भारत की मिताली राज अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा रन बनानेवाली महिला खिलाड़ी रही हैं। महिला क्रिकेट को जो कभी, सिर्फ पुरुषों का खेल ही माना जाता था, उस समय अगर कोई महिला बल्ला पकड़ ले तो लोग हंस पड़ते थे। लेकिन मिताली ने इस मिथक को तोड़ते हुए महिला क्रिकेट को पुरुषों के दबदबे वाले खेल में नयी पहचान दिलाने का काम किया है। उनकी इस काबिलियत के कारण ही भारत सरकार ने उन्हें खेल की दुनिया का सर्वोच्च पुरस्कार खेल रत्न से सम्मानित भी किया है। आज हम करने वाले है इसी महान खिलाड़ी मिताली राज पर बनी फिल्म ‘शाबाश मिथु’ के बारे में।
इस फ़िल्म में भारतीय महिला क्रिकेट टीम की 18 वर्षो तक कप्तान रही मिताली राज की कहानी डायरेक्टर श्रीजीत मुखर्जी ने बहुत ही आसान तरीके से ऑडिएंस को समझाने की कोशिश की है। कैसे मिताली डांसर से क्रिकेटर बनीं, उन्हें किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा। परिवार, समाज और पुरुषों से भरे क्रिकेट बोर्ड का क्या रवैया रहा? महिला खिलाड़ियों की बुनियादी ज़रूरतें और सुविधाओं का न होना, उनकी कमी झेलना इन सब को बहुत शानदार तरीके से फ़िल्म में दिखाया गया है।
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फ़िल्म की शुरआत होती है हैदराबाद के चारमीनार के एक सीन से जहां तापसी पन्नू दिखती हैं जो मिताली का किरदार निभा रही हैं। मिताली का जन्म भी हैदराबाद में हुआ है। यहीं शुरू होती है मिताली के बचपन की कहानी। फिल्म के फर्स्ट हाफ में उनके बचपन पर पूरा फोकस किया गया है। बचपन मे मिताली भरतनाट्यम सीखती हैं फिर उनकी मुलाकत नूरी से हो जाती है जो कि क्रिकेट की बहुत शौक़ीन है। यही नूरी आगे चलकर मिताली के लिए प्रेरणा बनती है। नूरी अपने परिवार की वजह से क्रिकेट नही खेल पाती है, क्योंकि उसका निकाह कर दिया जाता है, लेकिन नूरी अपने सपने को, अपनी प्यारी दोस्त मिताली के ज़रिये पूरा करती है।
वैसे तो यह फ़िल्म मिताली राज की बायोपिक है लेकिन डायरेक्टर ने बहुत चालाकी से मिताली के क्रिकेटर बनने के संघर्ष के साथ ही साथ महिला क्रिकेट की चुनौतियों के बारे में भी फ़िल्म मे दिखाने का एक सफल प्रयास किया है।
फ़िल्म में नूरी और मिताली की दोस्ती पर अच्छे से फोकस किया गया है। फ़िल्म में दिखाया गया है कि कैसे नूरी की दोस्ती मिताली राज को जीवन का नया नज़रिया देती है। यह दोस्ती कुछ ही दिनों में बहुत ख़ास हो जाती है, फिर शुरू होता है छिपकर क्रिकेट खेलने का सिलसिला। एक दिन दोनों खेल ही रहे थे कि कोच संपत का किरदार निभा रहे विजयराज की नज़र मिताली की बैटिंग स्टाइल पर पड़ जाती है और कोच मिताली का अभूतपूर्व अंदाज़ देखकर चौंक जाते हैं। फिर क्या था, कोच मिताली को क्रिकेट ग्राउंड तक खींच लाते हैं। मिताली के घर में बात करके उन्हें कैसे भी करके मना लेते हैं। यही से शुरू होती है मिताली के क्रिकेटर बनने की ट्रेनिंग। कड़ी मेहनत और मुशिकलों को झेलने के बाद, तमाम कठिनाइयों के बल पर मिताली को नैशनल टीम के लिए चुन लिया जाता है।
इसके बाद मिताली वीमेन क्रिकेट बोर्ड में जाती है। वहां उसे अलग तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसी दौरान एक वक्त ऐसा भी आता है जब मिताली इन चुनौतियों से हिम्मत हारकर सब कुछ छोड़-छाड़कर घर वापस आ जाती है। जिसके बाद फिर हिम्मत और साहस जुटा कर वापसी करती है, फिर पीछे मुड़ने का नाम नहीँ लेती है। इस तरह वह अपनी टीम को साल 2017 के विश्वकप के फाइनल तक पहुंचा देती है।
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इस फ़िल्म में एक गेंद पर दो शॉट मारे गए हैं
वैसे तो यह फ़िल्म मिताली राज की बायोपिक है लेकिन डायरेक्टर ने बहुत चालाकी से मिताली के क्रिकेटर बनने के संघर्ष के साथ ही साथ महिला क्रिकेट की चुनौतियों के बारे में भी फ़िल्म मे दिखाने का एक सफल प्रयास किया है। इस फ़िल्म का एक सीन है जो आप फ़िल्म देखने के बाद शायद ही भूल पाए। उस सीन में महिला क्रिकेट टीम अपने कप्तान के साथ क्रिकेट बोर्ड के सामने अपनी कुछ ज़रूरतें पूरा करने की मांग रखती हैं और कहती हैं, “हमारी भी कुछ ज़रूरतें होती हैं, हमारी भी कुछ पहचान है।” लेकिन बोर्ड के डायरेक्टर मना कर देते हैं और मज़ाक उड़ाते हुए अपने एक कर्मचारी को बुलाते हैं और उससे पूछते हैं, “आप पाँच महिला क्रिकेटरों के नाम बताओ।” फिर वब कर्मचारी नही बता पाता, डायरेक्टर कहते हैं, “अच्छा एक ही महिला क्रिकेटर का नाम बता दो लेकिन वो बोलता है मुझे नही पता है।” इस पर सभी महिला क्रिकेटरो को अपमान का सामना करते हुए वापस आना पड़ता है।
इस फ़िल्म में यह भी दिखाया गया है कि जो लाइम लाइट पुरुष क्रिकेट को मिलती है वह अभी भी महिला क्रिकेट को नहीं मिलती है। पुरुषों की अपेक्षा महिला क्रिकेटरों को कम सुविधाएं मिलती हैं। इन्हें साल भर में पुरुषों के मुकाबले एक चौथाई ही क्रिकेट खेलने को मिलता है। विदेशी धरती पर भी महिला क्रिकेट टीम का टूर भी पुरुषों की टीम के मुकाबले बेहद कम होता है।
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कुछ जगहों पर चूक गई है फिल्म
इस फ़िल्म में जिस तरह से मिताली राज के क्रिकेटर बनने के जुनून और जज़्बे को दिखाया गया है वह बेहद क़ाबिले तारीफ है। लेकिन फ़िल्म में कुछ कमियां भी नज़र आती हैं जिन पर डायरेक्टर को थोड़ा और काम करना चाहिए था। वैसे फ़िल्म पहले हाफ में कमाल का प्रदर्शन करती है। लेकिन सेकंड हाफ में फ़िल्म की पकड़ दर्शको पर ढीली होने लगती है फ़िल्म की रफ्तार काफी धीमी हो जाती है। दूसरी बड़ी कमी है फ़िल्म में वर्ल्ड कप वाले सीन को वैसा का वैसा हाईलाइट के रूप में उतार देना किसी TV की फुटेज लेकर। वर्ल्ड कप के सीन मे जो रोमांच पैदा करना चाहिए था, उसे करने में शायद असफल रहे हैं श्रीजीत मुखर्जी जी।
वैसे तो यह बॉलीवुड की फिल्मों का चलन बन चुका है जिसमें महिला किरदारों को आज भी एक शोपीस की तरह ही माना जाता है। फिल्मो का मकसद महिला किरदारों के ज़रिए दर्शको की भीड़ बटोरना होता है। उनकी अदाकारी को कम महत्व देकर उनकी शारीरिक सुंदरता को ज्यादा महत्व दिया जाता है। जैसा कि हम इस फ़िल्म में देखते हैं कि तापसी पन्नू का रंग गोरा है, लेकिन उनको मिताली राज के किरदार के लिए सांवला करके दिखाया गया है। ऐसा अक्सर आपको फिल्मों में मिल जाएगा। ऐसे में एक सवाल यह उठता है कि क्या गहरे रंग की हीरोइने अच्छा अभिनय नहीं कर पाती हैं,जो बार बार गोरी हीरोइनों को उनकी जगह कास्ट किया जाता है। महिला केंद्रित फिल्मों के ज़रिये ही हमें इस पितृसत्तात्मक सोच पर हमें चोट करने की ज़रूरत है कि गोरे रंग की महिलाओं में सांवले रंग की महिलाओं की तुलना में कुछ ख़ास होता है।
फिल्म फिलहाल बॉक्स ऑफिस पर भी उतनी अच्छा नहीं कर पाई है लेकिन महिला क्रिकेटर्स की परेशानियों और मिताली राज के जुनून को जानने के लिए फिल्म देखी जा सकती है। फिल्म को देखकर आप यह ज़रूर समझ जाएंगे कि कैसे भारतीय पुरुष क्रिकेट टीम जिसे ‘मेन इन ब्लू’ कहा जाता है, उसके सामने महिलाओं की टीम ने ‘वीमन इन ब्लू’ को एक पहचान दिलाई।
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तस्वीर साभार: Money Control