समाजख़बर मॉनसून की शादियों में बाधा डाल रही बिहार की बाढ़

मॉनसून की शादियों में बाधा डाल रही बिहार की बाढ़

आशिफ वहाब और नसरीन परवीन, मॉनसून में होने वाली अपनी शादी को लेकर उत्साहित थे। उन्होंने शादी के दिन गिनने शुरू कर दिए थे। लेकिन उसी दिन आशिफ की दहलीज पर उसकी शादी के कार्यक्रमों की जगह उग्र बूढ़ी गंडक नदी का कहर आ पहुंचा था।

आलोक गुप्ता

मॉनसून की बारिश ने भीषण गर्मी को शांत कर दिया था। उत्तर बिहार में उर्वरता और आशा का मौसम शुरू हो गया था। आशिफ वहाब और नसरीन परवीन, मॉनसून में होने वाली अपनी शादी को लेकर उत्साहित थे। उन्होंने शादी के दिन गिनने शुरू कर दिए थे। लेकिन उसी दिन आशिफ की दहलीज पर उसकी शादी के कार्यक्रमों की जगह उग्र बूढ़ी गंडक नदी का कहर आ पहुंचा था। दुल्हन परेशान थी। वह शादी टलने की आशंका से घबराई हुई थी। विवाह भोज का खर्च भी बेकार जा रहा था। वहीं दूसरी तरफ पड़ोसी उसे दुर्भाग्य के लिए ताना मार रहे थे। लेकिन उस शक्तिशाली नदी ने कोई दया नहीं दिखाई। नसरीन कहती हैं, “मैं पैनिक अटैक की कगार पर थी।”

अपने मेहंदी से सजे हाथों से उन्होंने अपनी शादी का निमंत्रण उठाया। उसमें लिखा था कि आशिफ और नसरीन की शादी 6 अगस्त, 2020 को है। नसरीन ने कहा कि उन्होंने आशिफ को फोन किया और उसे उसका वादा याद दिलाया। आशिफ बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के रघुनाथपुर गांव में एक मैकेनिकल इंजीनियर हैं। उन्होंने बताया, “यह मेरे जीवन का सबसे खुशी का दिन था, लेकिन यह सबसे डरावना भी बन गया।”

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उग्र नदियों, युवाओं और जोखिम भरी मॉनसून शादियों वाला राज्य

बिहार में लगभग 60 फीसदी जनसंख्या की उम्र 25 वर्ष से कम है, जिससे यह सबसे अधिक युवाओं वाला राज्य बन गया है। बाढ़ को लेकर यह भारत का सबसे संवेदनशील राज्य है। हर साल, उत्तर बिहार में लगभग 80 फीसदी आबादी जुलाई से सितंबर तक के मॉनसून के महीनों में बाढ़ से प्रभावित होती है। बिहार में नदियां भी बहुत हैं और युवाओं की संख्या भी बहुत है। कोसी, गंडक, बूढ़ी गंडक और बागमती जैसी प्रमुख नदियां नेपाल में हिमालय से निकलती हैं और उत्तरी बिहार में बहती हैं। वहां, वे अक्सर बड़े पैमाने पर तबाही का कारण बनती हैं। इसके कारण बड़े पैमाने पर युवाओं का दूसरे राज्यों में पलायन हुआ है। इस साल की शुरुआत में प्रकाशित एक दीर्घकालिक अध्ययन ने पहली बार उत्तर बिहार में गांव के स्तर पर बाढ़ के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव की गणना की है। इसमें पाया गया कि 2001 और 2020 के बीच इस क्षेत्र के 48 फीसदी (लगभग 11,400) गांवों में हर साल या हर दूसरे साल बाढ़ आई है।

झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय में भू-सूचना विज्ञान विभाग में सहायक प्रोफेसर और अध्ययन के प्रमुख लेखक बिकाश रंजन परीदा कहते हैं कि उत्तरी बिहार का भूगोल, इसे स्वाभाविक रूप से बाढ़ के खतरे वाला क्षेत्र बनाता है, जहां नदियां मैदानी इलाकों में बहती हैं। गाद, तटबंधों, बांधों और बैराजों के खराब प्रबंधन ने हालात को और बदतर बना दिया है। साथ ही, यहां से होने वाले भारी प्रवास और मॉनसून की बाढ़ के कारण सांस्कृतिक प्रथाएं, जैसे शादियों के रीति-रिवाज भी प्रभावित हो रहे हैं। भारत में शादियों के तीन मौसम में से मॉनसून भी एक मौसम है। 

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एक शादी के लिए एकसाथ जुटा पूरा गांव

दुखी और निराश आशिफ ने उत्तेजित होकर कहा, “लेकिन मेरी प्रतिष्ठा का क्या? एक ट्रैक्टर पर अपनी दुल्हन के घर पहुंचना मेरी गरिमा के खिलाफ़ था। यह एक ऐसा वाहन है जिसका इस्तेमाल फसल और कचरे को ले जाने के लिए किया जाता है।” उनके चचेरे भाइयों ने उनका समर्थन किया। परंपरागत रूप से एक दूल्हे को घोड़े की सवारी करनी चाहिए। आजकल ज्यादातर लोग कार से यात्रा करते हैं। युवा आशिफ के लिए ट्रैक्टर पर बैठकर अपनी शादी में पहुंचना उनके सम्मान के खिलाफ़ था। इस चर्चा के बीच, एक मेहमान के मन में दूल्हे और उसके रिश्तेदारों को दुल्हन के गांव तक ले जाने के लिए नावों का इस्तेमाल करने का विचार आया। आशिफ को यह विचार पसंद आया लेकिन बाकी लोगों को ये विचार पसंद नहीं आया।

आशिफ के परिवार ने 200 से अधिक मेहमानों को आमंत्रित किया था लेकिन इन सभी मेहमानों के लिए पर्याप्त नावें नहीं थीं। लगभग 160 मेहमान पीछे रह गए थे। वे सब शादी की शानदार दावत और बारिश में नृत्य करने के अवसर को खोने को लेकर निराश थे। यह अलग बात है कि यह बारिश अप्रत्याशित थी लेकिन खुशी के मौके पर बारिश मजेदार थी।आशिफ याद करते हैं, “मैं अपने नखरे के लिए खुद को दोषी मानता था। लेकिन इसका एक अलग कारण था। मेरे सबसे करीबी लोग नाव पर थे और बहुतों को तैरना नहीं आता था। पानी का एक तेज बहाव इन नावों को पलट सकता था। इसी बात ने मुझे परेशान कर दिया था।” बाढ़ के कारण केवल आशिफ और नसरीन की ही शादी प्रभावित नहीं हुई थी। आशिफ का कहना है कि एक ही हफ्ते में रघुनाथपुर और आसपास के गांवों में चार और शादियां हुईं, जिनमें दूल्हे और उनके मेहमानों को बाढ़ के पानी से जूझना पड़ा था।

आशिफ वहाब और नसरीन परवीन, मॉनसून में होने वाली अपनी शादी को लेकर उत्साहित थे। उन्होंने शादी के दिन गिनने शुरू कर दिए थे। लेकिन उसी दिन आशिफ की दहलीज पर उसकी शादी के कार्यक्रमों की जगह उग्र बूढ़ी गंडक नदी का कहर आ पहुंचा था।

जैसे-जैसे बाढ़ और भीषण होती जा रही है, वैसे-वैसे समुदाय, मॉनसून के दौरान शादी की परंपराओं को जीवित रखने के लिए जोखिम भरे उपायों का सहारा लेते जा रहे हैं। 2020 और 2021 में, उत्तर बिहार में ऐसे कई दूल्हों की कहानियां थीं जिन्होंने अपनी दुल्हन से शादी के वादे को निभाने के लिए बाढ़ के खतरों का सामना किया। पिछले साल जुलाई में एक दूल्हे के परिवार ने दुल्हन के घर पहुंचने के लिए एक अस्थायी पुल भी बनाया था। यह अनुमान लगाना संभव नहीं है कि कितने लोग इस आपदा से प्रभावित हुए हैं। समृद्ध परिवार तो शायद कुछ समाधान खोज लें लेकिन गरीब परिवारों के लिए जीवन में एक बार होने वाले रीति-रिवाज, अगर ऐसी आपदा के बीच हों, तो उनका प्रबंधन बहुत कठिन हो जाता है। 

मुजफ्फरपुर के एक कार्यकर्ता जितेंद्र यादव कहते हैं कि पहले बाढ़ सामान्य थी और इससे उनकी भूमि की उर्वरता बढ़ जाती थी। अब बाढ़ खतरनाक हो चुकी है। वह 2008 को याद करते हैं जब नेपाल के ऊपरी हिस्से कुशाहा में तटबंध टूट गए थे, जिससे कोसी बेसिन में भारी बाढ़ आ गई थी। उस वर्ष, “इस क्षेत्र में केवल अंत्येष्टि देखी गई”। यादव कहते हैं, ”मानसून में होने वाली शादियां बेहद असुरक्षित होती जा रही हैं क्योंकि तटबंध टूटने की घटनाएं बढ़ रही हैं। साथ ही बाढ़ और भीषण होती जा रही है।”

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आशिफ याद करते हैं, “मैं अपने नखरे के लिए खुद को दोषी मानता था। लेकिन इसका एक अलग कारण था। मेरे सबसे करीबी लोग नाव पर थे और बहुतों को तैरना नहीं आता था। पानी का एक तेज बहाव इन नावों को पलट सकता था। इसी बात ने मुझे परेशान कर दिया था।” बाढ़ के कारण केवल आशिफ और नसरीन की ही शादी प्रभावित नहीं हुई थी। आशिफ का कहना है कि एक ही हफ्ते में रघुनाथपुर और आसपास के गांवों में चार और शादियां हुईं, जिनमें दूल्हे और उनके मेहमानों को बाढ़ के पानी से जूझना पड़ा था।

बिहार में बाढ़ की स्थिति विकराल होती जा रही है

आशिफ कहते हैं कि उनके गांव में, बूढ़ी गंडक, 1954 में तटबंधों के निर्माण शुरू होने के बाद से ही उसे तोड़ती आ रही है। “हर तीन से चार साल में दरार आ जाते हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बाढ़ की भयावहता बढ़ गई है। यह साल 2020 में और भी अधिक खतरनाक थी।” साल 1970 और 2020 के बीच लगभग 2,000 मिलियन हेक्टेयर भूमि की रक्षा के लिए 3,700 किमी से अधिक तटबंध बनाए गए थे। राज्य सरकार इस विशाल नेटवर्क के निर्माण, रखरखाव और मरम्मत पर हर साल लाखों डॉलर खर्च करती है। लेकिन इन संरचनाओं ने, बाढ़ को रोकने के बजाय, उत्तरी बिहार में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र को बढ़ा दिया है। यह 1952 में 2.5 करोड़ हेक्टेयर से लगभग दोगुना होकर 2011 में लगभग 5 करोड़ हेक्टेयर हो गया।

मुख्य लेखक परीदा का कहना है: “इस क्षेत्र के लिए भविष्य अंधकारमय प्रतीत होता है क्योंकि जलवायु परिवर्तन से वर्षा की तीव्रता बढ़ सकती है और तबाही अधिक हो सकती है।जब आशिफ और उनके मेहमानों को ले जाने वाली नावें नैशनल हाइवे 28 पर पहुंची, तो दुल्हन के गांव से लगभग 2.5 किमी दूरी पर, उनको बधाई देने वाले पहले लोगों में दुल्हन के परिवारवाले नहीं थे। इसके बजाय, वे बाढ़ पीड़ित थे जो नदी के प्रकोप से बचने के लिए हाइवे पर गए थे। आशिफ कहते हैं, “वे मुझसे मिलने और मेरे रिश्तेदारों और गांववालों के साहस के लिए अपना सम्मान दिखाने के लिए उत्सुक थे।” उनके हावभाव से पता चलता था कि बार-बार बाढ़ में सब कुछ खोने के बावजूद, क्षेत्र के लोग अपने वादों को निभाने की पूरी कोशिश करते हैं। 

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विज्ञान पर भारी राजनीति

क्षेत्र में नदियों के एक प्रमुख विशेषज्ञ दिनेश मिश्रा बताते हैं कि बाढ़ का कुप्रबंधन स्वयं बाढ़ से अधिक हानिकारक है। यहां सदियों से बाढ़ आ रही है। सरल उपाय यह है कि नदी को स्वतंत्र रूप से बहने दिया जाए और बाढ़ के पानी को अतिरिक्त गाद को खेतों में फैलने दिया जाए।” मिश्रा कहते हैं कि गलत प्रोत्साहन का मतलब है कि विफल नीतियों का अनुसरण जारी है और स्थानीय लोगों से सलाह नहीं ली जाती है। वह यह भी कहते हैं, “सरकारें ऊपर से नीचे की ओर वाले रुख को ही अपनाना चाहती हैं क्योंकि तटबंधों और बांधों के निर्माण से लाखों डॉलर का धन आता है।” इनका अनुमान है कि अधिक तटबंधों के निर्माण को सही ठहराने के लिए राजनेता जल्द ही इस क्षेत्र की वार्षिक बाढ़ के लिए जलवायु परिवर्तन को दोष देंगे।

इस तरह की लगातार तबाही की उच्च लागत होती है। यह बिहार की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है, जहां 76 फीसदी आबादी कृषि में शामिल है।  इस हालात ने भारत में सबसे कम प्रति व्यक्ति घरेलू उत्पाद के साथ उच्च प्रवास वाला राज्य बनाने में योगदान दिया है। इनका प्रभाव संस्कृति और परंपराओं पर भी पड़ता है। अपने अनुभव के बाद, आशिफ और नसरीन के पास शादी करने की योजना बना रहे युवाओं के लिए एक सलाह है: “मॉनसून के महीनों में शादी न करें।”

नसरीन कहती हैं, ”हम हल्दी जैसी कई रस्में नहीं कर सकते थे। यह रस्म शादी के दिन सुबह होती है। इसमें दूल्हे और दुल्हन को हल्दी लगाई जाती है। आम तौर पर यह रस्म एक खुले आंगन में आयोजित की जाती है। बरसात के दिन में ऐसा करना असंभव है। सबसे बदतर बात यह रही कि शादी में पहुंचने की कोशिश करते समय उनके ज्यादातर दोस्त बाढ़ में फंस गए।

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यह लेख मूल रूप से द थर्ड पोल हिंदी पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं

तस्वीर साभार: सचिन कुमार, द थर्ड पोल

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