“हमें अगर कोई रोज़गार मिल जाएगा तो हमारी सारी दिक़्क़तें खत्म हो जाएंगी। इसलिए महिलाओं को संगठित करने या उनके साथ बैठक करने से कोई बदलाव नहीं आएगा, ये सब फ़ालतू की चीज़ें हैं।” छतेरी गाँव की महिला बैठक में पैंतालीस वर्षीय प्रमिला नाम की एक महिला महिला हिंसा पर हो रही बातचीत को एकदम से बीच में काटते हुए ये बात कही। इसके बाद अधिकतर महिलाओं ने उसकी इस बात का समर्थन किया और कहा कि अगर सभी महिलाओं को रोज़गार मिल जाए तो उनके साथ कोई भी हिंसा नहीं होगी और न ही उनके जीवन में कोई दिक़्क़त आएगी। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के साथ बैठक करते हुए अक्सर ये बात सामने आती है, जब महिलाओं के दिमाग़ में सिर्फ़ यही विचार होता है कि रोज़गार मिलने से उनके जीवन की सभी परेशनियां दूर हो सकती हैं। उनकी इस बात पर मैंने हाल में एक महिला की केस स्टोरी उन्हें बताई।
खनाव गाँव में रहनेवाली निशा बेगम शादी के बाद से ही अपने पति के साथ सिलाई का काम करती हैं। वह सिलाई से जुड़े बड़े-बड़े ऑर्डर का काम पूरा करती हैं, लेकिन हिसाब-किताब का सारा काम उसके पति देखते हैं। निशा की शादी को पंद्रह साल हो गए, उनके चार बच्चे भी हैं। लेकिन निशा का आज तक कोई बैंक खाता भी नहीं है। निशा अपने बारे में बताती हैं कि उन्हें हर काम के लिए अपने पति से इजाज़त लेनी पड़ती है। अगर उन्हें किसी दोस्त या रिश्तेदार से बात करने का भी मन होता है तो उसके लिए पति से पूछना पड़ता है। इतना ही नहीं, आज तक उन्होंने जितनी भी सिलाई का काम किया है, उसका एक भी पैसा उसके हाथ में कभी नहीं आया। निशा के साथ घरेलू हिंसा भी होती है लेकिन वह इन सबके ख़िलाफ़ कुछ कर नहीं पाती।
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निशा के साथ पिछले साल मेरी मुलाक़ात हुई थी, तब मुझे उसके बारे में पता चला। निशा जैसे कई महिलाएं हैं, जिन्हें मैं व्यक्तिगततौर पर जानती भी हूं, जो कहने को रोज़गार करती हैं। कुछ की कमाई उनके हाथ आती भी है और कुछ के नहीं भी। अगर हम परिवार या समाज में स्थिति को देखें तो सिर्फ़ रोज़गार की वजह से औरतों की स्थिति में कोई ख़ास बदलाव होता नहीं दिखाई देता। ज़्यादातर यही देखने को मिलता है कि कमाई और मेहनत तो महिला की होती है, लेकिन उसका हिसाब पुरुषों के पास होता है। अपने पैसों पर उनका हक़ न के बराबर होता है।
इसमें जब हम ग्रामीण महिलाओं की स्थिति देखें तो वहां हालात और भी गंभीर नज़र आते हैं, क्योंकि ज़्यादातर महिलाएं कम या न के बराबर पढ़ी-लिखी होती हैं। उनके पास आधुनिक तकनीक के बारे में जानकारी भी बहुत कम होती है, जिसकी वजह से उनके रोज़गार में उनके विकास के अवसर अपने आप कम हो जाते है। साथ ही, अगर हम बात करें महिलाओं की गतिशीलता की तो उस मायने में भी महिलाओं के ऊपर पाबंदियों का बोझ हमेशा क़ायम रहता है। कहीं भी आने-जाने के लिए उन्हें पुरुषों की इजाज़त और सहारा लेना पड़ता है। मैं यह बिलकुल भी नहीं कह रही कि महिलाओं के रोज़गार या उनका आर्थिक स्वावलंबन ज़रूरी नहीं है बल्कि मेरा कहने का आशय ये है कि यह काफ़ी नहीं है। आर्थिक सशक्तिकरण के साथ-साथ कुछ ऐसी ज़रूरी चीजें भी हैं, जो महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए रोज़गार के साथ होना बेहद ज़रूरी है।
अगर हम परिवार या समाज में स्थिति को देखें तो सिर्फ़ रोज़गार की वजह से औरतों की स्थिति में कोई ख़ास बदलाव होता नहीं दिखाई देता। ज़्यादातर यही देखने को मिलता है कि कमाई और मेहनत तो महिला की होती है, लेकिन उसका हिसाब पुरुषों के पास होता है। अपने पैसों पर उनका हक़ न के बराबर होता है।
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गतिशीलता पर अपना हक़
अक्सर कामकाजी महिलाओं को भी कहीं आने-जाने के लिए पुरुषों पर आश्रित होना पड़ता है। कभी साधन के लिए तो कभी अनुमति के तो कभी रास्ते की जानकारी के लिए। वजह चाहे जो भी हो पर सच्चाई ये है कि महिलाओं के कहीं आने-जाने पर पुरुषों का पूरा पहरा रहता है। महिलाएं कहां जाएंगी, कहां नहीं, किस रास्ते जाएंगी और कब जाएंगी ये सब पुरुष तय करते हैं। इसलिए अगर हम रोज़गार को जब महिलाओं के सशक्तिकरण के रूप में देखते हैं तो वहां महिलाओं का अपनी गतिशीलता पर अपना हक़ क़ायम करना एक ज़रूरी हिस्सा हो जाता है।
जेंडर आधारित हिंसा और भेदभाव को चुनौती
अगर हम निशा का ही उदाहरण लें तो देख सकते हैं कि मेहनत का हर काम वह करती है लेकिन हिसाब का पूरा ज़िम्मा उसके पति का है। पैसे की हर लेन-देन का हक़ पुरुषों के पास है। यह व्यवस्था पितृसत्ता के उसे विचार को दिखाती है जो यह मानती है कि महिलाओं को संसाधन से दूर रखना है, इसलिए निशा की भूमिका को सिर्फ़ एक मज़दूर तक सीमित कर दिया गया और पैसे का संसाधन पुरुष के हाथ में, जो जेंडर आधारित भेदभाव है। इसके बाद निशा के साथ होने वाली हिंसा पर उसका कोई फ़ैसला न पाना या उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत भी न जुटा पाना ये दिखाता है कि निशा के क्षमतावर्धन की ज़रूरत है, जिससे उसमें आत्मविश्वास बढ़े और अपने साथ होनेवाली हिंसा और भेदभाव के ख़िलाफ़ वह आवाज़ उठाए। इसलिए अगर कोई कामकाजी महिला अपने साथ होने वाली हिंसा को अगर पहचान नहीं पाती है या उसे सहती है तो इसे कभी भी उसका सशक्तिकरण नहीं माना जाएगा।
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महिलाएं कहां जाएंगी, कहां नहीं, किस रास्ते जाएंगी और कब जाएंगी ये सब पुरुष तय करते हैं। इसलिए अगर हम रोज़गार को जब महिलाओं के सशक्तिकरण के रूप में देखते हैं तो वहां महिलाओं का अपनी गतिशीलता पर अपना हक़ क़ायम करना एक ज़रूरी हिस्सा हो जाता है।
अपनी कमाई और ज़िंदगी पर अपना हक़
कामकाजी महिला को अपनी ज़िंदगी में क्या करना है, कैसे रहना, किसके साथ रहना है, ये सभी फ़ैसलों पर महिला का ही हक़ होता है और ठीक इसी तरह उसकी कमाई पर उसका अपना हक़ होता है, जिसका निर्णय वह खुद करेगी। अगर इस पर कोई भी दबाव बनाता है या ये सारे फ़ैसले कोई और करता है तो इसका मतलब है कि ये सशक्तिकरण का रूप नहीं है। हमें इस फ़र्क़ को समझना होगा कि किसी भी रोज़गार या आर्थिक स्वावलंबन से महिला का एक पक्ष मज़बूत होता है, जिसके उसके सामाजिक, पारिवारिक और अधिकार से जुड़े पक्ष को मज़बूत किए बिना हम कभी भी ये नहीं कह सकते कि रोज़गार से उसकी सारी दिक़्क़त दूर हो जाएगी। पैसे से जुड़ी समस्याओं को ये भले ही कम करें, लेकिन इस पैसे का फ़ैसला अगर कोई और करता है इसका मतलब है कि यहां महिला की भूमिका किसी मज़दूर जैसे और पुरुष की भूमिका उसके मालिक जैसी ही है।
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सभी तस्वीरें रेणु द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं