इंटरसेक्शनलजेंडर महिलाओं के उठने-बैठने के ढंग को कंट्रोल करती पितृसत्ता

महिलाओं के उठने-बैठने के ढंग को कंट्रोल करती पितृसत्ता

पितृसत्ता अपने समाज में महिलाओं की ज़िंदगी के हर पहलू को कंट्रोल करने का काम करती है। कभी वह महिलाओं के पहनावे को लेकर नियम बनाती है तो कभी उनके उठने-बैठने के ढंग को।

“ये कैसी बैठी हो ढंग से लड़कियों की तरह बैठो।”

“पैर फैलाकर नहीं मोड़कर बैठो।”

“पुरुषों के सामने हमेशा दुपट्टा लेकर बैठो।”

पितृसत्ता अपने समाज में महिलाओं की ज़िंदगी के हर पहलू को कंट्रोल करने का काम करती है। कभी वह महिलाओं के पहनावे को लेकर नियम बनाती है तो कभी उनके उठने-बैठने के ढंग को। हमलोगों की रोज़ की ज़िंदगी में घुले ये सारे छोटे-बड़े पितृसत्तात्मक नियम हमारे विकास, गतिशीलता और अधिकार के दायरे को हर पल समेटने का काम करते हैं। यह पितृसत्ता का उद्देश्य भी है, जो हमेशा महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा समेटने और उनके अधिकारों से दूर करने का काम करती है। पितृसत्ता के बताए जानेवाले हर छोटे-बड़े नियम हमारे जीवन को कितना ज़्यादा प्रभावित करते हैं। ये सीधेतौर पर हमारे व्यक्तित्व पर भी प्रभाव डालते हैं। आज हम लोग बात करेंगे महिलाओं के उठने-बैठने के तरीक़े को लेकर पितृसत्ता के छोटे-बड़े नियमों के बारे में जो हम महिलाओं के व्यक्तित्व से लेकर हमारे अवसर और अधिकारों तक की पहुंच को प्रभावित करते हैं।

और पढ़ें: “चुप रहो, खुलकर मत हंसो” क्योंकि लड़कियों का ऐसा करना आज भी मना है!

पितृसत्ता की सीख: कम जगह में सिकुड़कर बैठना

चाहे ऑटो-रिक्शा हो या फिर कोई भी बस या ट्रेन। हर जगह महिलाओं को सिकुड़कर कम जगह में बैठने को कहा जाता है। ऐसा हम अक्सर रोज़मर्रा की ज़िंदगी में देख सकते हैं जब महिलाएं सिकुड़कर बैठी होती हैं, वहीं पुरुष आराम से अपनी पूरी जगह लेकर बैठते हैं। अगर लड़की छोटी है तो उसे खुद को समेटकर अपने छोटे भाई को जगह देने के लिए कहा जाता है और अगर महिला है तो खुद को सिकुड़कर और अपने बच्चे को भी गोद में लेकर बैठने को कहा जाता है। बचपन से ही हम महिलाओं को कम जगह में खुद को समेटकर बैठने की सीख दी जाती है, जिससे बाक़ी लोगों को असुविधा न हो। लेकिन यह सिकुड़कर बैठने की सीख बचपन से ही लड़कियों के दिमाग़ में इस बात को बैठाने का काम करती है कि उन्हें कम में या सीमित दायरों में खुद को रखना चाहिए, जिससे किसी दूसरे को कोई असुविधा न हो।

चाहे ऑटो-रिक्शा हो या फिर कोई भी बस या ट्रेन। हर जगह महिलाओं को सिकुड़कर कम जगह में बैठने को कहा जाता है। ऐसा हम अक्सर रोज़मर्रा की ज़िंदगी में देख सकते हैं जब महिलाएं सिकुड़कर बैठी होती हैं, वहीं पुरुष आराम से अपनी पूरी जगह लेकर बैठते हैं।

पितृसत्ता की सीख: पैर समेटकर बैठो

जब भी लड़कियां या महिलाएं पैर फैलाकर या पैर खोलकर बैठती हैं तो उसे बुरा माना जाता है और उन्हें तुरंत पैर समेटकर बैठने को कहा जाता है। इसके पीछे तर्क अलग-अलग होते हैं। कभी कहा जाता है कि ऐसे बैठने से उनकी योनि का पता चलता है। आमतौर पर शारीरिक संबंध बनाते समय महिलाएं पैर फैलाती हैं। इसलिए भी ऐसे बैठने को ग़लत माना जाता है। लेकिन अब हमें को ये समझना होगा कि क्या हर बार महिलाओं के पैर फैलाकर बैठने या पैर खोलकर बैठने का मतलब यह संकेत देना होता है कि वे सेक्स करना चाहती हैं।

अगर ये नियम महिलाओं पर लागू है तो पुरुषों पर उनकी सेक्स पोज़ीशन के लेकर उनके उठने-बैठने के ढंग से जुड़ा कोई नियम क्यों नहीं बनाया जाता है। ऐसे इसलिए नहीं किया जाता है क्योंकि यही पितृसत्ता है, जिसे महिलाओं की सुख-सुविधाओं और आराम को नज़रंदाज़ करके उनपर कंट्रोल करना ही पसंद है। इसलिए कभी भी महिला के अपनी मर्ज़ी से बैठने के तरीक़े को पितृसत्ता सही नहीं मानती, बल्कि इसे इज़्ज़त के नियमों से जोड़ देती है। बचपन से पैर समेटकर बैठने की सीख लड़कियों के मन में खुद को समेटकर रखने के साथ-साथ अपने शरीर को लेकर संकोच को भी बढ़ावा देने लगती है, जिससे अक्सर वे अपने शरीर को लेकर बात करने सहज नहीं हो पाती है।

और पढ़ें: औरतों के छोटे बालों को लेकर इतना हंगामा क्यों है बरपा? 

पितृसत्ता की सीख: पुरुषों के सामने दुपट्टा लेकर बैठो

जैसे-जैसे हमारे समाज में लड़कियों की उम्र बढ़ने लगती है, उनकी उम्र को लेकर पाबंदियों का दबाव भी बढ़ने लगता है। कभी इसे इज़्ज़त का हवाला देकर बताया है तो कभी अच्छी लड़की बनाने के लिए। किशोरावस्था में लड़कियों के बैठने, उठने और सामने आने को लेकर भी एक बहुत ज़रूरी नियम हमारे समाज में सदियों से चला आ रहा है वह है पुरुषों के सामने दुपट्टा लेकर बैठना-उठना या सामने आना। फिर वह चाहे अपने पिता हो या भाई, ये नियम हर पुरुष के सामने आने के लिए सबसे ज़रूरी बताया जाता है। चूंकि किशोरावस्था में लड़कियों के स्तन का विकास होना शुरू हो जाता है और उनके विकसित होते स्तन पर किसी, खासकर पुरुषों की नज़र ना जाए इसलिए लड़कियों को हमेशा दुपट्टा ओढ़ने की सलाह दी जाती है। यह सलाह महिलाओं का जीवनभर तक पीछा नहीं छोड़ती है और खुद के स्तन को छिपाने का संघर्ष उनकी ज़िंदगी में चलता ही रहता है।

किशोरावस्था में लड़कियों के बैठने, उठने और सामने आने को लेकर भी एक बहुत ज़रूरी नियम हमारे समाज में सदियों से चला आ रहा है वह है पुरुषों के सामने दुपट्टा लेकर बैठना-उठना या सामने आना। फिर वह चाहे अपने पिता हो या भाई, ये नियम हर पुरुष के सामने आने के लिए सबसे ज़रूरी बताया जाता है।

यहां हम लोगों को यह भी समझना होगा कि किशोरावस्था में जिस वक्त लड़कियों के शरीर में बदलाव होते हैं ठीक उसी वक्त लड़कों के भी शरीर में कई बदलाव होते हैं, लेकिन उनके शारीरिक बदलाव को छिपाने के लिए कोई नियम नहीं बनाए जाते, लेकिन सुरक्षा और इज़्ज़त के नाम पर ये नियम सिर्फ़ लड़कियों पर ही थोपा जाता है। यह सीख एक तरफ़ तो महिलाओं का जीवनभर पीछा नहीं छोड़ती और दूसरी तरफ़ महिलाओं का आधा से अधिक समय खुद के शरीर के अंगों को छिपाने में चला जाता है, जो उनके व्यक्तित्व में अपने शरीर को लेकर शर्म और दूसरे के सामने दुपट्टा न लेने पर असुरक्षा के डर के घेरे में उन्हें बनाए रखती है।

ये महिलाओं के उठने-बैठने के तरीक़े को लेकर कुछ ऐसे नियम हैं, जो बचपन से ही हम लोगों की ज़िंदगी में ऐसे घोल दिए जाते हैं कि पहले ये सब हमारी आदत फिर हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाते हैं। यही फिर हमारी सोच को भी प्रभावित करने का काम करते हैं। जब हम अपने शरीर को लेकर शर्म महसूस करने लगते हैं और खुद को सिकोड़कर दूसरों को जगह देने, उन्हें महत्व देने और पितृसत्ता की बताये नियम के मुताबिक जीने लगते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि हम पितृसत्ता के इन तमाम रूप को समझें और इसे चुनौती देना सीखें।

और पढ़ें: हाँ, चरित्रहीन औरतें सुंदर होती हैं!


तस्वीर साभार: Filmfare

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content