संस्कृतिमेरी कहानी शहर में रहनेवाले सभी लोगों की ज़िंदगी ‘शहरी’ नहीं होती

शहर में रहनेवाले सभी लोगों की ज़िंदगी ‘शहरी’ नहीं होती

ऐसा ही एक शहर जिसे हम देश की राजधानी दिल्ली के नाम से जानते हैं। लेकिन यह दिल्ली जिसकी हम आज बात करने जा रहे हैं उस दिल्ली से बिल्कुल अलग है जिसे हमेशा मेनस्ट्रीम ने रोमांटिसाइज़ किया है।

शहर एक ऐसी जगह है जहां बड़ी-बड़ी, सुंदर इमारतें, घर, ऑफिस, पार्क, सड़कें, स्कूल, कॉलेज, शोरूम और मनोरंजन की बहुत सी जगह जैसे-सिनेमा घर, मॉल, वॉटर पार्क, ऐतिहासिक स्थल, आदि चीजें मौजूद होती हैं। अगर सही मायनों में कहा जाए तो शहर अवसरों का भंडार है। किसी चीज़ की कोई कमी नहीं, इन शहरों को और बेहतर और सुंदर बनाने के लिए नयी योजनाएं, प्रोजेक्ट भी चलाए जाते हैं जैसे कि स्मार्ट सिटी। शहरों में रहना और उसको दूर से देखना, दोनों की कहानी अलग है। कुछ कहानियां तो ऐसी हैं जो इन बड़े शहरों में दिखती ही नहीं या यूं कह सकते हैं कि शहर की ऊपरी और दिखावटी चमक-धमक में कहीं गुम हो जाती हैं।

ऐसा ही एक शहर जिसे हम देश की राजधानी दिल्ली के नाम से जानते हैं। लेकिन यह दिल्ली जिसकी हम आज बात करने जा रहे हैं उस दिल्ली से बिल्कुल अलग है जिसे हमेशा मेनस्ट्रीम ने रोमांटिसाइज़ किया है। दिल्ली के इस पश्चिमी इलाके में बड़े घर नहीं हैं, बुनियादी सुख-सुविधाएं नदारद हैं। अवसरों की बात तो दूर, यहां दो वक्त की रोटी के लिए हर दिन का संघर्ष है। यहां बड़ी-बड़ी सुंदर इमारतों के पीछे छोटे-छोटे दबड़ेनुमा घर बने हैं। वे घर हमारे घर हैं जिसे झुग्गी- झोपड़ी,स्लम, फुटपाथ आदि के नाम से जाना जाता है। यहां रहनेवाले हम लोगों को तो दूसरे लोग और भी ‘अच्छे’ नामों से पुकारते हैं जैसे- गंदगी में रहनेवाले, गंदा काम करनेवाले, चोर- उचक्के, नौकर, भिखारी, कभी न बदलनेवाले, मलिन बस्ती, झुग्गी -झोपड़ी में रहनेवाले लोग, कुछ ऐसे ही नामों से हमें पुकारा जाता है।

और पढ़ें: आरएसएस की जातिवादी और महिला-विरोधी विचारधारा के साथ मेरा अनुभव

मेरा बचपन दिल्ली के जिस इलाके में गुज़रा है वहां इतने साधन नहीं थे। न बड़ा घर, छोटी-छोटी झुग्गी बनी थी जहां चूहों का बोलबाला था। छत पर तिरपाल, बारिश के दिनों में घर की छतों से पानी का आना, शौचालय की भी सुविधा नहीं। घर के पास नाला था और उसके साथ हमारे छोटे-छोटे घर।

अब आप लोगों को लग रहा होगा, मैं ऐसा क्यों कह रही हूं या मेरा ऐसा बोलने और लिखने से क्या ताल्लुक? मेरा ताल्लुक है क्योंकि मैं भी ऐसी किसी जगह से निकली हूं या फ़िर इसी जगह की हूं। मैंने अपने जीवन में हमेशा देखा कि लोग दिल्ली का नाम सुनते ही एक अलग विचारधारा बना लेते हैं और बिना कुछ जाने कहते हैं कि दिल्ली की है तो इसके पास सब कुछ होगा, किसी चीज़ की कोई कमी नहीं होगी। लेकिन मैं हमेशा हंसते हुए कहती हूं कि आपको कैसे पता कि मेरे पास सब कुछ है। मेरा बचपन दिल्ली के जिस इलाके में गुज़रा है वहां इतने साधन नहीं थे। छोटी-छोटी झुग्गी बनी थी, जहां चूहों का बोलबाला था। छत पर तिरपाल, बारिश के दिनों में घर की छतों से पानी का आना, शौचालय की भी सुविधा नहीं। घर के पास नाला था और उसके साथ हमारे छोटे-छोटे घर।

जिस दिल्ली की तस्वीर लोग देखते हैं मैंने वह दिल्ली हमेशा कहीं दूर से ही देखी हैं आज भी वह दूरी बरकार है। हमारे जैसे झुग्गी, बस्तियों से आनेवाले लोग शहरों में बड़ी-बड़ी जगहों पर काम तो करते हैं लेकिन रहते नहीं हैं।

हमारे स्कूल की हालत इससे भी बुरी थी। झुग्गी- झोपड़ी की जगह से आने की वजह से स्कूलों में हमें जल्दी दाखिला नहीं मिलता था। बहुत मुश्किल से दाखिला भी हुआ तो स्कूलवालों का नज़रिया ऐसा था मानो हमने दाखिला लेकर पाप कर दिया हो। अछूत की तरह व्यवहार किया जाता था और व्यवहार इतना भेदभावपूर्ण था कि हमें डर ही लगता था स्कूल जाकर। हमारे लिए अच्छी भाषा का भी प्रयोग नहीं किया जाता था। हमेशा तू, तड़ाक, अबे आदि शब्दों से प्रयोग किया जाता था। “तुम लोग ऐसे हो, गंदे हो, यह गंदा काम करते हो,” कहकर टीचर द्वारा हमेशा नीचा दिखाया जाता था। ये तो हमारे साथ होता था, अगर जब कभी परिवार वाले आ जाया करते थे तो उनके साथ भी अच्छा व्यवहार नहीं होता था। हमेशा सुनने को मिलता था, “तुम लोग ऐसे ही रहोगे, बच्चों को पढ़ाकर क्या करोगे, सामान बंटता नहीं कि आ जाते हैं।”

और पढ़ें: जातिगत भेदभाव सच में क्या पुराने ज़माने की बात है?

इन्हीं तानों को सुनकर बड़ी हुई। आज शायद मेरी ज़िंदगी की सभी बातें तो नहीं बदली लेकिन कुछ चीजें जरूर कम हुई हैं। आज मुझे इन बातों का सामना प्रत्यक्ष तौर पर नहीं करना पड़ता लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर रोज़ इन सब बातों से जूझती हूं। जिस दिल्ली की तस्वीर लोग देखते हैं मैंने वह दिल्ली हमेशा कहीं दूर से ही देखी हैं आज भी वह दूरी बरकार है। हमारे जैसे झुग्गी, बस्तियों से आनेवाले लोग शहरों में बड़ी-बड़ी जगहों पर काम तो करते हैं लेकिन रहते नहीं हैं।

इसी के बाद जब घर और रोज़गार की बात करूं तो समाज में अच्छी नज़रों से हमें नहीं देखा जाता था। लोग हमारे टूटे घर को और तोड़ने और हटाने की बात करते थे। एक दिन तो ऐसा भी आया जब वे लोग हमारे घरों को तोड़ने आए क्योंकि घर के सामने एक बड़ा कॉलेज बना था जिसके सामने हमारी झुग्गियां थीं और उसी के पास नाला भी था। वे लोग चाहते थे कि हमें वहां से हटा दिया जाए क्योंकि सुंदर और बड़े कॉलेज के सामने हमारे घर गंदे लगते थे और हमारा रहन-सहन भी उन्हें भाता नहीं था। आज भी वह दिन याद है कि सरकार द्वारा एक फरमान आया कि झुग्गी का आधा हिस्सा हटाया जाएगा ताकि नाले को बंद किया जा सके, उस जगह को अच्छा और साफ़ बनाया जाए। साल 2009 में सरकारी लोगों के साथ पुलिस और उनके साथ बुलडोज़र लाया गया ताकि हमारे घरों को तोड़ा जाए।

और पढ़ें: मेरी कहानी: ‘जब दिल्ली पढ़ने आई एक लड़की को अपनी जाति छिपानी पड़ी’

हम काम करनेवाला एक समाज हैं जो शहरों को चलाने में मदद करते हैं, उसको बनाना, सजाना, खूबसूरत रखना, घरों की चौकीदारी करना, ख्याल रखना आदि जितने भी काम होते हैं समाज की नज़रों में वह हम ही करते हैं। बड़े शहरों का छोटा-सा सच कड़वा है लेकिन सच है। दिल्ली चाहे कितनी भी सुंदर हो विशेषाधिकार प्राप्त समाज हम जैसे लोगों को, झुग्गी में रहनेवाले लोगों को अपने शहर पर एक दाग मानता है।

200 से 250 के लगभग लोग खूब रोये, चिल्ला-चिल्लाकर दुहाई दी लेकिन वहां किसी ने नहीं सुनी। वह मंज़र बहुत ही दुखद था। किसी का सपना टूटते दिख रहा था कि अब कहां जाएंगे, कहां रहेंगे, क्या कमाएंगे, क्या खाएंगे जैसे सवाल हर तरफ ज़ोरों-शोरों से उठ रहे थे। लेकिन हमलोगों की परवाह किसे थी उस वक्त। लोगों के घर टूटने के बाद कोई सड़क पर रहने को मजबूर था, तो कोई तिरपाल लगाकर दूसरा घर बनाने में जुट गया तो कोई किराये के मकान पर जाने की तैयारी करने लगा। लेकिन यहां हमारी किस्मत अच्छी थी कि हमारे पास एक और घर था लेकिन दूसरा घर टूटने का दुख भी बहुत था।

जब-जब जिंदगी के इन पलों में जाती हूं तो आज भी बहुत दुख होता है। आख़िर कोई क्यों नही सोचता है हमारे बारे में। जब घर टूटा रहा था किसी ने पानी तक नहीं पूछा, खाने तक का इंतजाम भी नहीं किया। लोगों को दोबारा घर बनाने के लिए कोई राशि तक नहीं दी गई। जैसे-तैसे लोगो ने कुछ सालों बाद अपना घर बनाना शुरू किया। फ़िर लोग कहते हैं,  “हम दिल्लीवाले हैं और हमारे पास सब कुछ है।”

और पढ़ें: एक आदिवासी लड़की का बस्तर से बड़े शहर आकर पढ़ाई करने का संघर्ष

हम काम करनेवाला एक समाज हैं जो शहरों को चलाने में मदद करते हैं, उसको बनाना, सजाना, खूबसूरत रखना, घरों की चौकीदारी करना, ख्याल रखना आदि जितने भी काम होते हैं समाज की नज़रों में वह हम ही करते हैं। बड़े शहरों का छोटा-सा सच कड़वा है लेकिन सच है। दिल्ली चाहे कितनी भी सुंदर हो विशेषाधिकार प्राप्त समाज हम जैसे लोगों को, झुग्गी में रहनेवाले लोगों को अपने शहर पर एक दाग मानता है।

मेरे कई सवाल हैं शहर को बनाने और चलानेवालों से। हम इस बड़ी सिटी में कहा आते हैं, आख़िर कौन सी योजना हमारे तक आती है, क्या हम से कभी पूछा गया हम कहा जाएंगे, आखिर देश के कौन से हिस्से में हम आते हैं, इतनी बड़ी योजना बनाई गई स्मार्ट सिटी की, इस स्मार्ट सिटी में हम कहां आते हैं, हमारी झुग्गी इस योजना में कहां फिट बैठती है? शहर में रहनेवालों सभी लोगों की जिंदगी शहरी नहीं होती, हम शहर का वह सच हैं जिसे बताया नहीं जाता।

और पढ़ें: समलैंगिक पहचान के साथ मेरे संघर्ष और बनारस की गलियों में ‘सतरंग’ की तलाश


तस्वीर साभार: DNA

Comments:

  1. Sunil Ivane says:

    बहुत ही अच्छा प्रयास है ये, अपने अनुभवों को सही शब्दों में बताया है । साथ ही जो दर्द है वो भी देखने को मिला। नई पारी की बधाइयाँ।

Leave a Reply to Sunil IvaneCancel reply

संबंधित लेख

Skip to content