समाज ‘एक बेटा तो होना ही चाहिए’, भारतीय समाज में ‘बेटा’ होना क्यों इतना ज़रूरी है

‘एक बेटा तो होना ही चाहिए’, भारतीय समाज में ‘बेटा’ होना क्यों इतना ज़रूरी है

बहुत सी महिलाएं हैं जिन्हें संतान में लड़का न होने की वजह से कई किस्म के दबाव और तनाव का सामना करना पड़ता है। वक्त-बेवक्त बेटा न होने पर सलाह सुननी पड़ती है और दया का पात्र बना दिया जाता है। आखिर क्यों भारतीय समाज में एक बेटा होना इतना जरूरी है?

“एक बेटा तो होना ही चाहिए, बेटियों क्या ये अपने घर चली जाएंगी, घर का वारिस होना भी तो बहुत जरूरी होता है, बुढ़ापे में तुम लोगों का सहारा कौन बनेगा, और वैसे बेटे के लिए एक बार ट्राई कर लेना चाहिए अभी उम्र है तुम्हारी।” ये बातें वंदना मित्तल (बदला हुआ नाम) अपनी शादी के बीस साल बाद भी लगातार सुनती आ रही हैं। इसकी वजह यह है कि उनकी दो बेटियां हैं। वंदना को इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके बेटा नहीं है लेकिन उनके परिवार, रिश्तेदार और समाज को इस बात की बहुत चिंता है। समय-समय पर उनके घर और बाहर वाले बेटा न होने का ज़िक्र ला देते हैं। वंदना जैसा अनुभव करने वाली बहुत सी महिलाएं हैं जिन्हें संतान में लड़का न होने की वजह से कई किस्म के दबाव और तनाव का सामना करना पड़ता है। वक्त-बेवक्त बेटा न होने पर सलाह सुननी पड़ती है और दया का पात्र बना दिया जाता है। आखिर क्यों भारतीय समाज में एक बेटा होना इतना जरूरी है?

हम उस समाज में रह रहे हैं जहां बेटा होना जरूरी बना दिया गया है। भावनात्मक, धार्मिक, पितृसत्तात्मक और आर्थिक कारणों के अनुसार लड़के को ही संतान का असली दर्जा दिया जाता है। भविष्य के रूप में भी केवल लड़के को ही देखा जाता है। लड़कियों का भविष्य शादी करके दूसरे घर जाने तक सीमित कर दिया जाता है।आज के आधुनिक समय में भी इस बात को नकारा नहीं जा सकता है। तमाम सामाजिक परिस्थितियां और आंकड़ें इस बात को दिखाते हैं कि हमारे समाज में लड़के का संतान के रूप में होना ही परिवार का पूरा होना माना जाता है।

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बहुत सी महिलाएं हैं जिन्हें संतान में लड़का न होने की वजह से कई किस्म के दबाव और तनाव का सामना करना पड़ता है। वक्त-बेवक्त बेटा न होने पर सलाह सुननी पड़ती है और दया का पात्र बना दिया जाता है। आखिर क्यों भारतीय समाज में एक बेटा होना इतना जरूरी है?

लड़का मतलब परिवार का ‘नाम

भारतीय पितृसत्तात्मक व्यवस्था में ‘नाम और मान’ का केंद्र पुरुषों को माना जाता है। परिवार को आगे नाम देने का काम पुरुष का होता है। ऐसे में बेटे को ही वारिस माना जाता है। बेटियां तो पराया धन होती हैं और उनका अपना घर ससुराल होता है। यदि परिवार और खानदान का नाम, वंश बढ़ाना है तो संतान के रूप में बेटा होना बहुत आवश्यक है। बेटे को अहमियत देने का एक प्रमुख कारण परिवार की मान व प्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया है। इस बात पर वंदना मित्तल का कहना है, “मुझे बार-बार यह बात सुननी पड़ती है कि बेटियों तो शादी के बाद अपने घर चली जाएगी। तुम्हारा वंश तो यहीं खत्म हो जाएगा। परिवार का नाम आगे बढ़ाने के लिए एक संतान के रूप में बेटा होने की आवश्यकता को बार-बार इस तरह से सामने लाया जाता है।”     

पुरुषों का सत्ता का केंद्र होना

समाज में लड़का और लड़की में से लड़के को वरीयता देना का एक बड़ा कारण ‘सत्ता’ है। भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष ही इस सत्ता का केंद्र होता है। आर्थिक रूप से सारी बागडोर पुरुषों के संभालने के कारण उनको ही मजबूत माना जाता है। पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिली जमीन-जायदाद पर केवल लड़के का हक होना इसका एक प्रमुख कारण है। बेटे को परिवार का वंश कहना इसी रीति को आगे बढ़ाना है जहां वसीयत का हकदार केवल लड़का होता है।

इससे अलग लड़कियों को एक आर्थिक बोझ समझा जाता है। दहेज व्यवस्था जैसी कुप्रथा के कारण उन्हें वसीयत घटने वाला समझा जाता है। यदि किसी परिवार में बेटा नहीं है तो बेटियों को यह हक मिलना एक गलत परंपरा के तौर पर देखी जाती है। बेटियों के साथ संपत्ति का बंटवारा से आशय खानदान के नाम व ताकत को कम करना कहा जाता है।  

भारतीय पितृसत्तात्मक व्यवस्था में ‘नाम और मान’ का केंद्र पुरुषों को माना जाता है। परिवार को आगे नाम देने का काम पुरुष का होता है। ऐसे में बेटे को ही वारिस माना जाता है। बेटियां तो पराया धन होती हैं और उनका अपना घर ससुराल होता है। यदि परिवार और खानदान का नाम, वंश बढ़ाना है तो संतान के रूप में बेटा होना बहुत आवश्यक है।

धार्मिक और रीति-रिवाज़

भारतीय समाज में बेटे को महत्व देने के लिए अनेक धार्मिक रीति-रिवाज़ देखने को मिलते हैं। इन रस्मों और मान्यताओं में बेटे के महत्व की कहानी सुनाई जाती है। यही नहीं हिंदू धर्म की मान्याताओं के अनुसार मुक्ति प्राप्त करने के लिए पुत्र प्राप्ति को एक साधन तक कहा गया है। यानी यदि किसी के बेटा नहीं है तो उन्हें मोक्ष नहीं मिलेगा। अधिकांश रीति-रिवाज परिवार के पुरुष सदस्यों द्वारा किए जाते हैं जिनमें बेटियों को शामिल नहीं किया जाता है। इन्हीं रिवाजों पर आगे बढ़ता समाज पीढ़ी दर पीढ़ी लड़कियों को अनदेखा और पराया मानता आ रहा है। धार्मिक रिवाज में बहन और भाई के रिश्ते में भी उन बहनों को नसीब वाला कहा जाता है जिनके भाई होता है। रक्षाबंधन, भैय्यादूज जैसे त्यौहारों के रूप में बहनों के लिए भाई होना बहुत ज्यादा ज़रूरी बताया गया है। यही नहीं अंतिम संस्कार की विधि के लिए भी बेटों को योग्य माना जाता है। 

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भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था

भारतीय समाज में जिम्मेदारी और ‘मुखिया’ के रूप में पुरुष को ही देखा जाता है। काम के बंटवारे, सुरक्षा के नियम के पैमानों के आधार पर बेटियों के साथ भेदभाव किया जाता है। आज भी ज्यादातर घर से बाहर के कामों को पुरुष का काम माना जाता है। इन सब कामों को करने के लिए घर में एक बेटा होना बहुत ज़रूरी माना जाता है। इससे अलग समाज में लड़कियों के खिलाफ होने वाले अपराध के कारण उनकी सुरक्षा को एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी माना जाता है। जिस वजह से बेटियों की शादी कर उसे दूसरे घर भेजना ही उपाय माना जाता है।

वंदना मित्तल घर से बाहर जाकर काम करने को लेकर कहती हैं कि वह अपनी दोनों बेटियों को घर और बाहर दोनों जगह के काम करने सिखा रहे हैं। हमने समय के साथ उन्हें चीजों की सीख दी है। बड़ी बेटी स्कूटी चलाती है। इसका यह कारण नहीं है कि बाहर उनके साथ जाने के लिए भाई नहीं है बल्कि यह समय की ज़रूरत और उनका हर चीज के लिए सक्षम होने से जुड़ा है।  

पितृसत्ता की व्यवस्था कायम रखने के लिए कई सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक कारण बनाए गए हैं। हकों का बंटवारा करके बेटे और बेटियों के बीच असमानता बनाई गई है। इन सब वजहों से समाज में लैंगिक भेदभाव बढ़ा है। बेटों की चाहत के कारण भ्रूण हत्या होने का चलन बढ़ा है। बेटियां हो जाने के कारण उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है। लड़कियों को एक दायित्व की तहर पाला जाता है जिसको पूरा करने का पैमाना उसकी शादी मानी जाती है। खानदान और समाज में बेटे की चाहत के कारण महिलाएं दबाव का सामना करती हैं। इसका बुरा असर उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। भ्रूण का बेटा या बेटी तय होने की जैविक क्रिया में भले ही पुरुष पर निर्भर करता हो लेकिन समाज में लड़की होने का दोष सिर्फ महिलाओं को ही दिया जाता है। बेटी जन्म ने के कारण महिलाओं को हिंसा तक का सामना करना पड़ता है। बेटे और बेटी की चाहत और उनमें अंतर एक रूढ़िवादी सोच है जिसे ब्राह्मणवादी परंपराओं के नाम पर सदियों से अपनाया जा रहा है। आज के दौर में इस अंतर को खत्म करने की आवश्यकता है ना कि इसे रीति मानकर अपनाने की। 

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तस्वीर : श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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