दुनियाभर में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा व्यापक रूप से व्याप्त है और यह मानवाधिकार उल्लंघन के सबसे भयानक रूपों में से एक है। लैंगिक असमानता, शर्मिंदगी और समाज द्वारा मिलने वाली सज़ा के प्रति भय के कारण अक्सर ऐसे मामलों का पता भी नहीं चल पाता है, जो एक बड़ी चुनौती है। महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा एक बहुआयामी मुद्दा है जिसके कई पहलू हैं। इसमें घरेलू हिंसा महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा का एक जटिल और घिनौना स्वरूप हैl “केवल एक थप्पड़, लेकिन नहीं मार सकता,” यह वाक्य किसी फिल्म का मात्र एक डायलॉग ही नहीं बल्कि यह बताता है कि महिलाओं की स्थिति क्या है। घरेलू हिंसा दुनिया के लगभग हर समाज में मौजूद है।
हद तो यह है कि महिलाएं पब्लिक प्लेस से ज्यादा अपने घर की चारदीवारी में असुरक्षित हैं। कोरोना महामारी के बाद ये असुरक्षा और बढ़ी हैं। यूएन वीमन की एक नई रिपोर्ट से पता चलता है कि हर चार में से एक महिला, घर पर पहले से कम सुरक्षित महसूस कर रही है। महिलाओं के साथ होनेवाली हिंसा का मामला इतना गंभीर हो चुका है कि संयुक्त राष्ट्र के शीर्ष अधिकारियों ने लिंग-आधारित हिंसा को एक वैश्विक संकट क़रार दिया है। दुनियाभर में हर रोज़ 137 महिलाएं अपने क़रीबी साथी या परिवार के सदस्य द्वारा मारी जाती हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रकाशित अनुमानों से संकेत मिलता है कि दुनिया की 70 फ़ीसद महिलाओं ने अपने क़रीबी साथियों के हाथों हिंसक बर्ताव झेला है। फिर चाहे वह शारीरिक हो या यौन हिंसा। इतनी गंभीर स्थिति होने के बावजूद हर चार में से एक देश में घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ प्रभावी कानून नहीं है। जिन देशों में घरेलू हिंसा के विरूद्ध कानून मौजूद हैं, वहां वयस्क महिलाओं की मृत्यु दर 32 फ़ीसद कम है।
महिलाओं के साथ शारीरिक और यौन हिंसा तो लगभग हर समाज की एक सच्चाई है लेकिन भारत में जिस तरह इसे आमतौर पर समाज की स्वीकृति प्राप्त है, वह परेशान करता है। भारतीय समाज में जहां एक तरफ महिलाएं सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं, वहीं दूसरी तरफ जघन्य हिंसा और अपराध का सामना कर रही हैं। भारत में महिलाओं के साथ हिंसा की शुरुआत उनके जन्म से पहले ही शुरू हो जाती है। यहां लड़कियों के मुकाबले लड़कों को ज़्यादा महत्व दिया जाता है और लिंग चयन आधारित भ्रूण हत्या को अंजाम दिया जाता है। अगर लड़की पैदा भी हो जाए तो फिर स्तनपान, भोजन, देखभाल के स्तर पर भेदभाव का दौर शुरू होता है।
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लड़कियों को सिखाया जाता है कि शादी के बाद पति ही परमेश्वर है, पति की सेवा करना और उसकी इज्ज़त करना ही स्त्री धर्म है, उससे कभी भी ऊंची आवाज़ में बात नहीं करनी चाहिए, पति जो कहे उसे मान लेना चाहिए और जब कभी हाथ उठाए तो चुप रहना चाहिए क्योंकि घर की बात घर की चार दीवारी में ही रहे तो रिश्ते में संतुलन बना रहता है।
हिंसा सहने की ट्रेनिंग
किशोरावस्था से पहले ही कम बोलने, धीरे हंसने, लड़कों की तुलना में खेल और पढ़ाई से वंचित रहने की ट्रेनिंग दे दी जाती है। साथ ही घर के काम की ज़िम्मेदारी भी पकड़ा दी जाती है। इस दौरान बड़ी संख्या में लड़कियां यौन दुर्व्यवहार और जबरन बाल विवाह का सामना भी करती हैं। लड़कियों के शारीरिक विकास से घबराया पितृसत्तात्मक परिवार उन्हें शिक्षा और स्वयं के विकास के अवसरों से वंचित कर देता है। अगर इस उम्र में प्रेम या आकर्षण हो जाए तब तो परिवार के सम्मान के नाम पर हत्या ही कर दी जाती है।
अगर भारत में लड़की जबरन बाल विवाह का सामना किए बिना वयस्क माने जाने वाले उम्र तक पहुंच गई, तो इसे चमत्कार ही समझिए। अगर लड़की बाल विवाह से बच भी गई तो ‘अरेंज्ड मैरेज’ नाम की संस्था का शिकार हो जाती है। फिर लड़कियों को सिखाया जाता है कि शादी के बाद पति ही परमेश्वर है, पति की सेवा करना और उसकी इज्ज़त करना ही स्त्री धर्म है, उससे कभी भी ऊंची आवाज़ में बात नहीं करनी चाहिए, पति जो कहे उसे मान लेना चाहिए और जब कभी हाथ उठाए तो चुप रहना चाहिए क्योंकि घर की बात घर की चार दीवारी में ही रहे तो रिश्ते में संतुलन बना रहता है। अक्सर लोगों को यह सलाह देते हुए भी सुना है, “वो मारता है तो क्या हुआ, प्यार भी तो करता है” थोड़ा तो एडजस्ट तुम्हें भी करना होगा। समझौता और बर्दाश्त करना ही एक औरत की जिंदगी और औरत की परिभाषा गढ़ दी गई है।
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क्यों होती है महिलाओं के साथ इतनी हिंसा?
पितृसतात्मक समाज : जिस समाज में पुरुष की प्रधानता होती है उसमें स्त्री अपने सभी रुपों में पुरुषों के अधीन रहती हैं। पुरुष अपनी श्रेष्ठता और शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए स्त्री पर कई अत्याचार करता है क्योंकि पुरुष को शक्ति का प्रतीक माना जाता हैं। पुरुषों की प्रधानता न केवल भारतीय समाज में बल्कि विश्व के लगभग सभी देशों में पाई जाती है जिसका दुरुपयोग करके पुरुष महिलाओं पर अत्याचार करते हैं और महिला हिंसा का प्रमुख कारण बनते हैं।
महिलाओं की निर्भरता : भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में लड़की पैदाइशी गुलाम होती है। हां, बदलते उम्र के साथ-साथ इन गुलामों के मालिक जरूर बदलते रहते हैं। बचपन में बाप और भाई मालिक होते हैं। वयस्क होने पर पति मालिक होता है। वृद्धावस्था में बेटा मालिक होता है। कुल मिलाकर बात यह है कि स्त्रियों को जन्म से ही पुरुषों पर निर्भर रखा जाता है। ये एक चाल है। गुलामी बरकरार रखने की चाल। अगर महिलाएं अपनी तमाम जरूरतों के लिए आत्मनिर्भर हो जाएं तो पितृसत्ता की मोटी दीवार में सेंध पड़ जाएगी। महिलाओं की दयनीय दशा का एक प्रमुख कारण उनका आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न होना भी है।
सामाजिक कुप्रथाएं : हमारे समाज में अनेक ऐसी प्रथाएं प्रचलित हैं जिनकी वजह से महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को प्रोत्साहन मिलता हैं। इन कुप्रथाओं में विधवा पुनर्विवाह पर रोक, बाल विवाह, भ्रूण हत्या, लैंगिक भेदभाव आदि हैं। इन सभी कुप्रथाओं का सामना सिर्फ और सिर्फ महिलाएं ही करती हैं।
शिक्षा से वंचित : लिंग के आधार पर कार्य का विभाजन कर महिलाओं को घर के काम तक सीमित किए बिना पितृसत्तात्मक समाज का चलना दूभर हो जाएगा। इस दौरान उन्हें शिक्षा से वंचित करने का अवसर भी प्राप्त हो जाता है। भारत सरकार का आंकड़ा है कि हर 100 में 17 लड़कियां दसवीं से पहले ही पढ़ाई छोड़ देती हैं। अलग-अलग बोर्ड परीक्षाओं और प्रतियोगी परीक्षाओं में लड़कियां टॉप करती तो दिखती हैं लेकिन देश की औपचारिक श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी लगातार घट रही है। विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक भारत में महिला श्रम शक्ति की भागीदारी दर (एफएलपीआर) 1990 में 30.27 फ़ीसदी से घटकर 2019 में 20.8 प्रतिशत रह गया है। मामला सिर्फ आर्थिक रूप से पिछड़ने का भी नहीं है। मामला है शिक्षा के अभाव में अपने तमाम अधिकारों से वंचित हो जाने का और इसी का फायदा उठाकर होती है तरह-तरह की हिंसा। ये वे प्रमुख बिंदु हैं जिससे पुरुषों को लगता हैं महिलाओं पर हिंसा करना उनका जन्मसिद्द अधिकार है और इसके लिए पुरुषों को ज़िम्मेदार तक नहीं ठहराया जाता है।
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