संस्कृतिख़ास बात आशा सपेरा: एक उन्मुक्त कालबेलिया नर्तकी 

आशा सपेरा: एक उन्मुक्त कालबेलिया नर्तकी 

आशा बताती हैं, “12 महीने में सिर्फ 4 महीने हम डांस प्रोग्राम करते हैं बाकी के 8 महीने हम बेरोज़गार रहते हैं। लेकिन मैंने अपनी माँ से कढ़ाई करना सीख लिया है और अब मैं यह बाकी लड़कियों को भी सिखाती हूं ताकि वे अपने जीवन के हर मुकाम को हासिल कर सकें। लॉकडाउन में मैंने ऑनलाइन क्लास भी शुरू की। आज भारत से ही नहीं बल्कि विदेशों में भी कालबेलिया नृत्य को लोग बहुत पसंद करते हैं और मुझ से ऑनलाइन या ऑफलाइन माध्यम से क्लास लेते हैं।“

प्राचीन काल से भारत में महिलाओं द्वारा नृत्य करने को बेहद हीन दृष्टि से देखा जाता है। लेकिन अनोखी बात जब होती है जब कोई महिला इन सभी परंपराओं को तोड़कर, भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में अपनी जगह बनाती है। ऐसी ही एक अनोखी और साहसी शख़्स हैं कालबेलिया नर्तकी आशा सपेरा। आशा पेशे से नर्तकी हैं और अपनी पांच साल की बच्ची के साथ जोधपुर में रहती हैं। पित्तृसत्तात्मक कालबेलिया समाज में नर्तकी के लिए अपनी जगह और पहचान बनाना आकाश से तारे तोड़ने जैसा होता है। कालबेलिया भारत का एक ऐसा समाज है जहां महिलाओं को आज़ादी के नाम पर सिर्फ पैदा होने की आज़ादी है। यह अधिकार भी उन्हें कई वर्षों के संघर्ष के बाद ही संभव हुआ है।

प्राचीन युग में यह समुदाय एक-जगह से दूसरी जगह घुमंतू जीवन व्यतीत करता था। इनका पारंपरिक व्यवसाय सांप पकड़ना, सांप के विष का व्यापार और सर्प दंश का उपचार करना है। इसी कारण इस लोक नृत्य का स्वरूप और इसको प्रस्तुत करनेवाले कलाकारों के परिधानों में सांपों से जुड़ी चीज़ें झलकती हैं। राजस्थान निवासी कालबेलिया समाज अपने आप को जिप्सी नाम से संबोधित करता है। यूरोपियन रोमा अपने आप को जिप्सी मानते हैं। कालबेलिया लोगों की ऐसी अवधारणा है कि रोमा भारतीय हैं और जोगी समाज के निवासी हैं। आशा सपेरा बताती हैं, “यूरोपियन जिप्सी नृत्य की शुरुआत भारत से हुई है। रोमा भारतीय परंपरा को आज भी विदेश में संजोए हुए हैं। अलग-अलग देशों के छात्रों को मैं विदेशों में जाकर कालेबेलिया नृत्य की शिक्षा देती हूं। उनमें से ज़्यादातर रोमा छात्र होते हैं। कालबेलिया की भांति रोमा का लोकनृत्य ‘जिप्सी’ नृत्य के नाम से प्रसिद्द है।”

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समय के साथ बदलाव हुआ, आशा की ज़िंदगी घर के काम में व्यस्त एक घरेलू महिला की तरह जीवन कट रही थी। लेकिन कहीं न कहीं नृत्य न करने एक कसक उनके मन को खाए जा रही थी। कालबेलिया समाज में लड़कियों का नृत्य करना परिवार को पसंद नहीं था। साथ ही समाज से बहिष्कृत होने के डर से उन्होंने अपने घर में रहना ही सही समझा। 

नृत्य ही जीवन है

आशा सपेरा का व्यत्तिगत जीवन बड़ी कठिनाइयों के बीच गुज़रा। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। समाज के दबाव में आकर परिवार ने आशा सपेरा की कम उम्र में शादी करवा दी। इस तरह उनकी सारी ख्वाहिशें बचपन में खत्म हो गई। समय के साथ बदलाव हुआ, आशा की ज़िंदगी घर के काम में व्यस्त एक घरेलू महिला की तरह कट रही थी। लेकिन कहीं न कहीं नृत्य न करने एक कसक उनके मन को खाए जा रही थी। कालबेलिया समाज में लड़कियों का नृत्य करना परिवार को पसंद नहीं था। साथ ही समाज से बहिष्कृत होने के डर से उन्होंने अपने घर में रहना ही सही समझा। 

कालबेलिया नृत्य पर बातचीत करतीं आशा सपेरा

कभी-कभी घर में पति से छिपकर वह नृत्य कर लिया करती थीं। वह बताती हैं, “मुझे जीवन में कुछ करना था पर मेरा समाज मुझे कभी इस बात की इजाज़त नहीं देता। परिवार से कभी मदद नहीं मिल पाई। मेरा पारिवारिक जीवन बेहद दुख के साथ कटने लगा। ऐसा लगने लगा कि मैं घुट-घुटकर मर रही हूं। मेरा अस्तिव एक नाम बनकर रह गया था। इन सब के दौरान मेरे जीवन में मेरी बेटी ने जन्म लिया। बेटी के जन्म के बाद मुझे यह ख्याल आया कि मैं अपने ख्वाबों को खत्म नहीं होने दे सकती। आज मैं, कल मेरी बेटी इस समाज की कुरीतियों की शिकार होगी। इसके बाद मैंने घर छोड़ दिया। यहं से मेरे जीवन के पहले अध्याय की शुरुआत हुई।”

कालबेलिया समाज में लोग आज भी कोर्ट नहीं जाते हैं। वहां हर मुद्दे पर पंचों द्वारा फैसला लिया जाता है और वही समाज के सभी लोग मानते हैं। आशा सपेरा के केस में पंचों ने पिता की बात तो सुनी लेकिन उनकी बात अनसुनी कर दी। इसका एक बड़ा कारण पित्तृसत्तात्मक समाज का होना है, जहां औरतों की बात को आज भी अनसुना कर दिया जाता है। लेकिन उन्होंने भी हार नहीं मानी और सुप्रीम कोर्ट जाने की धमकी दी। आज आशा सिर्फ एक बच्ची को नहीं बल्कि अपने समाज की हर बच्ची जो नृत्य सीखाती हैं और स्कूल भी पढ़ने भेजती हैं। साथ ही वह अपने समाज में लड़कियों को जमीन के अंदर दफनाने की प्रथा को कुछ कालबेलिया नर्तकियों के साथ मिलकर तोड़ने का निरंतर प्रयास कर रही हैं।

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लॉकडाउन में जीवन 

आशा सपेरा पढ़ी-लिखी न होने के कारण लोगों से बातचीत करने में वह बहुत असहाय महसूस करती थीं। वह बताती हैं, “मैंने पढ़ाई फिर से शुरू की। लोगों से बात करके कालबेलिया नृतकों की एक टीम बनाई। अपनी पांच साल की बेटी की आज मैं एक सिंगल मदर हूं। मेरे परिवार ने मेरा बहुत साथ दिया। 12 महीने में सिर्फ 4 महीने हम डांस प्रोग्राम करते हैं बाकी के 8 महीने हम बेरोज़गार रहते हैं। लेकिन मैंने अपनी माँ से कढ़ाई करना सीख लिया है और अब मैं यह बाकी लड़कियों को भी सिखाती हूं ताकि वे अपने जीवन के हर मुकाम को हासिल कर सकें। लॉकडाउन में मैंने ऑनलाइन क्लास भी शुरू की। आज भारत से ही नहीं बल्कि विदेशों में भी कालबेलिया नृत्य को लोग बहुत पसंद करते हैं और मुझ से ऑनलाइन या ऑफलाइन माध्यम से क्लास लेते हैं।“

भेदभाव के शिकार होते हैं लोक कलाकार  

आशा बताती हैं, “भारत में हमेशा हमारे साथ भेदभाव होता है। लोग डांस के लिए कम पैसे देते हैं और हमारे लिए सस्ते से बेकार होटल में रहने की व्यवस्था करवाते हैं। आज भी हम जैसे छोटे डांसर को लोग वह इज्ज़त नहीं देते। लेकिन मेरी पहली विदेश यात्रा के दौरान मैं बैंकॉक गई। वहां लोगों ने हमारे नृत्य को खूब सराहा और हमारे रहने की व्यवस्था अपने साथ के ही एक होटल में की। ये रोमा समुदाय के लोग थे और हम इन्हें अपने समुदाय के ही मानते हैं। इनकी बोली में जोगी-सपेरा शब्द काफी मिलते जुलते हैं। भेदभाव के शिकार हमेशा से हम महिलाएं होती आ रही हैं, चाहे वे कितनी भी विदेशों में अपनी पहचान बना लें।” 

आशा अब तक 20 से भी ज्यादा गाने गा चुकी हैं और कई लोगो को रोज़गार दे रही हैं। उनकी टीम में 13 लोग हैं। वह लड़कियों के लिए एक डांस स्कूल खोलना चाहती हैं। आशा जैसी नर्तकी और बहादुर महिलाओं की ज़रूरत समाज को है। इनके साथ भेदभाव ना करके इनकी कला को आगे बढ़ने में योगदान देने की ज़रूरत है। सरकार को भी कालबेलिया समाज के लोकसंगीत और लोकनृत्य को आगे ले जाने का प्रयास करना चाहिए।

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तस्वीर साभार: सभी तस्वीरें रिमझिम द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं

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