स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य अपने स्वास्थ्य पर चर्चा करने से झिझकती हैं कामकाजी महिलाएं : रिपोर्ट

अपने स्वास्थ्य पर चर्चा करने से झिझकती हैं कामकाजी महिलाएं : रिपोर्ट

कामकाजी पढ़ी-लिखी औरतें जिनके पास बेहतर विकल्प हो सकते हैं वे भी अपने स्वास्थ्य पर चर्चा करने से हिचकिचाती हैं।

जब हम किसी भी देश, राज्य या क्षेत्र के विकास को आंकते हैं, तो उसके मानदंडों में से एक पहलू स्वास्थ्य का भी होता है। जब स्वास्थ्य किसी देश के विकास और वृद्धि के लिए इतना ज़रूरी है तो इस देश की महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों के बारे में खुलकर बात क्यों नहीं होती? बहुत समय तक हमारे यहां पीरियड्स के मुद्दे पर बात भी कान में फुसफुसाकर की जाती थी। हालांकि, अब इस स्थिति में तो कुछ बदलाव ज़रूर आए हैं पर महिलाओं की स्वास्थ्य से संबंधित बीमारियों पर चर्चा समाज तो क्या खुद महिलाएं भी करने से झिझकती हैं। इसकी वजह पता लगाने के लिए ‘एमक्योर फार्माकियूटिकल्स’ ने इप्सोस रिसर्च प्राइवेट लिमिटेड के साथ मिलकर एक सर्वे करवाया। इस सर्वे में 25 से 55 साल की 1000 कामकाजी महिलाएं शामिल थीं। 

इस सर्वे की ‘द इंडियन वीमंस हेल्थ रिपोर्ट, 2021’ के अनुसार सात बड़े शहरों बंगलुरु, चेन्नई, दिल्ली, हैदराबाद, कोलकत्ता, मुंबई और पुणे में काम करनेवाली महिलाओं की आधी संख्या अपने स्वास्थ्य से संबंधित किसी एक या अधिक बीमारियों के बारे में बात करने में असहज महसूस करती हैं। इसका मुख्य कारण समाज में इनसे जुड़े पूर्वाग्रह और वहम हैं। महिलाओं के स्वास्थ्य से संबंधित बीमारियां समाज के लिए अभी भी एक टैबू हैं और इन के बारे में खुले में बात करना आसान नहीं है। 

और पढ़ें : घर के काम के बोझ तले नज़रअंदाज़ होता महिलाओं का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य

कामकाजी पढ़ी-लिखी औरतें जिनके पास बेहतर विकल्प हो सकते हैं वे भी अपने स्वास्थ्य पर चर्चा करने से हिचकिचाती हैं।

इस सर्वे का उद्द्देश्य कामकाजी महिलाओं की सामाजिक, सांस्कृतिक और मेडिकल दृष्टिकोण को जानना था ताकि इन स्टेकहोल्डर्स, जिनका संबंध सीधे इन मुद्दों से है, उनका नज़रिया जानकर इसका हल निकाला जा सके। सर्वे के दौरान माहिलाओं ने बताया कि उनके स्वास्थ्य से संबंधित तकलीफें समाज के लिए कलंक की तरह हैं। इसके कारण उन्हें सामाजिक जीवन और अपने पेशे में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इस सर्वे के मुख्य आंकडें हमें निम्नलिखित बातें बताते हैं :

  • 90 फीसद महिलाओं को निजी और प्रोफेशनल ज़िम्मेदारियां निभाने में संतुलन बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। 
  • 86 फीसद कामकाजी महिलाओं ने अपनी सहकर्मियों/सहेलियों को काम छोड़ते देखा है, जिसमें से 59 फीसद का कारण उनका स्वास्थ्य था। 
  • 84 फीसद कामकाजी महिलाओं को पीरियड्स के दौरान कुछ मिथ्यों का सामना करना पड़ता है। जैसे मंदिरों और रसोई में न जाना, सैनिटरी नैपकिन को छिपाना आदि। 
  • 67 फीसद महिलाओं का कहना है कि महिला स्वास्थ्य के बारे में बात करना आज भी समाज में टैबू है। 
  • 75 फीसद महिलाओं के नियोक्ता स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर बात करने का प्रयास करते हैं, इससे जुड़े कदम उठाने की कोशिश करते हैं।
  • 80 फीसद महिलाओं का मानना है कि पुरुष सहकर्मी, महिला स्वास्थ्य से संबंधित मुद्दों पर बात करने के लिए संवेदनशील नहीं होते। 
  • 52 फीसद माहिलाओं को काम के साथ-साथ अपने स्वास्थ्य की देखभाल करने में मुश्किल होती है। 

इन आंकड़ों से यह बात सामने आती है कि पीसीओएस, ब्रैस्ट कैंसर और एंडोमेट्रियोसिस जैसे बीमारियों को लेकर आज भी समाज में रूढ़ीवादी सोच और पूर्वाग्रह मौजूद हैं। समाज द्वारा इन मुद्दों पर खुलकर चर्चा करना सही नहीं माना जाता। इससे हमारे देश में महिला स्वास्थ्य की वास्तविक छवि देखने को मिलती है। 

और पढ़ें : पुरुषों के मुकाबले लंबा लेकिन अस्वस्थ जीवन जीने को मजबूर महिलाएं

अपने स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारियों को नज़रअंदाज़ करना, इनकी बात न करके हम समस्या का हल नहीं कर सकते। यह सोचने वाली बात है कि कामकाजी पढ़ी-लिखी औरतें जिनके पास बेहतर विकल्प हो सकते हैं वे भी अपने स्वास्थ्य पर चर्चा करने से हिचकिचाती हैं। औरतें हर क्षेत्र में आगे बढ़ती नज़र आ रही हैं, वहां उनके स्वास्थ्य संबंधित मुद्दों को आज भी सामन्य नहीं माना जाता, उन्हें हमेशा पितृसत्तात्मक मूल्यों के आधार पर देखा जाता है। अर्थव्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, राजनीतिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाओं को सुधारने के लिए महिलाओं के स्वास्थ्य पर बात करना ज़रूरी है। हम हमेशा की तरह एक औरत के शारीरिक दर्द, बीमारियों को नज़रअंदाज़ कर, उसके दर्द को ग्लोरीफाई करके अपना पलड़ा नहीं झाड़ सकते हैं। 

और पढ़ें : शौच और शर्म की संस्कृति में महिलाओं की चुनौतियाँ


तस्वीर साभार : The Wire

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content