औद्योगीकरण की शुरुआत से लेकर वैश्वीकरण के विकास तक के सफ़र को किसी एक शब्द में बताया जाए तो वह शब्द है ‘प्रतिस्पर्धा।’ प्रतिस्पर्धा के कारण सभी लोग और उद्योग एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में तरह-तरह की तरकीबें अपनाने लगे। विज्ञापनों का विकास भी इसी कारण हुआ। यूं तो भारत में विज्ञापनों का इतिहास बहुत पुराना है पर पहले उसके माध्यम अलग होते थे। टेलीविज़न, रेडियो, इंटरनेट और मोबाइल के आने से इसका परिदृश्य ही बदल सा गया। ऐसा माना जाता है कि विज्ञापन हमारी संस्कृति के परिचायक और प्रभाव होते हैं। यह हमारी सोच, हमारे विचारों को प्रभावित करते हैं। यह इस तरह से लिखे और गढ़े जाते हैं कि जाने-अनजाने में यह हमारे मनोविज्ञान से जुड़ जाते हैं।
विज्ञापनों में औरतों की भूमिका की बात करें तो हमेशा से ही उन्हें स्टीरियोटाइप किया जाता रहा है। विज्ञापनों में औरतों की भूमिका हमेशा से ही समाज के पितृसत्तात्मक मानकों पर आधारित नज़र आई है। औरतों को हमेशा एक माँ के रूप में, एक बहन के रूप में, अच्छी पत्नी और बहू के रूप में ही दिखाया जाता है। सभी उत्पादों की बिक्री के लिए औरतों को ही माध्यम बनाया जाता है। ‘एक अच्छी माँ बनने के लिए यह खरीद लाएं’, ‘अपनी बीवी को अच्छी पत्नी बनाइए: उषा सलाई मशीन खरीद लाइए।’ उन्हें एक कमोडिटी से ज़्यादा और कुछ नहीं समझा गया। साल 1960 के बॉर्नवीटा के विज्ञापन की टैगलाइन थी, ‘पति की खुशी आपकी खुशी है।’ ऐसा दिखाया जाता था कि पुरूष ही उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं और औरतें उनके अधीन हैं।
हमें इन विज्ञापनों की पीछे छिपे खेल को पहचानने की ज़रूरत है। हमें सवाल करने की ज़रूरत है। जो भी चीज़ दिखाई जा रही है, इसे उसी तरह से अपना लेने की आदत से हटकर, हमें चुनकर चीज़ों को अपने समझना चाहिए।
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अमेरिका के नेशनल एडवर्टाइजिंग रिव्यू बोर्ड का कहना था, ‘विज्ञापन अक्सर औरत के स्वायत्त की उपेक्षा कर उसकी सेक्शुअलिटी का प्रदर्शन करते हैं। वे औरतों को सेक्स ऑब्जेक्ट्स की तरह दिखाते हैं।’ धीरे-धीरे औरतों में जागरूकता आने लगी। नारीवाद के नए डिस्कोर्स के साथ उनकी छवि बदलने लगी। अब इस मसले पर विचार किया जाने लगा। परिणाम यही रहा कि औरतों को फिर से स्टीरियोटाइप ही किया जाने लगा, बस उसका तरीका बदल गया। अब स्त्री कमज़ोर और केवल घर तक सीमित नहीं रहती थी। अब वह ‘सुपर वुमन’ बन चुकी थी। वह न सिर्फ़ घर अच्छी तरह चलाती थी, बल्कि साथ-साथ ऑफिस के भी सारे काम करती थी। स्त्री के काम करने को ग्लोरीफाई किया जाने लगा। एक अच्छी पत्नी तभी बन पाती, जब वह घर और बाहर के काम को अच्छे से संभाल ले।
टीवी पर कुछ समय पहले तक रेडीमेड फूड बनानेवाली कंपनी एमटीआर का विज्ञापन आता था। उसमें एक औरत घरवालों से नाश्ते के बारे में पूछती है और सब अलग-अलग व्यंजन का नाम लेते हैं। उस विज्ञापन में औरत के छह हाथ दिखाए गए हैं। ऐड ख़तम होने पर उसका पति उससे कहता है, “तुमने इतना कुछ कैसे बना लिया?” यह बात अगर परिवारवाले अपनी मांग रखने से पहले सोचते तो ज़्यादा अच्छा नहीं होता? ऐसे विज्ञापनों में औरतों से अवास्तविक उम्मीदें रखी जाती हैं। उनके काम करने को ग्लोरीफाई किया जाता है। वह काम जो अनपेड होता है, जिसमें घरवाले औरत की मदद करना ज़रूरी नहीं समझते। एक ऐसे ही दूसरे गहनों के विज्ञापन के बैनर में यह लिखा गया था, “मैं अपना पति तो चूज़ नहीं कर पाई, लेकिन ज्यूलरी ज़रूर चूज़ कर सकती हूं।” ऐसे विज्ञापन अलग-अलग स्तरों पर प्रॉबलमैटिक होते हैं। ये इस बात को बढ़ावा देते हैं कि एक औरत अपने पार्टनर, अपने जीवनसाथी का चयन खुद नहीं कर सकती है। हमारा जातिवादी-पितृसत्तात्मक समाज औरतों को यह अधिकार देता भी नहीं है। ऐसे में ये विज्ञापन समाज की ही रूढ़िवादी सोच को बढ़ावा देते नज़र आते हैं।
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यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में भारत के विज्ञापनों में मौजूद लैंगिक भेदभाव की बात कही गई है। उसमें बताया गया है कि भले ही विज्ञापनों में औरतों की संख्या अधिक है लेकिन उन्हें अक्सर जवान, समाज की परिभाषा के अनुरूप ‘ख़ूबसूरत’, माँ-बहन-बीवी, और निजी स्पेस में दिखाया जाता है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि कोविड-19 में अनेक केस ऐसे सामने आए थे जिनमें औरतों को आपने रोज़गार से हाथ धोना पड़ा और वे घरेलू हिंसा से भी पीड़ित हुईं। विज्ञापनकर्ताओं के पास इन मुद्दों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का अच्छा मौका था लेकिन किसी ने भी इस तरह की कोई कोशिश नहीं की। विज्ञापन बनानेवाले सेफ़ खेलना चाहते हैं। वे नये नैरेटिव गढ़ना तो चाहते हैं, पर पुरानी पितृसत्तात्मक धारणा के अनुकूल ही। वे औरतों को नए तरीके से पेश तो करना चाहते हैं पर पुराने पितृसत्तात्मक रास्तों पर चलकर ही।
इसी सब के चलते कुछ विज्ञापन ऐसे भी हैं जिनमें सचमुच कई मुद्दों को अच्छे से दिखाया गया है। उदाहरण के तौर पर एरियल का ‘शेयर द लोड’ का संदेश देता ऐड। हालांकि, इस ऐड में भी कई चीज़ें ऐसी हैं जिनपर सवाल उठाया जा सकता है पर घर के ‘काम को बांटने’ का यहां पर अच्छा उदाहरण दिया गया है। हज़ारों में से कोई एक विज्ञापन ऐसा मिलेगा, इसलिए इनका प्रभाव ज़्यादा देर तक नहीं रह सकता क्योंकि बाकी 999 विज्ञापन उसी रूढ़िवादी सोच का प्रचार करते हैं। इप्सोस द्वारा ‘वीमन इन एडवरटाइज़िंग’ की एक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि विज्ञापनों में औरतों की सकारात्मक छवि, एक अच्छे समाज और सफ़ल ब्रांड का निर्माण कर सकती है।इसलिए हमें इन विज्ञापनों की पीछे छिपे खेल को पहचानने की ज़रूरत है। हमें सवाल करने की ज़रूरत है। जो भी चीज़ दिखाई जा रही है, इसे उसी तरह से अपना लेने की आदत से हटकर, हमें चुनकर चीज़ों को अपने समझना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि जो दिखाया जा रहा है, हमेशा वह ही सही नहीं हो।
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