हाल ही में एक संसदीय समिति ने गोद लेने के कानून से नाजायज़ शब्द को हटाने की सिफारिश की है। यह सिफारिश भारत की उस पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर चोट करती है जिसमें बच्चों को खून, खानदान और सम्मान से जोड़कर देखा जाता है। समिति ने बच्चा गोद लेने के व्यापक कानून बनाने की भी बात की है जो सभी लोगों पर लागू हो। समिति ने इसमें अलग-अलग श्रेणी के व्यक्तियों के संरक्षण पहलुओं को शामिल करने को कहा है।
द हिंदू में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक एक संसदीय समिति ने कहा है कि बच्चा गोद लेने के लिए नया और व्यापक कानून लाने की ज़रूरत है। समिति ने बच्चा गोद लेनेवाले कानूनों का अवलोकन करते हुए उसमें इस्तेमाल किए गए ‘नाजायज़’ शब्द पर ध्यान दिया है। समिति ने सुझाव दिया है कि ‘नाजायज़’ शब्द को हटा देना चाहिए क्योंकि कोई भी बच्चा नाजायज़ नहीं होता है। कानून सभी बच्चों के लिए समान होना चाहिए चाहे वे विवाह के रिश्ते के भीतर हुए हो या बाहर पैदा हुए हों।
कमेटी का मानना है कि अभिभावक और वार्ड कानून में संशोधन करने की ज़रूरत है। समिति ने यह विचार रखा है कि दोंनो कानूनों में व्यापक रूप से बच्चे के कल्याण को परिभाषित करने की ज़रूरत है। संशोधित ऐक्ट में बुजर्ग व्यक्तियों के संरक्षक की सुविधा भी होनी चाहिए। कभी भी ऐसी परिस्थितियां हो सकती हैं जहां एक वरिष्ठ नागरिक उस स्तर तक पहुंच जाए जहां स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं बढ़ जाती हैं, ऐसे में उन्हें अपने स्वास्थ्य और कल्याण की देखभाल के लिए संरक्षक की आवश्यकता हो सकती है।
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द प्रिंट में प्रकाशित ख़बर के अनुसार संसद की स्थायी समिति ने पर्सनल, पब्लिक ग्रीवन्स लॉ एंड जस्टिस संबंधी 118वीं रिपोर्ट दोंनो सदनों के समक्ष रखी है। कमेटी ने हिन्दू अडॉप्शन एंड मेटीनेंस ऐक्ट और जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट को देखा और कहा कि दोंनो के अपने गुण और कमियां हैं। पैनल ने अपनी पेश की गई रिपोर्ट में कहा है, “समिति महसूस करती है कि दोंनो कानूनों में सामंजस्य स्थापित करने की और गोद लेने पर एक समान और व्यापक कानून लाने की आवश्यकता है जो अधिक पारदर्शी, जवाबदेह, सत्यापित, कम ब्यूरोक्रेटिक और सभी धर्म के लोगों के लिए हो और जो ज्यादा आसान और कम बोझिल हो।”
समिति ने सुझाव दिया है कि ‘नाजायज़’ शब्द को हटा देना चाहिए क्योंकि कोई भी बच्चा नाजायज़ नहीं होता है। कानून सभी बच्चों के लिए समान होना चाहिए चाहे वे विवाह के रिश्ते के भीतर हुए हो या बाहर पैदा हुए हों।
पैनल ने यह भी कहा है कि हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप ऐक्ट की धारा 3(1) के तहत शादी के बाहर जन्मे बच्चे के लिए ‘नाजायज़’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। कमेटी महसूस करती है कि यह शब्द हटा देना चाहिए। पैनल ने कहा है कि सभी बच्चे समान हैं चाहे वे शादी में जन्मे हो या उससे बाहर हो। कमेटी ऐसा भी महसूस करती है कि उसने जो नया कानून का सुझाव रखा है उसमें एलजीबीटीक्यू समुदाय भी शामिल होना चाहिए।
आगे कमेटी ने बच्चा गोद लेने का नया कानून में सुझाव दिया है कि बच्चे को जल्द से डी-इंस्टीट्यूशनलाइजेशन करना चाहिए। यह नवजात बच्चे के हित में रहेगा। कमेटी ने इस ओर भी ध्यान दिया है कि एक ओर जहां बड़ी संख्या में माता-पिता बच्चे को गोद लेने की इच्छा रखते हैं वहीं दूसरी ओर गोद लेने के लिए बहुत सारे बच्चे उपलब्ध नहीं हैं। 2020 की वर्ल्ड ऑरफन रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 31 मिलियन अनाथ हैं।
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सामाजिक व्यवस्था कैसे नाजायज़ शब्द को गढ़ती है
बच्चा गोद लेने के कानून में सुधार के लिए कमेटी ने कई सिफारिशे की हैं जिसमें से नाजायज़ शब्द के बारे में टिप्पणी करना रूढ़िवादी भारतीय समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यहां हर रिश्ते का परिवार, रिश्तेदारी, और समाज के बनाए जातीय, आर्थिक और अन्य कई ढ़ाचों में फिट बैठना बहुत ज़रूरी है। अगर कोई इस तय ढ़ांचे के पैमानों से इतर है तो उसे कभी स्वीकृति नहीं मिलती है। पितृसत्तात्मक समाज में पिता की सत्ता कायम रखने के लिए शादी और उससे पैदा हुई संतान को सबसे ज्यादा अहमियत दी जाती है। बच्चे को खून-खानदान और मान-मर्यादाओं से जोड़ा जाता है। इससे अलग बिना शादी के रिश्ते और यौन हिंसा की घटना के बाद कोई महिला किसी बच्चे को जन्म देती हैं तो उसके बच्चे के लिए ‘नाजायज़’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है।
अगर एक हेट्रोसेक्शुल शादी के रिश्ते से अलग किसी स्त्री-पुरुष का लिव-इन रिलेशनशिप का रिश्ता है और उनकी कोई संतान होती है या किसी क्वीयर कपल की कोई संतान हो या किसी एकल महिला की तो पितृसत्तात्मक समाज में न तो उनके रिश्ते को स्वीकार किया जाता है और न ही उनकी संतान को।
सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर रिश्ते को गलत ठहराकर उसे न केवल नकारती है बल्कि उसके साथ बहुत बुरा व्यवहार भी करती है। अक्सर इस तरह से बच्चे को नाजायज़ कहकर उसे उसके अधिकारों से दूर रखा जाता है। बच्चे के साथ भेदभाव किया जाता है। उन्हें सामाजिक स्वीकृति न देकर उन्हें कदम-कदम पर अपमानित किया जाता है। यह व्यवहार बाल मन पर गलत प्रभाव ड़ालता है। उसके आत्मविश्वास को कमजोर करता है और उसकी भविष्य की संभावनों के रास्तों को बंद करने का काम करता है।
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अगर एक हेट्रोसेक्शुल शादी के रिश्ते से अलग किसी स्त्री-पुरुष का लिव-इन रिलेशनशिप का रिश्ता है और उनकी कोई संतान होती है या किसी क्वीयर कपल की कोई संतान हो या किसी एकल महिला की तो पितृसत्तात्मक समाज में न तो उनके रिश्ते को स्वीकार किया जाता है और न ही उनकी संतान को। इससे इतर यदि किसी यौन हिंसा की घटना के बाद कोई महिला गर्भवती होती है और वह बच्चे को जन्म देती है तो उनकी संतान की भी मोरल पुलिसिंग होती है। जिस वजह से बच्चे के जन्म के बाद उसे छोड़ देने का उसपर दबाव रहता है और नवजात को अनाथ कर दिया जाता है। नाजायज़ ठहराने वाली मानसिकता ही एक बच्चे से उसके अभिभावक का साथ उससे छीनने का काम करती है।
बावजूद सबके कोई महिला ऐसी परिस्थिति में एकल अभिभावक की भूमिका निभाने का निर्णय भी लेती है तो उसके लिए सकीर्ण मानसिकता कदम-कदम पर चुनौती बनकर सामने आती है। उसके सामने रहने और काम करने की समस्या खड़ी की जाती है। बच्चे का पिता कौन है इस सवाल को सबसे पहले पूछा जाता है। यदि जवाब उनकी तय सोच के अनुसार नहीं है तो बच्चे को नाजायज़ कहकर उनको रहने की लिए जगह देने से मना कर दिया जाता है। उनके लिए पूर्वानुमान लगाकर उनका चरित्र हनन किया है।
भारतीय समाज में वैवाहिक रिश्तों से अलग अगर कोई संतान हो तो उसे कभी भी सम्मान की नज़र से नहीं देखा जाता है। तमाम कानूनी स्पष्टीकरण के बावजूद ऐसे बच्चों से उनके अधिकार छीने जाते हैं। भारतीय अदालतें भी इस दिशा में कई फैसलों में यह कह चुकी है कि एक बच्चे की उसके जन्म में कोई भूमिका नहीं होती है। इसलिए उसे उसके अधिकारों से दूर नहीं रखा जा सकता है।
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तस्वीर साभारः ChildFund International