मेरा बचपन उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में बीता है। गंगा जमुनी तहज़ीब से लबरेज़ इस शहर की आबोहवा में ऐसा रंग मिला है जो सबको समानता की दृष्टि में रंगे हुए रहता है। जब से मेरा जन्म हुआ है मेरी याददाश्त में यहां कभी भी धर्म के नाम पर दंगे देखने को नहीं मिले। मेरा घर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के ठीक सामने है। मेरी कॉलोनी में कुल 22 परिवार रहते हैं जिसमें से 9 परिवार मुसलमान हैं और इकलौता मेरा परिवार है जो दलित समुदाय से आता है। बाकी सभी परिवार इस इलाके में उच्च कोटि के ब्राह्मण और क्षत्रियों के ही हैं।
हमारे पिताजी कबाड़ खरीदने का काम करते थे। रोज सुबह उठना, रिक्शे के पुराने टायर में हवा भरना उनकी दिनचर्या थी, क्योंकि उनके पास इतने पैसे नहीं जुट पाते थे कि वह रिक्शे के टायर बदल सकें। फिर उस रिक्शे को लेकर गलियों में से कबाड़ इक्कट्ठा करना और उसी दिन बेच के आना। चूंकि पिता जी के पास इतने पैसे नहीं होते थे कि वह एक सप्ताह तक कबाड़ इकट्ठा कर उसे बेचने का इंतज़ार कर सकें, इसलिए वह रोज़ कबाड़ इकट्ठा कर बेचते थे। मेरे परिवार की हालत ठीक नहीं थी, लेकिन कैसे भी काम चल रहा था।
एक बड़ा बदलाव तब मेरे परिवार में आया जब धीरे-धीरे मेरे भाई ने अपने दोस्तों के साथ आरएसएस की शाखा में जाना शुरू कर दिया। यह शाखा कॉलोनी के पार्क में शाम को लगती थी। पहले उसे उसके दोस्त बुलाकर ले जाते थे, अब वह खुद-ब-खुद शाखा में जाने लगा। धीरे-धीरे मेरे भाई के व्यहवार में काफी बदलाव आने लगा। इसे शाखा में जाते हुए महज़ दो महीने ही हुए थे कि अब यह अपने पहले के मुसलमान दोस्तों से अलग होने लगा, उनसे बातें करनी बंद कर दीं, उन्हें नज़रअंदाज़ करना, उनके साथ स्कूल में खेलना और बैठना बंद कर दिया।
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“बात चल ही रही थी कि मैंने पूछ लिया कि मेरा भाई कह रहा था कि आरएसएस की शाखा में लड़कियां नहीं जा आ सकती हैं, ऐसा क्यों है प्रचारक जी? मैं पहले तो बहुत सोच रही थी कि मुझे यह सवाल पूछना चाहिए कि नहीं लेकिन, लेकिन आखिरकार मैं खुद को रोक नहीं पाई। प्रचारक जी ने इस सवाल का जवाब बेहद घुमाफिरा के दिया जो मेरी समझ से बिल्कुल परे था। मैं सोच नहीं पाई की आधुनिकता के युग में ऐसी भी रूढ़िवादी विचारधारा को लेकर घूम रहे हैं ये लोग जो कहते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े संगठन हैं।”
जब मैंने अपने भाई से पूछा कि उसे अफ़ज़ल खेलने के लिए बुलाता है तो वह जाता क्यों नहीं तो उसने कहा कि वह अब शाखा में जाता हैं और वह मुसलमानों के साथ नहीं खेलना चाहता।। मेरा भाई जो कभी अफ़जल की एक आवाज़ पर अपना होमवर्क छोड़कर खेलने चला जाता था, अब वही दोस्त उसके लिए मुसलमान हो गया और वह एक कट्टर हिन्दू। मैं यह सोच कर काफी परेशान हुई कि आखिर इन दो महीनों में शाखा की विचारधारा ने इसके मन में क्या भर दिया जिससे अब ये हिन्दू-मुसलमान की बाइनरी में बात करने लगा।
एक दिन मेरे भाई ने शाखा से लौटने के बाद बताया कि उसके प्रचारक जी और शाखा के मुख्य शिक्षक घर पर भोजन के लिए आएंगे। अगर आपको नहीं पता कि प्रचारक किसे कहते हैं तो आपकी जानकारी के लिए बता दूं की संघ की अपनी एक पद्धति है जिसमें प्रचारक, विस्तारक, कार्यवाह, मुख्य शिक्षक, गटनायक आदि तरह के कार्यकर्ता होते हैं। हमने भोजन बना लिया था, फिर प्रचारक जी की राह देख रहे थे कि वह कब आएंगे। वह लगभग रात 9 बजे के आस-पास आए। हम लोगों ने उन्हें बिठाया, बातचीत हुई। उन्होंने पिताजी से भी बात की। प्रचारक इतनी मीठी-मीठी बातें करेंगे कि आप उनकी बातो में हां में हां मिलाते चले जाएंगे। पिता जी ने उन्हें पानी पीने के लिए कहा। उन्होंने पानी तो गिलास को बिना मुंह में लगाए पी लिया पर जो मीठा रखा था उसे कई बार कहने के बावजूद नहीं खाया।
“मेरा भाई जो कभी अफ़जल की एक आवाज़ पर अपना होमवर्क छोड़कर खेलने चला जाता था, अब वही दोस्त उसके लिए मुसलमान हो गया और यह एक कट्टर हिन्दू। मैं यह सोच कर काफी परेशान हुई कि आखिर इन दो महीनों में शाखा की विचारधारा ने इसके मन में क्या भर दिया जिससे अब ये हिन्दू-मुसलमान की बाइनरी में बात करने लगा।”
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बात चल ही रही थी कि मैंने पूछ लिया कि मेरा भाई कह रहा था कि आरएसएस की शाखा में लड़कियां नहीं जा सकती हैं, ऐसा क्यों है प्रचारक जी? मैं पहले तो बहुत सोच रही थी कि मुझे यह सवाल पूछना चाहिए कि नहीं लेकिन, लेकिन आखिरकार मैं खुद को रोक नहीं पाई। प्रचारक जी ने इस सवाल का जवाब बेहद घुमा-फिरा कर दिया जो मेरी समझ से बिल्कुल परे था। मैं सोच नहीं पाई की आधुनिकता के युग में ऐसी भी रूढ़िवादी विचारधारा को लेकर घूम रहे हैं ये लोग जो कहते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े संगठन हैं।
फिर भोजन का समय निकट आ गया। मेरी माँ ने आवाज़ लगाई सभी को कि भोजन लगा दिया है, लेकिन प्रचारक जी ने तो ऐसा लगता है कि पहले ही सोच रखा था कि इनके यहां भोजन नहीं करेंगे बस फॉर्मलटी करने आए थे ताकि उन्हें यह एहसास न हो कि सबके यहां प्रचारक जी भोजन करने तो जाते हैं लेकिन हमारे यहां कभी नहीं आए, कॉलोनी में रह रहे उच्च जाति के परिवारों की तरह यह हमें अछूत नहीं मानते हैं।
प्रचारक जी ने ऐसा बहाना बनाया की हम हैरान रह गए। उन्होंने कहां कि उनका सुबह से ही थोड़ा स्वास्थ्य गड़बड़ है, हमने उन्हें पहले से ही न्योता दे रखा था। हमें बुरा न लगे इसलिए वह यहां तक आए, लेकिन भोजन फिर कभी कर लेंगे क्योंकि अब तो आना जाना लगा रहेगा। प्रचारक जी के हावभाव देखकर मुझे तो पहले ही पता लग गया था कि कारण कुछ और ही, है, स्वास्थ्य तो शायद बस बहाना है। न उन्होंने मीठा खाया, न भोजन किया। कहीं प्रचारक जी जातिवादी तो नहीं है? यह सवाल मैं आप पर छोड़ती हूं।
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तस्वीर साभार: The News Minute
(यह लेख ऋषिका ने लिखा है जो दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में मास्टर्स कर रही हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दर्शन की छात्रा रह चुकी हैं । ऋषिका उस साहित्य, राजनीति और दर्शन की पक्षधर हैं जो समाज के शोषित,वंचित और अभिजात्य वर्ग के द्वारा सताए गए लोगों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास करता है। रोज़मर्रा के जीवन में सरकार और समाज से सवाल करते रहना उन्हें बेहद पसंद है)