यात्राएँ किसी भी इंसान के विकास के लिए बेहद ज़रूरी है। लेकिन जब इन यात्राओं की बात महिलाओं के संदर्भ में आती है तो पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में लोगों की भौं तिरछी होने लगती है, क्योंकि यात्राओं को इंसान के विकास के लिए ज़रूरी बताया गया है और पितृसत्ता हमेशा इंसान को पुरुषों का ही पर्यायवाची मानती है। ऐसी सामाजिक व्यवस्था में जब हम किसी महिला के अकेले यात्रा के संदर्भ में सोचते है तो ये अपने आपमें चिंताजनक लगता है, क्योंकि आए दिन हम महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा की खबरों के बारे में पढ़ते है।
हाल ही में मेरी मुलाक़ात फ़्रांस से पहली बार भारत आयी 21 वर्षीय मैनन बोसर्ड से हुई। जिस उम्र में हम भारतीय युवा लड़कियाँ अपने जीवन की दिशा के लिए जद्दोजहद कर रहे होते है, उस उम्र में एक युवा लड़की का सात समंदर पार यात्रा पर निकलना मुझे आकर्षित कर गया और फिर मैंने उनकी यात्रा और उद्देश्यों पर चर्चा की, जो और भी दिलचस्प रही। तो आइए जानते है इस वर्षीय फ़्रांसीसी युवा लड़की की यात्रा, योजनाओं और विचारों के बारे में
सुना था ‘भारत अकेली महिला यात्रियों के लिए सुरक्षित नहीं है।‘
मैनन बताती है कि उन्होंने भारत के बारे काफ़ी कुछ सुना और पढ़ा था और उन्होंने भारत में महिलाओं की स्थिति और सुरक्षा को लेकर भी कई रिपोर्ट पढ़ी थी, जिसमें यह बताया गया था कि ‘भारत अकेली महिला यात्रियों के लिए सुरक्षित नहीं है।‘ पर उन्होंने अब तक कलकत्ता, दिल्ली, बनारस और आगरा जैसे शहरों की यात्रा की है और उन्हें एक़बार भी असुरक्षा का एहसास नहीं हुआ। इसके साथ ही, वह यह भी कहती है कि मैंने भारत आने से पहले महिला सुरक्षा के उन सभी बुनियादी नियमों का पालन किया, जो किसी भी यात्री के लिए ज़रूरी है।
और पढ़ें : मेरी कहानी: अकेली यात्राओं ने कैसे मुझे स्वावलंबी बनाया
भारत में यात्रा के संदर्भ में मैनन बताती है कि ‘अक्सर भारत में महिला सुरक्षा को लेकर चिन्ताएँ सामने आती है, जिसके चलते मुझे भी यहाँ पहली बार अकेले आने का प्लान तैयार करने में हिचक महसूस हुई। पर यहाँ आने के बाद मुझे यह महसूस हुआ कि अगर हम यात्रा सुरक्षा नियमों का पालन करें तो ये जोखिमपूर्ण नहीं है।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देने के लिए यात्रायें बेहद अच्छा माध्यम हो सकती है, क्योंकि ये महिलाओं को गतिशीलता और आत्मनिर्भर बनाने में मदद करती है।
महिलाओं के लिए ज़रूरी है ऐसी यात्राएँ
यात्रा के संदर्भ में मैनन बताती है कि ‘मुझे लगता है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देने के लिए यात्रायें बेहद अच्छा माध्यम हो सकती है, क्योंकि ये महिलाओं को गतिशीलता और आत्मनिर्भर बनाने में मदद करती है। मैंने अपनी यात्रा के दौरान कई महिलाओं और युवा लड़कियों के बात की और ये पाया कि उन्हें अपने घर से दूसरे शहर जाने में भी हिचक होती है, जिसके लिए वो अपने परिवार के पुरुषों पर निर्भर है। ऐसे में अगर महिला आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बाद भी अपनी गतिशीलता के लिए पुरुषों पर निर्भर रहेंगीं। इसलिए ज़रूरी है कि वो यात्राएँ करें। अपनी यात्रा में मैंने ये भी अनुभव किया कि इन यात्राओं के माध्यम से हम महिलाओं को आपस में जोड़ने में भी मदद कर सकते है, क्योंकि जब हम महिलाएँ यात्राएँ करती है और दूसरी जगहों की महिलाओं से मिलती है तो उनके संघर्ष को समझती है जो कहीं न कहीं महिला एकता, मुद्दों और संघर्ष को लेकर हमारी समझ को मज़बूत करने में मदद करती है।’
और पढ़ें : माहवारी जागरूकता के लिए गांव-गांव जाती हैं मौसम कुमारी जैसी लड़कियाँ
भारत में महिला स्वास्थ्य, माहवारी स्वास्थ्य और प्रबंधन बना यात्रा की वजह
मैनन अपनी यात्रा के बारे में आगे बताती है कि ‘भारत में यह यात्रा सिर्फ़ घूमने के उद्देश्य से नहीं बल्कि एक मक़सद के साथ कर रही हूँ। ये मक़सद है भारतीय महिलाओं के माहवारी स्वास्थ्य और प्रबंधन के मुद्दे पर काम करना। मैंने भारत में महिला स्वास्थ्य के मुद्दे पर लिखी गयी कई किताबें और रिसर्च रिपोर्ट पढ़ी, जिसमें यह पाया कि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की पहुँच माहवारी प्रबंधन के उत्पादों तक नहीं है, जिसकी वजह से वे गंदे कपड़े, राख और घास जैसी चीजों का इस्तेमाल करती है, जो उनके जीवन को जोखिम में डालने का काम करता है।
वहीं दूसरी तरफ़, भारत में माहवारी प्रबंधन के लिए प्लास्टिक सेनेटरी पैड का इस्तेमाल किया जाता है, जो पर्यावरण को नुक़सान पहुँचाता है। सेंट्रल पलूशन कंट्रोल बोर्ड रिपोर्ट (2018-19) के अनुसार भारत में कुल 3.3 मिलियन टन प्लास्टिक कचरे हुआ, जिसमें 12.3 बिलियन कचरा प्लास्टिक सेनेटरी पैड का था। ये आकंडें मुझे बेहद परेशान कर गए। इसी बीच मैंने भारत में माहवारी प्रबंधन के मुद्दे पर बनी आस्कर अवार्ड से सम्मानित फ़िल्म ‘द इंड और सेंटेंस’ देखी, जिसके बाद ही मैंने यह तय किया कि मैं भारत की यात्रा करूँगी और महिला माहवारी स्वास्थ्य और प्रबंधन के मुद्दे पर समुदायस्तर पर काम करूँगीं। अपने इस काम के लिए मैनन ने यह तय किया है कि वह अपने काम की शुरुआत मुसहर समुदाय के साथ करेंगीं, जो आज भी जातिगत भेदभाव, हिंसा और ग़रीबी की वजह से हाशिए पर अपने ज़िंदगी गुज़ारने को मजबूर है और इस समुदाय में महिलाओं और किशोरियों की और भी ज़्यादा चिंताजनक है।
मैनन कहती है कि ‘जब भी हम नारीवाद की बात करते है तो इसकी शुरुआत किसी दिशा या वेशभूषा से नहीं बल्कि विचारों से होती है। मैं नारीवादी नेतृत्व और उन्हें समूह पर विश्वास करती हूँ, जिसको ध्यान में रखते हुए मैंने अपनी इस यात्रा की योजना की तैयार की थी और अलग-अलग ग्रामीण क्षेत्रों में बसे वंचित समुदाय और विकलांगता के साथ जी रही महिलाओं के अनुभव को सुनना और उनके साथ जुड़ाव बनाना मेरे लिए सबसे सुखद रहा। साथ ही, मैंने यह अनुभव किया कि हम सभी महिलाओं को एक छाते के नीचे नहीं ला सकते है, इसके लिए हमें हर समुदाय और सामाजिक प्रस्थिति की महिलाओं की ज़रूरतों को समझने की ज़रूरत है। इसलिए मैं सभी महिला को ये कहूँगी कि उन्हें अपने जीवन में एक़बार अकेले यात्रा ज़रूर करनी चाहिए।‘
और पढ़ें : माहवारी पर बात की शुरुआत घर से होनी चाहिए| नारीवादी चश्मा
(यह सभी तस्वीर मैनन बोसर्ड ने उपलब्ध करवाई है।)