित्वों और दार्शनिकों से रूबरू करवाया। वहीं, कृपाबाई भी मेहनती और जिज्ञासु थीं। जब भास्कर की मृत्यु हई तो इसने 13 साल की कृपाबाई को बिखेर कर रख दिया था। इससे उबरने के लिए कृपाबाई ने कुछ वक्त दो यूरोपीय महिलाओं के साथ बिताया जिन्होंने उनको ब्रिटिश तौर तरीकों से परिचित कराया था। इसके बाद कृपाबाई ने बॉम्बे में ही एक बोर्डिंग स्कूल में दाखिला लिया जहां वह एक अमेरिकी महिला डॉक्टर के संपर्क में आईं और डॉक्टरी पढ़ने में उनकी रुचि विकसित हुई।
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कृपाबाई को इंग्लैंड के एक मेडिकल स्कूल में जाने के लिए स्कॉलरशिप से भी सम्मानित किया गया लेकिन खराब स्वास्थ्य और समाज में प्रचलित पितृसत्तात्मक रवैये के कारण उन्हें जाने की अनुमति नहीं दी गई। इंग्लैंड से पढ़ने की तो उनकी इच्छा पूरी न हो सकी लेकिन मद्रास मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने वाली वह पहली महिला विद्यार्थी बनीं। दुर्भाग्यवश डिप्रेशन और खराब स्वास्थ्य के चलते उनको अपना मेडिकल करियर बीच में ही छोड़ना पड़ा। साल 1881 में उनकी मुलाकात सैमुअल सत्यानन्दन से हुई जो इंग्लैंड से पढ़ाई पूरी कर वापस लौटे थे। दोनों में प्रेम हुआ और फिर शादी।
कृपाबाई सत्यानन्दन अंग्रेजी में उपन्यास लिखने वाली पहली भारतीय महिला थीं। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से हिंदू स्त्री के जीवन की दुर्दशा बयान की थी।
कृपाबाई ने जनाना मिशन स्कूल में जाकर महिलाओं को पढ़ाया और मुस्लिम लड़कियों के लिए एक स्कूल भी खोला। कृपाबाई स्त्री मुद्दों के प्रति जागरूक थीं और इन मुद्दों पर स्थानीय अखबारों और पत्रिकाओं में लगातार लिखती थीं। साहचर्य विवाह और मातृत्व पर कृपाबाई का अवलोकन पितृसत्ता के अनुभवों से प्राप्त अंतर्दृष्टि से युक्त है। उदाहरण के लिए, वह इस विषय में तीन कारणों की पहचान करती हैं कि भारतीय पुरुष एक बुद्धिमान पत्नी को क्यों बर्दाश्त नहीं कर सकता। पहला कृपाबाई समाजशास्त्रीय कारण बताती हैं जिसमें भारतीय परिवारों में लड़के को ही सब कुछ माना जाता है जिससे उसका स्वभाव भी इसी मुताबिक ढल जाता है और वह खुद को स्त्रियों से ऊपर और स्त्री को हीन मानने लगता है। दूसरा, मनोवैज्ञानिक कारण है जिसमें सदियों से सत्ता गंवाने के बाद, हिंदू पुरुष अपने घरों में अत्याचार करके इसकी भरपाई करते हैं। तीसरा आर्थिक कारण है जिसके मुताबिक हिंदू संयुक्त परिवार महिलाओं की दासता के बिना जीवित नहीं रह सकता है। यह सुनिश्चित करता है कि महिलाएं क्षुद्र बनी रहें क्योंकि वे पुरुषों के खेलने की वस्तु हैं।
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एन इंडियन लेडी छद्मनाम से उनका पहला लेख ‘ए विजिट टू द टोडास’ था जो साउथ इंडिया ऑब्जर्वर में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने ‘द स्टोरी ऑफ ए कन्वर्जन’ शीर्षक से एक और पेपर लिखा जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे रेव डब्ल्यू टी सत्यानंदन ने ईसाई धर्म स्वीकार किया। तीन साल बाद वह अपने पति के साथ राजमुंदरी चली गई, और फिर से बीमार हो गईं। इसके बाद वे कुंभकोणम चले गए। कृपाबाई के स्वास्थ्य में उतार-चढ़ाव के बावजूद यह वक्त उनके लेखन के लिए अच्छा रहा और साल 1886 में स्थायी रूप से मद्रास लौटने से पहले उनका उपन्यास ‘सगुना’ प्रकाशित होने के लिए तैयार था। सगुना कृपाबाई का आत्मकथात्मक उपन्यास है। जब इस किताब को महारानी विक्टोरिया को भेंट स्वरूप दिया गया था तो वह इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने कृपाबाई की अन्य रचनाओं को पढ़ने में भी रुचि प्रकट की। इसी दौरान कृपाबाई की इकलौती संतान की मृत्यु हो गई और वह डिप्रेशन में चली गईं जिसके लिए उन्हें इलाज की आवश्यकता थी। साथ ही उन्हें तपेदिक भी था जिसका कुछ हद तक इलाज बॉम्बे में किया गया था।
यह जानते हुए कि उनके पास जीने के लिए बहुत कम समय है, उन्होंने अपने दूसरे उपन्यास ‘कमला: ए स्टोरी ऑफ हिंदू लाइफ’ पर काम करना शुरू कर दिया और अपनी मौत तक इस पुस्तक पर लगातार काम किया। इस उपन्यास में कृपाबाई कमला के रूप में हिंदू ब्राह्म्ण रूढ़िवादी परिवार की एक बाल वधू का चित्रण करती हैं जिसकी स्थिति को देखकर महसूस होता है कि समाज में स्त्रियों की हालत को लेकर कितने सुधार की जरूरत है। इसके माध्यम से कृपाबाई उन रीति-रिवाजों और परंपराओं का खुलासा करती हैं जो भारत की महिलाओं का दमन करने से संबंधित हैं। साल 1894 में कृपाबाई की मृत्यु हो गई। कृपाबाई की याद में मद्रास विश्वविद्यालय अंग्रेज़ी पढ़ने वाली महिला छात्रों को उनके नाम पर एक मेडल प्रदान करता है। वहीं, मद्रास मेडिकल कॉलेज में फार्माकोलॉजी में या उच्च चिकित्सा अध्ययन के लिए कृपाबाई के नामपर महिलाओं को छात्रवृत्ति भी दी जाती है।
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