गाँव के किसी भी भोज या काम-प्रयोजन में आज भी जूठे पत्तल उठाने के लिए एक दलित जाति को ही बुलाया जाता है। अगर गाँव में किसी का कोई जानवर (खासकर गाय या भैंस) मार जाए तो उसकी लाश उठाने के लिए शोषित जाति के ही लोग आते हैं। आज भी ईंट भट्ठों पर मज़दूरी का काम दलित जाति ही करती है और आप कहते हैं अब कहाँ जात-पात है? आपने भी कई बार यह सुना होगा कि अब जात-पात ख़त्म हो गया है और सब जगह समानता आ गई है। अगर आपको भी इस बात पर विश्वास है तो इसका मतलब है कि आपके पास कई विशेषाधिकार हैं।
मुझे याद है जब बचपन में गाँव में सवर्ण जाति की बस्ती में कोई काम-प्रयोजन होता या आम दिनों में भी उनके परिवार के लोग हम लोगों को देखते तो वे कभी भी हमें हमारे नाम से नहीं हमारी जाति से बुलाते। अगर गलती से भी हम लोग उनके पास बैठ जाए या हम लोगों का शरीर उनसे छू जाए तो वे कुत्ते की तरह हम लोगों को दुत्कारते। बचपन में ये सब ज़्यादा समझ नहीं आता था, लेकिन जैसे-जैसे बड़े होते गए ये जातिगत भेदभाव और शोषण समझ आने लगा और हम लोग अपनी बस्तियों में सिमटने लगे।
आप कहते हैं अब कहाँ जात-पात है? आपने भी कई बार यह सुना होगा कि अब जात-पात ख़त्म हो गया है और सब जगह समानता आ गई है। अगर आपको भी इस बात पर विश्वास है तो इसका मतलब है कि आपके पास कई विशेषाधिकार हैं।
जब भी हम लोगों के गाँव में बाहर से कोई आता है तो वे हम लोगों को बस्ती से बाहर निकलने और अन्य जाति के लोगों के साथ मिलने की सलाह देता है लेकिन बचपन से ही समाज में जातिगत भेदभाव की पीड़ा इतनी ज़्यादा रही है कि आज न चाहते हुए भी लोग अपने बच्चे को अपनी बस्ती में सिमटे रहने की सलाह देते हैं। भाषणों में यह कहने में तो बहुत अच्छा लगता है कि अब समाज में बराबरी आ गई है और कोई भेदभाव नहीं होता। लेकिन सच्चाई यही है कि गाँव में और शहरों में भी इसकी सूरत नहीं बदली है।
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गाँव में जाति के हिसाब से बांटे गए काम का बोझ आज भी नयी पीढ़ी भुगत रही है। अगर किसी दलित जाति का इंसान पढ़-लिख भी ले तो उसे समाज में वह स्थान और सम्मान नहीं मिल पता जो सवर्ण जाति को मिलता है। आज भी हम लोगों के गाँव की पूरी व्यवस्था यानी कि किस जगह पर किन लोगों का घर होगा, ये सब जाति के आधार पर ही है। शहरों में तो मुहल्ले या कॉलोनी का नाम होता है, लेकिन गाँव में आज भी बस्तियां वहां रहनेवाले लोगों की जाति से ही जानी जाती हैं।
मेरी इन बातों से हो सकता है अब आप ये कहें कि जातिगत भेदभाव की समस्या सिर्फ़ गाँव में है। तो आपको बताऊं कि यह आपका सिर्फ़ वहम है। अगर यक़ीन नहीं होता तो शनिवार या शुक्रवार को अख़बार में वैवाहिक विज्ञापन का पेज देखिए, वहां सारे कॉलम जाति के नाम से बने होते हैं। वहां शिक्षित, सुशील और सुंदर जैसे तमाम गुण की मांग तो होती ही है, पर इन सबमें सबसे ऊपर लिखी होती है जाति। इसका मतलब साफ़ है कि अगर अमूक जाति के लड़के के लिए दुल्हन की तलाश है तो वह सुंदर, सुशील और पढ़ी-लिखी होने के साथ-साथ उस अमूक जाति की होनी ज़रूरी है, नहीं तो उसकी सुंदरता और शिक्षा किसी काम की नहीं है।
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हमारे गाँव में जाति के हिसाब से बांटे गए काम का बोझ आज भी नयी पीढ़ी भुगत रही है। अगर किसी दलित जाति का इंसान पढ़-लिख भी ले तो उसे समाज में वह स्थान और सम्मान नहीं मिल पता जो सवर्ण जाति को मिलता है।
अपने समाज में जाति व्यवस्था सदियों से चली आ रही है और हर दिन ये अपनी जड़ें गहरी करती जा रही है। अगर ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो आज भी वंचित तबके का विकास अभी भी इस जातिगत भेदभाव की वजह से बाधित होता है। सरकारें कई शहरों, रेलवे स्टेशनों और प्रसिद्ध जगहों के नाम बदल रही है लेकिन गाँव में अभी भी जाति के नाम से जाने जानी वाली इन बस्तियों के नाम कब बदलेंगें ये बता पाना बहुत मुश्किल है। साथ ही यह भी कह पाना मुश्किल है कि जातिगत भेदभाव अब ख़त्म हो गया है।
किसी किताब में मैंने डॉ. बीआर आंबेडकर की जाति व्यवस्था पर लिखी एक बात पढ़ी थी, जिसमें उन्होंने लिखा था कि जाति समस्या- सैद्धांतिक और व्यावहारिक तौर पर एक विकराल मामला है। व्यावहारिक तौर पर देखें तो वह एक ऐसी संस्था है जो प्रचंड परिणामों का संकेत देती है। वह एक स्थानीय समस्या है, लेकिन एक ऐसी समस्या जो बड़ी क्षति को जन्म दे सकती है। जब तक भारत में जाति अस्तित्व में है, हिंदुओं के लिए यह संभव नहीं होगा कि वह अंतरजातीय विवाह करें या बाहरी लोगों के साथ सामाजिक अंतर्क्रिया बढ़ाएं। अगर हिंदू पृथ्वी के दूसरे हिस्सों में पहुंचते हैं, तो फिर भारतीय जाति विश्व समस्या बनेगी।
आज आधुनिक समय में जब हम एक तरफ़ तो विकास की बातें कर रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ़ जातिगत भेदभाव और हिंसा को देखते हैं तो बीआर आंबेडकर की कही यह बात एकदम सही मालूम पड़ती है। हम आज हर दिशा में बदलाव की तरफ़ कदम बढ़ा रहे हैं, लेकिन कुछ जटिल शोषणकारी व्यवस्थाएं जिनके बदलाव की दिशा में हम आज भी कोई ठोस कदम नहीं उठा पाए, जो अपने समाज के लिए दुर्भाग्य की बात है और इन्हीं व्यवस्थाओं में से एक है ‘जाति की व्यवस्था।’
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तस्वीर साभार : Newsclick