इतिहास भिखारी ठाकुर के नाटकों में स्त्रियां

भिखारी ठाकुर के नाटकों में स्त्रियां

भिखारी ठाकुर ने यूं तो अपने नाटक में बहुत से मुद्दे उठाये मगर सबसे ज्यादा उन्होंने महिलाओं की समस्याओं के बारे में लिखा। उनके लेखन और प्रस्तुति का 80 प्रतिशत हिस्सा साफतौर पर महिलाओं के लिए ही है।

जिस दौर में स्त्री विमर्श शब्द उतना प्रचलित भी नहीं हुआ था नब्बे के उस दशक में भिखारी ठाकुर ने अपनी रचनाओं, नाटकों और तमाम प्रसंगों में लगभग 80 प्रतिशत महिलाओं के मुद्दों और उनकी समस्याओं को लिखकर अपने आप में नारीवादी पुरुष का एक सशक्त उदाहरण बनें। उनका जन्म बिहार के सारण जिला के कुतुबपुर दियारा गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम दल सिंगार ठाकुर और माता का नाम शिवकली देवी था। वह नाई जाति से आते थे। उनका पूरा परिवार जजमानी प्रथा के अंदर काम करता था। जजमानी प्रथा में काम करनेवालों को नगद आमदनी नहीं होती है। उनका मुख्य कार्य हज़ामत बनाना, शादी-विवाह, जन्म-मृत्यु वगैरह में कार्यक्रम और आयोजनों में होता है। इन आयोजनों में उनके किए गए काम के एवज में उन्हें अनाज या ऐसे ही कुछ अन्य चीज़ें मिलती हैं।

भिखारी ठाकुर के जीवन का शुरुआती समय बेहद मुश्किल और दुख भरा रहा। उन्होंने नौ वर्ष की आयु में स्कूल में दाखिला लिया। लगातार एक साल तक वहां जाते रहने पर भी उन्हें अक्षर का ज्ञान नहीं हो पाया। अंत में उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया और वह चरवाहे काम काम करने लगे। बाद में उन्हें यह काम करने में आनंद आने लगा। इसे करते हुए ही उनकी नाच-गाने में रुचि हो गई। वे चरवाहों के साथ गाते थे। आगे जाकर जब उन्होंने अक्षर ज्ञान सीखना चाहा। तब बनिया जाति के भगवान साह नाम के एक व्यक्ति ने उन्हें पढ़ाया जिससे उन्हें अक्षर ज्ञान प्राप्त हुआ।

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भिखारी ठाकुर ने जीविकोपार्जन के लिए गाँव से कलकत्ता का रुख किया। वह कलकत्ता की विभिन्न जगहों पर गए ,वहां बाकि अन्य मजदूरों के साथ रहे। वहां वह सड़क के किनारे ईंट पर हज़ामत बनाकर अपनी जीविका चलाते थे। कलकत्ता में उन्होंने जब रामलीला देखी तो उनकी नाटक विधा में रूचि जगी। जब वह अपने गाँव लौटे तब उन्होंने गीत और कविताएं सुननी शुरू की और एक समय के बाद खुद भी लिखना शुरू कर दिया। शुरुआत में भिखारी ठाकुर ने भी रामलीला में हिस्सा लिया मगर बाद में अपना रुख बदल लिया।वजह यह थी कि रामलीला सालभर चलने वाला कार्यक्रम नहीं है। दूसरा, भिखारी ठाकुर बहुत रचनात्मक थे और रामलीला में उनकी रचनात्मकता को प्रस्तुत करने के ज्यादा मौके नहीं थे।

उन्होंने नौ वर्ष की आयु में स्कूल में दाखिला लिया। लगातार एक साल तक वहां जाते रहने पर भी उन्हें अक्षर का ज्ञान नहीं हो पाया। अंत में उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया और वे चरवाही करने लगे। बाद में उन्हें चरवाही करने में आनंद आने लगा। चरवाही करते हुए ही उनकी नाच-गाने में रूचि हो गयी।

उन्होंने 30 वर्ष की उम्र में अपनी खुद की एक नृत्य मण्डली बनाई। अपने लिखे प्रसंगों पर वह नाच करने लगे। उनके घरवाले नाच के बिलकुल खिलाफ थे मगर फिर भी वह छिप-छिपकर जाते और अपनी कला के माध्यम से पैसे भी कमाते थे। भिखारी ठाकुर ने रंगकर्मी के रूप में जीवन 1917 से शुरू किया। उन्होंने समाज की वास्तविकता और उसमें फैली कुरीतियों को ध्यान में रखकर कई नाटकों और प्रसंगों की रचना की। जिनमें  बिदेसिया, बेटी बियोग या बेटी बेचवा, भाई-बिरोध, बिधवा-बिलाप, पिया निसाईल, गबरघिचोर, पुत्रवध, राधेश्याम बहार, गंगा स्नान, ननद-भउजाई, नकल भांड आ नेटुआ के, बिरहा-बहार जैसे नाटक थे। भिखारी ठाकुर की मातृभाषा भोजपुरी थी। उन्होंने भोजपुरी में ही काव्य और नाटक का सृजन किया।

वैसे तो उनके सभी नाटक बहुत ही प्रचलित हुए हैं मगर ‘बिदेशिया, बेटी बेचवा और गबरघीचोर’ को विशेष रूप से पसंद किया गया। अपने नाटकों में भिखारी ठाकुर ने समाज की दशा के साथ अपनी वेदना भी लिखी है। उनके नाटक बिदेशिया को अगर देखें तो उसमें विस्थापन की समस्या, पीछे छूट गयी पत्नी का दुख सब सटीक और मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

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भिखारी ठाकुर के बिदेसिया नाटक के गीत का अंशः

आवेला आसाढ़ मास, लागेला अधिक आस,

बरखा में पिया रहितन पासवा बटोहिया।

पिया अइतन बुनिया में, राखि लिहतन दुनिया में,

अखरेला अधिका सवनवाँ बटोहिया।

आई जब मास भादों, सभे खेली दही-कादो,

कृस्न के जनम बीती असहीं बटोहिया।

आसिन महीनवा के, कड़ा घाम दिनवाँ के,

लूकवा समानवाँ बुझाला हो बटोहिया।

कातिक के मासवा में, पियऊ का फाँसवा में,

हाड़ में से रसवा चुअत बा बटोहिया।

अगहन-पूस मासे, दुख कहीं केकरा से?

बनवा सरिस बा भवनवाँ बटोहिया।

मास आई बाघवा, कंपावे लागी माघवा,

त हाड़वा में जाड़वा समाई हो बटोहिया।

पलंग बा सूनवाँ, का कइली अयगुनवाँ से,

भारी ह महिनवाँ फगुनवाँ बटोहिया।

बिदेसिया में भिखारी ठाकुर ने शहर छोड़ने के बाद उत्पन्न हुई तमाम समस्याओं को चित्रित किया। साथ ही साथ शहर के बाहर जाने के बाद पुरुष के दूसरी औरत के साथ के संबंध के बारे में भी लिखा। किस तरह एक पुरुष अपनी पत्नी को गाँव में छोड़कर बेहद सहजता के साथ दूसरी स्त्री से सम्बन्ध बना लेता है। इतना ही नहीं आखिर में पत्नी दूसरी औरत को स्वीकार कर घर में जगह भी देती है और तीनों खुशी से रहते हैं।

वहीं, दूसरी ओर गबरघिचोर में इसके ठीक उलट पति जब कमाने जाने के कई साल बाद तक पत्नी की खोज ख़बर नहीं लेता है तो उस स्थिति में जब औरत का एक अन्य पुरुष के साथ संबंध स्थापित होता है तब वह इस बात को स्वीकार करने को राज़ी नहीं होता। किस तरह एक पुरुष का अहम सदा ऊपर रहता है ये बात उनके नाटक में साफ रूप से नज़र आती है। इसके अलावा भिखारी ठाकुर के इस नाटक ने एक और मुद्दे को उठाया है। जो है स्त्री का अपनी कोख पर अधिकार। स्त्री का अपनी कोख और अपने बच्चे पर अधिकार की बात सबसे पहले भिखारी ठाकुर ने ही रखी थी।

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भिखारी ठाकुर का नाटक बेटी बेचवा उनके सबसे प्रसिद्ध नाटकों में से एक है। उस समय ज़मींदारों को बेटी बेचने की जो प्रथा थी उसको उन्होंने बहुत ही सीधे और सपाट ढंग से चित्रित किया है। इसमें उन्होंने उन लड़कियों के दुखों का मंचन किया है जो 15 या 18 वर्ष की उम्र में बूढ़े जमींदारों को बेच दी जाती है। भिखारी ठाकुर ने अपने ‘बेटी बेचवा’ गीत में लड़कियों के दुःख को बहुत ही स्पष्ट रूप से लिखा है।

बेटी बेचवा नाटक से बेटी बिलाप गीत के कुछ अंश:

गिरिजा-कुमार!, कर दुखवा हमार पार;

ढर-ढर ढरकत बा लोर मोर हो बाबूजी।

पढल-गुनल भूलि गइल समदल भेंड़ा भइल

सउदा बेसाहे में ठगइल हो बाबूजी।

केइ अइसन जादू कइल, पागल तोहार मति भइल

नेटी काटि के बेटी भसिअवलऽ हो बाबूजी।

रोपेया गिनाई लिहल पगहा धराई दिहल

चेरिया के छेरिया बनवल हो बाबूजी।

साफ क के आंगन-गली, छीपा-लोटा जूठ मलिके;

बनि के रहलीं माई के टहलनी हो बाबूजी।

गोबर-करसी कइला से, पियहा-छुतिहर घइला से;

कवना करनियां में चुकली हों बाबूजी।

बर खोजे चलि गइल, माल लेके घर में धइल

दादा लेखा खोजल दुलहवा हो बाबूजी।

अइसन देखवल दुख, सपना भइल सुख

सोनवां में डलल सोहागावा हो बाबूजी।

बुढऊ से सादी भइल, सुख वो सोहाग गइल

घर पर हर चलववल हो बाबूजी।

भिखारी ठाकुर का नाटक बेटी बेचवा उनके सबसे प्रसिद्ध नाटकों में से एक है। उस समय ज़मींदारों को बेटी बेचने की जो प्रथा थी उसको उन्होंने बहुत ही सीधे और सपाट ढंग से चित्रित किया है। इसमें उन्होंने उन लड़कियों के दुखों का मंचन किया है जो 15 या 18 वर्ष की उम्र में बूढ़े जमींदारों को बेच दी जाती है।

इस गीत में एक लड़की अपने पिता से यह शिकायत कर रही है कि सबकी सारी बातें मानने और सारे काम सुघड़ ढंग से करने के बाद भी उससे ऐसी कौन सी गलती हुई जिसकी उसे इतनी बड़ी सजा मिली। वह अपने पिता को उसे बेचने के लिए कोस रही है। भिखारी ठाकुर ने बेटी बेचने की प्रथा व कम उम्र में लड़कियां ब्याही जाने की तमाम समस्याओं को मंच पर लेकर आये। उस समय के समाज में उन्होंने तमाम बातों को बहुत ही स्पष्ट और बेबाक तरीके से सबके सामने रखा।

भिखारी ठाकुर ने यूं तो अपने नाटक में बहुत से मुद्दे उठाये मगर सबसे ज्यादा उन्होंने महिलाओं की समस्याओं के बारे में लिखा। उनके लेखन और प्रस्तुति का 80 प्रतिशत हिस्सा साफतौर पर महिलाओं के लिए ही है। जिस दौर में नारीवाद और स्त्री विमर्श प्रचलित नहीं थे, जब महिलाओं की समस्याओं को समझने वाले लोगों की संख्या शायद ही कुछ रही हो उस दौर में न सिर्फ उन्होंने इस बात को समझा बल्कि उसको उजागर भी किया। उन्होंने अपने दौर में स्त्री हित के लिए जो काम किए वह उस समय के लिए तो बड़ी बात थी। साथ ही साथ आज के दौर के लिए भी बेहद प्रासंगिक है। अपने नाटकों और प्रसंगों के माध्यम से महिलाओं के पक्ष को सामने रखने वाले भिखारी ठाकुर सदा ही स्त्री विमर्श और नारीवाद के मुख्य अंग रहेंगे।

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तस्वीर साभारः Wikipedia

स्रोतः

अमर उजाला

The Lallantop

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