वैश्वीकरण के साथ, दुनिया ने नई इंटरकनेक्टिविटी देखी। इसी तरह भारत में, संरचनात्मक समायोजन के साथ, पूंजीवादी व्यवस्था/बाजार बढ़ने लगा। चूंकि वैश्वीकरण का प्रभाव कमजोर समूहों, मुख्य रूप से महिलाओं पर, हमेशा चिंता का विषय रहा है, इस पूंजीवादी मांग ने ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था के संयोजन के साथ ‘सुमंगली योजना’ को जन्म दिया। हिंदू परंपरा के अनुसार, दुल्हन के रूप में केवल ‘स्त्रीधन’ ही महिलाओं की एकमात्र संपत्ति है; इसे दहेज कहा जाता है, जो 1961 से कानून की नज़र में अवैध हो गया है, लेकिन आज भी काफी प्रचलित है। यह एक ‘अवांछित उपहार’ है, जो दुल्हन को माता-पिता से मिलता है और हमेशा से विवाह संस्थानों में एक अहम हिस्सा रहा है। दहेज सामाजिक स्थिति और प्रतिष्ठा का एक समान प्रतीक में देखा जा सकता है।
प्राचीन हिंदू शास्त्र दस्तावेजों में, वर दक्षिणा का इस्तेमाल किया गया था जो स्वैच्छिक हुआ करता था। सामाजिक स्थिति के महत्वपूर्ण प्रतीक के लिए स्वैच्छिक आदान-प्रदान की यह प्रणाली, आज दहेज है जो दबाव में बेटी के पिता पर लाद दिया जाता है। स्त्रीधन, कन्यादान आदि से जुड़ी पितृसत्तात्मक धारणाएं बेटी को एक ऐसी ‘वस्तु’ के रूप में दिखाती हैं जिसकी कोई पहचान नहीं, कोई घर नहीं, कोई स्वायत्तता नहीं, विवाह नामक इस संस्था में उन्हें दबाने के लिए है।
इस योजना के तहत लड़कियों की भर्ती सीधे कारखानों के प्रबंधन द्वारा या कारखानों के एजेंटों के माध्यम से की जाती थी। लड़कियों और उनके माता-पिता से वादा किया जाता था कि उनकी बेटियों को अनुबंध की अवधि के आखिर में एक बड़ा भुगतान मिलेगा ताकि उन्हें बेटी की शादी की व्यवस्था करने में मदद मिल सकेगी।
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जैसे सोनल शुक्ला का कहना है कि यह सामाजिक घटना अब एक गहरी जड़ें वाली पितृसत्तात्मक समस्या है, यह चिंता का विषय है। ‘सुमंगली योजना‘ का विचार भी दहेज की इसी पितृसत्तात्मक धारणा पर आधारित है। इस योजना में अन्य समुदाय की महिलाओं की तुलना में अधिक दलित महिलाएं शामिल हैं जो इस योजना की पितृसत्तात्मक सोच के साथ-साथ जातिवादी सोच को भी दर्शाता है।
तमिल शब्द ‘सुमंगली’ का इस्तेमाल अक्सर अविवाहित लड़की के लिए किया जाता है। इसलिए जो लड़कियां इस योजना में थीं वे मुख्य रूप से किशोर उम्र से थीं। सुमंगली योजना, जो भारत में जबरन मजदूरी का एक रूप थी, के बारे में कहा जाता है कि इसकी शुरुआत साल 1989 में हुई थी। इस योजना को ‘विवाह सहायता प्रणाली’ के रूप में भी जाना जाता था। इस योजना को सुमंगली योजना, सुमुंगली थिट्टम, सुबा मंगला योजना के नाम से भी जाना जाता है। साथ ही सुभा मंगला योजना, मंगल्या थित्तम, थिरुमंगलम थिरुमन थिट्टम, विवाह योजना और शिविर कुली प्रणाली भी कहा जाता था।
सुमंगली के पीछे का विचार लड़कियों की शादी के दहेज के लिए पैसे जमा करने के उद्देश्य से नौकरी देना था। भारत में दहेज अवैध होने के बावजूद, बड़ी संख्या में आज भी दुल्हन के माता-पिता द्वारा दूल्हे के परिवार को पर्याप्त धन, गहने और दूसरी चीज़ें देने की परंपरा को जारी रखे हुए हैं। इसलिए पारंपरिक भेदभाव और अंतर इस व्यवस्था का आधार बन गए। सुमंगलियों की भर्ती या तो सीधे कारखानों के प्रबंधन द्वारा या कारखानों के एजेंटों के माध्यम से की जाती थी। एजेंटों के माध्यम से भर्ती के मामले में, एजेंटों को कमीशन का भुगतान किया जाता है। लड़कियों और उनके माता-पिता से वादा किया जाता था कि उनकी बेटियों को अनुबंध की अवधि के आखिर में एक बड़ा भुगतान मिलेगा ताकि उन्हें बेटी की शादी की व्यवस्था करने में मदद मिल सकेगी।
सुमंगली योजना के तहत, लड़कियों के माता-पिता, आमतौर पर गरीब और तथाकथित निचली जातियों से, दलालों द्वारा अपनी बेटियों को कपड़ा कारखानों में काम करने के उद्देश्य से भेजने के लिए राजी किया जाता था। फैक्ट्री में काम करनेवाली लड़कियों के लिए तीन साल के अनुबंध को पूरा करने के बाद यह योजना बड़ी रकम का वादा करती थी। यह कारखानों को एक स्थिर कार्यबल प्रदान करते हुए कम आय वाले परिवारों की जरूरतों को स्पष्ट रूप से पूरा करता।
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कई सामाजिक संगठनों ने इस योजना के तहत लड़कियों के श्रम के शोषण और बंधुआ मज़दूरी जैसे मुद्दे उठाए हैं। साथ ही इस योजना से जुड़ी कई ऐसी कई घटनाएं और खबरें सामने आई हैं जो इशारा करती हैं कि यह योजना न सिर्फ दहेज के विचार को पुनर्स्थापित करती है बल्कि श्रमकिों के अधिकारों का भी हनन करती है।
द न्यू इंडियन इंडियन एक्सप्रेस में छपे लेख में अखिल भारतीय दलित महिला अधिकार मंच के महासचिव अबिरामी जोतेश्वरन कहती हैं, “ब्राह्मणवादी पितृसत्ता महिलाओं को नीचा दिखाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। देवदासी प्रथा में शामिल होने वाली 90 प्रतिशत से अधिक महिलाएं दलित महिलाएं थीं। हाथ से मैला ढोने में लगी 95 प्रतिशत से अधिक महिलाएं दलित हैं। उदाहरण के लिए, कपड़ा मिलों में सुमंगली योजना (विशेषकर कोयंबटूर क्षेत्र में), जहां 60 प्रतिशत से अधिक महिलाएं और लड़कियां, जिन्हें दहेज के लिए पैसे की गारंटी दी जाती है, इन नौकरियों के बंधन में बंधने के लिए मजबूर हैं, दलित हैं। यह स्पष्ट है कि यह सिर्फ एक जेंडर से जुड़ा मुद्दा नहीं है; यह जाति और जेंडर दोंने जुड़ा मुद्दा है।”
हालांकि, यह योजना अब नहीं है, न ही इससे जुड़ी खबरें देखने को मिलती हैं। दहेज, हालांकि यह कानूनी रूप से अवैध है लेकिन अवैध होने के बावजूद सामाजिक वास्तविकता अलग है। साथ ही सुमंगली जैसी योजनाओं पर भी यह सवाल उठाना जरूरी है कि इस तरह की प्रथाओं और योजनाओं से किस तरह लड़कियों का भला हो सकेगा?
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रिंकू कुमारी एक दलित नारीवादी हैं और फिलहाल TISS मुंबई में वीमंस स्टडी की छात्रा हैं। वह एक आर्टिस्ट, लेखिका, कवयित्री, शोधार्थी भी हैं। आप उन्हें इंस्टा पर यहां फॉलो कर सकते हैं।
तस्वीर साभार: Scroll
स्रोत:
The Hindu
The News Minute