“दूसरी जाति वालों के सामने वोट की भीख मांगनी पड़ती है यह कम नहीं है क्या कि अब इनकी झोपड़ी में जाकर झुकने के लिए बोल रही हैं। आप अच्छा पढ़ाती हैं उसी पर ध्यान दीजिए।”
टीजे नानवेल द्वारा निर्देशित फिल्म ‘जय भीम’ अपनी आवश्यकता को एक आदिवासी शिक्षक और नेता के बीच के इस संवाद से प्रदर्शित कर देती है। ‘जय भीम’ दरअसल साल 1993 मे तमिलनाडु में घटी एक सच्ची घटना पर आधारित है। मार्च 1993 में राज्य के मुदन्नी गाँव में रहनेवाले और कुरवा आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले दंपत्ति राजकन्नू और सेंगनी के घर पर पुलिस दस्तक देती है। सेंगनी द्वारा कारण पूछने पर पुलिस कहती है कि पास में लाखों की चोरी हुई है जिसकी पूछताछ के लिए पुलिस उसके पति राजकन्नू को ख़ोज रही है।
इसके बाद राजकन्नू को न पाने पर पुलिस उसके भाई, बहन और पत्नी के साथ मारपीट करती है। पुलिस की बर्बरता का सिलसिला तब और बढ़ जाता है जब वह राजकन्नू को हिरासत में लेती है। इस दौरान की गई मारपीट के कारण राजकन्नू की मौत हो जाती है जबकि पुलिस द्वारा उसे फ़रार बताया जाता है। अपने पति की तलाश में सेंगई नेताओं से लेकर अदालत तक का दरवाज़ा खटखटाती है। मद्रास हाईकोर्ट में तत्कालीन वकील और बाद में जज बने जस्टिस चंद्रू के साथ सेंगनी ने यह लड़ाई साल 2006 तक लड़ी। इस दौरान यह साबित हुआ कि स्थानीय पुलिसकर्मियों द्वारा की गई मारपीट के कारण राजकन्नू की मौत हुई है जिस पर फैसला सुनाते हुए मद्रास हाई कोर्ट ने पांच पुलिसकर्मियों को दोषी करार दिया था।
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फ़िल्म इस पूरी घटना को आधार बनाकर और इसके विभिन्न पहलुओं को दिखाते हुए उस सामाजिक हक़ीकत को सामने रखती है जो तमाम लोकतांत्रिक संस्थानों के समान्तर आज भी बनी हुई है। फिल्म विषय को अपने पहले ही सीन से स्थापित करती है जहां कुछ कैदी जेल से निकल रहे होते हैं और एक पुलिसकर्मी जातिगत आधार पर उन्हें बांटता है और शोषित जाति से आनेवाले कैदियों को वापस ग़ैर-क़ानूनी रूप से हिरासत में ले लिया जाता है। यह दृश्य इस बात का प्रतीक है कि स्टेट अपने स्वभाव में कितना जातिवादी है और सामाजिक न्याय उसके लिए नाटक मात्र है।
फिल्म इस सामाजिक बंटवारे की लकीर को शॉट्स और सीन के माध्यम से और गाढ़ा कर देती है। यह ज़रूरी भी है ताकि हमारी आँखें उसे नज़रअंदाज़ न कर पाएं। फिल्म दिखाती है कि कैसे ईंट बनाने वाला मज़दूर जिसकी बनाई हुई ईंट से ही किसी गाँव के सरपंच की विशाल कोठी बनी है, पक्के घर का मोहताज है।
फ़िल्म का उद्देश्य उस सामाजिक वर्गीकरण को दिखाना है जो अपने स्वभाव में बेहद क्रूर है। यह वर्गीकरण ऐतिहासिक है और इसके आधार पर ही संसाधनों का वर्गीकरण किया गया है। यह संपूर्ण व्यवस्था ही आदमी के सोचने-समझने, खाने-पीने और सामाजिक जीवन में बर्ताव करने के तरीके से लेकर बेहद निजी क्षणों में होने वाली बातचीत का विषय भी तय करती है। यही कारण है कि फिल्म में जब राजकन्नू और सेंगनी प्यार कर रहे होते हैं तो राजकन्नू कहता है, “मुझे तेरी कसम है मरने से पहले मैं तुझे एक पक्के घर की मालकिन ज़रूर बनाऊंगा।” इसे विडम्बना ही कहिए कि एक ओर जहाँ आदिवासियों को जंगल का रखवाला कहा जाता है वहीं दूसरी ओर आधिकारिक तौर पर उन्हें वे काग़ज़ भी नहीं मुहैया करवाए जाते हैं जिससे वह अपनी ही ज़मीन को अपना कह सकें। इसी व्यथा को बेहद सहज ढंग से निर्देशक राजकन्नू और सेंगनी के प्यार के क्षण में किए गए उस मज़ाक में दिखाता है जब सेंगनी यह कहती है कि क्या सरकार ज़मीन का पट्टा देने वाली है जो तू हवा महल बनवाएगा।
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फिल्म इस सामाजिक बंटवारे की लकीर को शॉट्स और सीन के माध्यम से और गाढ़ा कर देती है। यह ज़रूरी भी है ताकि हमारी आँखें उसे नज़रअंदाज़ न कर पाएं। फिल्म दिखाती है कि कैसे ईंट बनाने वाला मज़दूर जिसकी बनाई हुई ईंट से ही किसी गाँव के सरपंच की विशाल कोठी बनी है, पक्के घर का मोहताज है। बारिश के कारण गीली होकर ढह गई उसके घर की दीवार को दोबारा बनाने की चिंता और सरपंच की उसकी पत्नी द्वारा गहनों से भरी अलमारी को सांप के डर से खुला छोड़ देने की चिंता के बीच एक बड़ा सामाजिक-आर्थिक अंतर है। यही अंतर आगे चल कर राजकन्नू की हत्या के रूप में बदलता है।
सूर्या की एंट्री के बाद डायरेक्टर आदवासियों की व्यथा को उनके रोते-बिलखते चेहरे के रूप में ही बार-बार दिखाता है। अच्छा होता यदि निर्देशक सेंगनी और डीजीपी के बीच हुए मज़बूत संवाद की ही तरह अन्य जगहों में भी सेंगनी के किरदार के संवादों में मज़बूत करता।
भाषाएं संस्कृति की प्रतिनिधि होती हैं। यही कारण है कि भाषा के व्याकरण और उसके प्रयोग के तरीकों से आप उस समाज के चरित्र का अंदाज़ा लगा सकते हैं। इसी प्रकार हमारा समाज भाषाई रूप से भी कितना जातिवादी है उसे दिखाने के लिए डायरेक्टर कोर्टरूम के उस सीन का सहारा लेते हैं जहाँ एक सवर्ण वकील चंद्रू को बधाई देते हुए कहता है कि एक तीर से 7000 निशानें, जिसे ठीक करते हुए चंद्रू को कहना पड़ता है कि निशान नहीं इंसान हैं सर।
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फिल्म की एक और अच्छी बात यह भी है कि फिल्म बेहद प्रभावी ढंग से पुलिस द्वारा राजकन्नू और उसके रिश्तेदारों पर किए गए अत्याचार को चित्रित करते चलती है। यह चित्रण कुछ-कुछ जगह इतने प्रभावी हैं कि अंत तक ज़हन में रह जाते हैं। यह फिल्म एक ऐसी घटना पर आधारित है जिसने लोकतांत्रिक परिसीमाओं में मौजूद जातिवाद को सबके सामने खोलकर रख दिया था। हालांकि यह अपने तरह की पहली घटना नहीं है मगर इस प्रकरण में वकील के रूप जस्टिस चंद्रू का अपने कर्तव्यों का इमानदारी से निर्वहन करना और एक मुश्किल केस को जीतकर पीड़िता को न्याय दिलाना इसे विशेष बना देता है। यही कारण है कि चंद्रू के किरदार में सूर्या प्रोटेगनिस्ट हैं। एक ओर अपने शुरुआती आधे घंटे में फिल्म सामाजिक विभेद को बेहद स्पष्ट और बिना किसी लाग लपेट के प्रतीकों में बताती है वहीँ स्क्रीन पर चंद्रू (सूर्या) की इंट्री होते ही फ़िल्म धीरे-धीरे हीरो सेंट्रिक होने लग जाती है।
फिल्म की एक और अच्छी बात यह भी है कि फिल्म बेहद प्रभावी ढंग से पुलिस द्वारा राजकन्नू और उसके रिश्तेदारों पर किए गए अत्याचार को चित्रित करते चलती है। यह चित्रण कुछ-कुछ जगह इतने प्रभावी हैं कि अंत तक ज़हन में रह जाते हैं।
शुरुआत में जहां फ़िल्म सरल दिखाई पड़ती है वहीं चंद्रू को स्क्रीन स्पेस मिलते ही फ़िल्म लाउड होने लग जाती है। दमदार म्यूज़िक के साथ डायरेक्टर अपने हीरो को फिल्म के केंद्र में स्थापित करता है और आगे उसी के सहारे अपनी फिल्म को बढ़ाता है। सूर्या की पहचान दक्षिण सिनेमा में एक ऐसे हीरो के रूप में है जिसने कई फिल्मों में सुपरकॉप की भूमिका निभाई है। अपने एक इंटरव्यू में फिल्म के डायरेक्टरकहते हैं कि वह भी चाहते थे कि सूर्या ही चंद्रू के किरदार को निभाएं ताकि दुनिया को पता चल सके कि सुपरकॉप के अलावा कहानी का दूसरा पहलू भी होता है। मगर इस बार फिल्म में सूर्या सुपरकॉप के बजाय सुपरलॉयर के रूप में दिखते हैं। साथ ही सूर्या की एंट्री के बाद डायरेक्टर आदवासियों की व्यथा को उनके रोते-बिलखते चेहरे के रूप में ही बार-बार दिखाता है। अच्छा होता यदि निर्देशक सेंगनी और डीजीपी के बीच हुए मज़बूत संवाद की ही तरह अन्य जगहों में भी सेंगनी के किरदार के संवादों में मज़बूत करता।
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कथानक के मज़बूत होने के बावजूद सूर्या के स्क्रीनस्पेस का विश्लेषण करने पर ऐसा लगता है कि निर्देशक को अपनी कहानी के बजाय सूर्या की स्टार छवि पर भरोसा अधिक है। हालांकि, यह सवाल भी सामने आता है कि चूंकि चंद्रू ही कहानी के प्रोटेगनिस्ट हैं तब ऐसा करना ग़लत कैसे है? इसका जवाब भी निर्देशक के पूर्व उद्धरित इंटरव्यू में खोजा जा सकता है जहां उन्होंने बताया है कि जस्टिस चंद्रू ने उन्हें उन पर डॉक्यूमेंट्री बनाने से मना कर दिया था क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि एक व्यक्ति पर ही फ़ोकस किया जाए। डायरेक्टर ने इस सलाह को फिल्म बनाते हुए कितना ध्यान में रखा है यह संशय का विषय है क्योंकि यदि ऐसा होता तो फ़िल्म को इतना लाउड बनाने के बजाय शुरुआती आधे घंटे की ही तरह फ़िल्म सरल और मारक होती। अभी ऐसा लगता है कि निर्देशक के लिए सेंगनी की व्यथा के बजाय चंद्रू का हिरोइज़्म कहना ज्यादा प्राथमिकता है और इस प्रक्रिया में सेंगनी की कहानी एक माध्यम मात्र है।
फिल्म का कथानक बेहद मजबूत है जिसके कारण फिल्म का यह पहलू प्रभावी मालूम पड़ता है यदि फिल्म के हिंदी संस्करण को आधार मान लिया जाए तो फिल्म के संवाद बेहद औसत स्तर के हैं जो कुछ जगहों के अतिरिक्त उम्मीद के अनुसार प्रभाव नहीं छोड़ते हैं। यदि बात अभिनय की करें तो राजकन्नू का किरदार निभा रहे के मणिकंदन दर्शकों को प्रभावित करते ।हैं वहीं हमेशा की तरह प्रकाश राज और राव रमेश स्क्रीन में आते ही अपनी छाप छोड़ने लग जाते हैं। मोटे तौर पर यह फिल्म एक सामाजिक परिदृश्य को समझने के लिए देखी जा सकती है। चूंकि भारतीय जाति व्यवस्था इतनी सरल नहीं है इसलिए फिल्म में इसका अतिसरलीकरण कर दिया जाना कहीं न कहीं खलता है।
तस्वीर साभार : ट्विटर