इंटरसेक्शनलजेंडर वंदना टेटेः एक लेखिका, कवयित्री और प्रकाशक

वंदना टेटेः एक लेखिका, कवयित्री और प्रकाशक

“आदिवासी समुदाय के बाहर के लोगों का आदिवासियों पर रिसर्च करके लिखना शोध-साहित्य हो सकता है आदिवासी साहित्य नहीं। आदिवासियत को नहीं समझने वाले हिंदी-अंग्रेजी के लेखक आदिवासी साहित्य लिख भी नहीं सकते।” आदिवासी समुदाय की लेखिका, कवयित्री, प्रकाशक, आदिवासी दर्शन की पैरोकार और कार्यकर्ता वंदना टेटे का यह मानना है। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से आदिवासी जीवन के सामुदायिक पहलुओं और वहां की खूबसूरती को बहुत दूर तक पहुंचाया है। समूचे देश के बड़े-बड़े कार्यक्रमों और काव्यगोष्ठी में आदिवासी विमर्श के मुद्दे उठाकर उन्होंने आदिवासी विमर्श को एक नया आयाम दिया है।

आदिवासी संस्कृति, कला और जीवनशैली को देखते हुए वंदना कहती हैं कि आदिवासी साहित्य प्रतिरोध या तिरस्कार का साहित्य नहीं है बल्कि उसके ठीक उलट बचाव और रखाव का साहित्य है। वह अपने कथन और लेखन के माध्यम से आदिवासी समाज का सौंदर्य और उसकी एकता को ऊपर लाना चाहती हैं। वंदना टेटे का जन्म 13 सितंबर 1969 में झारखंड के सिमडेगा में हुआ था। उनके पिता का नाम सुरेशचंद्र टेटे था। उनकी माँ रोज केरकेट्टा आदिवासी भाषा खड़िया और हिंदी की जानी-मानी लेखिका, शिक्षाविद् और आंदोलनकारी रही हैं।

और पढ़ें: ख़ास बात: निम्न मध्यवर्गीय-गँवई औरतों को कविताओं में पिरोती कवयित्री रूपम मिश्र से

वंदना की प्रारंभिक शिक्षा सिमडेगा से हुई। इसके बाद दसवीं तक की पढ़ाई गुमला के में की। उन्होनें ग्रैजुएशन की डिग्री रांची विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी। तब उनका विषय साइकॉलजी था। पोस्ट ग्रैजुएशन के लिए उन्होंने सोशियोलॉजी का चुनाव किया। वंदना के जीवन के शुरूआती दिन बहुत ही अस्थायी रहे। उनकी माँ को आजीविका के लिए बहुत जल्दी-जल्दी स्थान बदलना पड़ता था जिसके कारण उन्हें कई शहरों में रहना पड़ा। हालांकि, बाद में उनकी माँ रोज केरकेट्टा को स्थायी रूप से रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय भाषा विभाग में नौकरी मिली, जिससे उनका जीवन स्थिर हो गया।

आदिवासी संस्कृति, कला और जीवनशैली को देखते हुए वंदना कहती हैं कि आदिवासी साहित्य प्रतिरोध या तिरस्कार का साहित्य नहीं है बल्कि उसके ठीक उलट बचाव और रखाव का साहित्य है।

जब वह इंटर में पढ़ रही थीं उसी वक़्त उनके अंदर की लेखिका, कार्यकर्ता ने जन्म ले लिया था। गीत और कविताएं लिखने का कौशल उनके अंदर शुरू से ही था। हालांकि, अभिनय की ओर रुखट उन्होंने बाद में किया। आगे चलकर वह रांची के एक नाट्य समूह से जुड़ीं, जिसके साथ हिंदी, खड़िया और नागपुरी भाषा में उन्होंने कई नाटकों की प्रस्तुति दी। वह अपने नाटकों के ज़रिये महिलाओं और आदिवासियों से जुड़े गंभीर मुद्दों और सवालों को लेकर आई और रंगमंच पर उन सवालों को प्रस्तुत भी किया।

और पढ़ें: जसिंता केरकेट्टाः विकास के दंश, प्रेम और आशाओं को कविताओं में पिरोती एक कवयित्री

खड़िया समुदाय के वरिष्ठ कलाकारों के साथ उन्होंने एक संगीत दल बनाया। यह दल विभिन्न जगहों पर अपनी प्रस्तुति दिया करता था। आकाशवाणी रांची में भी उनको नियमित रूप से प्रस्तुति देने का मौका मिला। आज भी विशिष्ट आयोजनों में उनकी प्रस्तुति होती रहती है। इन सब के आलावा भी कई ऐसे क्षेत्र थे जिनमें वंदना टेटे बहुत सक्रिय रूप से योगदान देती रहीं। जैसे भाषा, संस्कृति, पत्रकारिता और साहित्य इत्यादि। झारखंड में वहां की भाषा और साहित्य को नकारे जाने के कारण भाषा प्रेमियों और ज्ञाताओं ने ‘झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखाड़ा’ की स्थापना की, जिसकी संस्थापक महासचिव के रूप में वंदना टेटे को चुना गया।

इसके माध्यम से झारखंड की भाषों को नज़रअंदाज़ किए जाने वाले गंभीर मुद्दों को उठाया गया। इसके लिए तरह-तरह के आयोजन और रैलियां निकाली गईं जिससे आम लोगों का ध्यान यहां तक पहुंच पाए। उन्होंने अपने संगठन को बहुत ही सटीक ढंग से चलाया जिसके परिणाम स्वरूप कई बदलाव देखने को मिले।

उन्होंने कई पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। जिसमें ‘समकालीन ताना-बाना’ स्त्री विमर्श की पत्रिका, ‘पतंग’ नाम की बाल पत्रिका थी। ‘झारखंड की भाषा साहित्य संस्कृति अखाड़ा’ झारखंड की पहली बहुत सी भाषाओं वाली तिमाही पत्रिका थी। उन्होनें अपनी मातृभाषा खड़िया में ‘सोरिनानिड’ नाम की एक एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया।

और पढ़ें: दंसारी अनुसूया उर्फ़ सिथाक्का : आदिवासी महिला नेतृत्व की एक सशक्त मिसाल

जिस समय वंदना टेटे ने कविताएं लिखना शुरू किया था उस समय ‘आदिवासी’ नाम की एक पत्रिका थी जिसमें आदिवासी साहित्यकारों की रचना छपती थी। इसको बदलने और इसमें सुधार लाने के लिए वंदना टेटे ने अपने नाना ‘प्यारा केरकेट्टा’ के नाम पर एक आदिवासी प्रकाशन संस्थान की स्थापना की। इसके उन्होंने तहत वह आदिवासी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन और आदिवासी साहित्यकारों को एक मंच देने का काम किया।

वंदना टेटे ने कई पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। जिसमें ‘समकालीन ताना-बाना’ स्त्री विमर्श की पत्रिका, ‘पतंग’ नाम की बाल पत्रिका थी। ‘झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखाड़ा’ झारखंड की पहली बहुत सी भाषाओं वाली तिमाही पत्रिका थी। उन्होनें अपनी मातृभाषा खड़िया में ‘सोरिनानिड’ नाम की एक एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। साल 2006 में उनके द्वारा प्रकशित की गई रंगीन मासिक ‘जोहर सहिया’ प्रकाशन के तीसरे महीने ही 12000 प्रतियों के साथ झारखंड से अंडमान तक के तमाम आदिवासी समुदायों की पसंदीदा बन गई।

वंदना टेटे की कई किताबें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें से ‘पुरखा लड़ाके’(2005), ‘किसका राज है’ (2009), ‘झारखंड एक अंतहीन समरगाथा (2010), ‘पुरखा झारखंडी साहित्यकार और नये साक्षात्कार’ (2012), ‘आदिम राग’( 2013), ‘आदिवासी साहित्यः परंपरा और प्रयोजन’ (2013), ‘आदिवासी दर्शन कथाएं’ (2014), ‘कोनजोगा’ (2015), ‘वाचिकता: आदिवासी साहित्य एवं सौंदर्यबोध'( 2016), ‘लोकप्रिय आदिवासी कहानियां'( 2016), ‘लोकप्रिय आदिवासी कविताएं’ (2016) इत्यादि मुख्य हैं। उन्हें राज्य सरकार की ओर से आदिवासी पत्रकारिता के लिए झारखंड सरकार का राज्य सम्मान (2012) में मिला। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की ओर से 2013 में सीनियर फेलोशिप भी प्रदान की गयी।

आदिवासी समुदाय और संस्कृति की ओर किया गया वंदना टेटे प्रयास न सिर्फ सराहनीय है बल्कि आदिवासी समुदाय में आ रहे बदलावों की ओर मील का पत्थर है। उनके अथक प्रयास की वजह से जो भी बदलाव आए हैं उन्हें बहुत ही आसानी से देखा जा सकता है।

और पढ़ें: पद्मश्री पूर्णमासी जानी : बिना पढ़ाई किए जिन्होंने की हज़ारों कविताओं और गीतों की रचना


तस्वीर साभारः कविता कोष

स्रोत:

Forward Press
Wikipedia

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content