महिलाओं ने हर क्षेत्र में आंदोलन कर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया और जिसको स्वीकार करते हुए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस तक मनाया गया। उसी स्त्री के सम्मान को लेकर, उसके अधिकार, उसकी पहचान को लेकर साहित्य में महिला लेखन की परंपरा रही है। साहित्य के हर काल में महिलाओं ने अपनी रचनाओं के ज़रिये योगदान दिया है। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक महिलाएं साहित्य की तमाम विधाओं में अपने विचारों को पेश करती आ रही हैं। आइए जानते हैं इस लेख के माध्यम से साहित्य जगत की कुछ प्रमुख महिला रचनाकारों के बारे में।
1- दक्षिण भारत की आंडाल
आंडाल, 10वीं शताब्दी की एक तमिल कवि थीं जिन्हे दक्षिण भारत में संत भी माना जाता है। उन्होंने दो ग्रंथों की रचना की थी। आंडाल ने अपनी रचनाएं तमिल भाषा में लिखी हैं। उन्होंने बहुत कम उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। इनकी रचना तिरूप्पावै 30 पदों का एक काव्य प्रबंध है। इसमें उन्होंने खुद को एक मवेशी लड़की मानते हुए कृष्ण की सेवा में लीन चित्रित किया है। इनकी दूसरी रचना नचियार तिरुमोलिई है। भक्ति आंदोलन के समय 12 अलवर संत हुए और उन 12 संतों में से 11 पुरुष थे। आंडाल उनमें से एकमात्र महिला संत थी।
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2- कश्मीर की लल्लेश्वरी/ लल्लद्यद
13वीं-14वीं शताब्दी के कश्मीर की लल्लेश्वरी देवी एक प्रमुख कवियत्री हुई हैं जिनको ‘लल्लद्यद’ भी कहा जाता है। इन्होंने ‘वाख’ लिखे है, वाख कश्मीरी छंद होता है। यह चार लाइन की कविता होती है। उनकी कविता ने कश्मीरी साहित्य को एक नया आयाम दिया क्योंकि इनसे पहले कश्मीर के संतों का लेखन मुख्य तौर पर संस्कृत भाषा में हुआ था। उनके लिखे वाख कई भाषाओं में अनुवाद किए जा चुके हैं। वह लल्लेश्वरी, लल्ला योगिनी और लल्ला आरिफा के नाम से भी जानी जाती हैं। जॉर्ज ग्रियर्सन ने इन वाख का संकलन किया है जो रॉयल एशियाटिक सोसायटी से प्रकाशित हुआ। लल को वाख्यानी के नाम से भी जाना जाता हैं। लल्लद्यद अपने समय की गौरवशाली और समाज की रूढ़िवादी परंपराओं, कुरीतियों के प्रति विद्रोह के स्वर के तौर पर भी जानी जाती हैं।
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3- राजस्थान की मीरा बाई
मीरा, जिन्हें मीराबाई के नाम से जाना जाता हैं। वह 16वीं शताब्दी की एक प्रमुख अध्यात्मिक कवियत्री थीं। वह कृष्ण की उपासक थीं। उन्होंने अपनी रचनाओं में कृष्ण के प्रति भक्तिभाव को प्रदर्शित किया है। मीरा की लिखी कविताओं को पद कहा गया। मीराबाई की लिखी प्रमुख रचनाओं में राग गोविंद, गोविंद टीका, राग सोरठा, मीरा की मल्हार, मीरा पदवाली, नरसी जी का मायरा शामिल हैं। मीराबाई की लिखी अधिकतर रचनाएं आज भी भक्ति गीत के तौर पर गायी जाती है। मीराबाई के लिखे कुछ गीत अंग्रेजी भाषा में भी अनुवाद किए जा चुके हैं।
मीराबाई सामंती व्यवस्था, सामंती राज्य सत्ता के प्रति विद्रोह के लिए भी जानी जाती हैं। ससुराल में पति की मृत्यु के बाद उन्होंने रूढ़िवाद को चुनौती दी। विधवा प्रथा का पालन न करने पर उनका विरोध किया गया। उनका जीवन संघर्ष से भरा रहा। वह कहती हैं- “राणा म्हाणे या बदनामी लागे मीठी कोई निंदों, कोई बिंदो मैं चलूँगी चाल अपूठी”। “बरजी मैं काहू कि नाहि रहूं। छाड़ि दई कुल की कानि, का करिहै कोई। लोक लाज कुलकाण जगत की दई बहाये जस पाणी।” मीराबाई सामंती व्यवस्था के प्रति विद्रोह का स्वर लेकर आत्म अभिव्यक्ति की पीड़ा से छटपटाती दिखाई देती है।
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4- महाराष्ट्र की कवयित्री सावित्रीबाई फुले
सवित्रीबाई फुले को देश की पहली शिक्षिका और समाज सेविका के रूप में तो जाना जाता ही हैं वह इसके साथ एक कवियत्री भी थीं। स्त्री शिक्षा का प्रचार-प्रसार करनेवाली प्रथम महिला सावित्रीबाई फुले मराठी कविता की आधुनिक कवयित्री मानी जाती हैं। इन्होंने अपनी कलम के माध्यम से भी सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया। जब वह नौ वर्ष की थीं, इनका विवाह ज्योतिराव फुले के साथ हुआ था। विवाह के बाद ही उन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी और उसके बाद समाज सुधारक, शिक्षिका और कवियत्री के तौर पर रूढ़िवादी प्रथाओं पर वार किया।
कवयित्री के तौर पर उन्होंने मराठी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से जातिगत भेदभाव को मिटाने और महिलाओं को शिक्षा के लिए जागरूक करने का काम किया। सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले स्वयं मराठी कवयित्री रही हैं। उन्होंने कुल दो कविता संग्रह लिखे हैं। 23 साल की उम्र में साल 1854 में उनका लिखा पहला संग्रह ‘बावन काशी’ प्रकाशित हुआ था। इस कविता संग्रह में 41 रचनाएं है। उनका दूसरा रचना संग्रह बावन काशी सुबोध रत्नाकर 1892 में प्रकाशित हुआ था। फुले की रचनाएं दलितों के अधिकारों के लिए, वंचित वर्ग के अधिकारों के लिए आवाज़ उठानेवाली कृति बनीं। उनकी कविता ‘जाओ, शिक्षा प्राप्त करो’ लोगों को शिक्षा का महत्व समझाने और उसके लिए प्रेरित करने वाली है। उन्होंने विशेष तौर पर लड़कियों की शिक्षा के लिए आवाज़ उठायी।
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5- महाराष्ट्र की ताराबाई शिंदे
ताराबाई शिंदे एक नारीवादी थीं। 19वीं शताब्दी में उन्होंने पितृसत्ता और जाति का विरोध किया। समाज में जिस तरह से पुरुषों का वर्चस्व था और पूरी तरह से गुलाम बनाकर रखा जा रहा था, उस स्त्री की पहचान के लिए इन्होनें पितृसत्ता के विरुद्ध आवाज़ उठायी। इनका मराठी भाषा में 1882 का लिखा हुआ स्त्री-पुरुष तुलना एक बहुत महत्वपूर्ण कृति है। ताराबाई शिंदे ने उसमें महिलाओं की सामाजिक स्थिति और पितृसत्ता के बारे में लिखा है। नारी के समर्थन में उनकी तीक्ष्ण अभिव्यक्ति थी- “जिसके हाथ में लाठी वही बलवान, बाकी सब निर्बल यही तो आचरण है तुम्हारा, तुमने अपने हाथों में सब धन दौलत रखकर नारी को कोठी में दासी बनाकर, धौंस जमाकर दुनिया से दूर रखा, उस पर अधिकार जमाया, नारी के सदगुणों को दुर्लक्षित कर अपने ही गुण अवगुण के दिये तुमने जलाए, नारी को विद्याप्राप्ति के अधिकार से वंचित कर दिया, उसके आने-जाने पर रोक लगा दी।”
एक ओर हम देख रहे हैं कि वे पुरुषों के वर्चस्व के विरुद्ध आवाज़ उठा रही है तो दूसरी ओर स्त्रियों को उसके अज्ञानता के ढेर से बाहर निकालने का प्रयास कर रही है। वे कहती हैं स्त्रियां अपने अधिकारों को समझती नहीं है, उन्हें पता ही नहीं की उनका क्या कर्तव्य है? उनका क्या अधिकार है ? ये स्त्रियां अज्ञानता के गर्त में इस तरह से डूबी हुई है कि आपस में जब मिलती भी है तो उन्हें दुनियादारी की समझ ही नहीं है। ताराबाई शिंदे स्त्रियों के अधिकार के लिए, स्त्री शिक्षा के लिए संघर्ष कर और उन्हें पहचान देने का कार्य करती रही। वह विधवा जीवन व्यतीत करने वाली स्त्रियों की वकालत करते हुए पुरुषों से सवाल करती है कि “यदि विधवा को अपना उर्वरित जीवन अंधियारा, बदसूरत और भगवान का नाम लेकर ही बिताना है तो विधुर हुआ पुरुष भी यह स्थिति क्यों नहीं अपनाता? वह क्यों दूसरी शादी कर गृहस्थ अपनाता है? शास्त्रों के सारे नियम महिलाओं के लिए ही क्यों? धर्म तो सबके लिए समान है। ताराबाई शिंदे अपने हर काम से पुरुष सत्ता को चुनौती देने का काम किया हैं।
साहित्य के विभिन्न विषयों को लेकर के एक नई सोच के साथ महिलाओं की समस्या, यौन शोषण, परिवारिक समस्याएं, वर्चस्व की समस्याओं को लेकर महिला लेखन चला आ रहा है। महिला लेखन अपने अधिकारों के प्रति जागृति का काम कर रहा है। आधी आबादी की अपनी एक पहचान है, उसकी अपनी एक सोच है और उसको भी अपनी बात रखने का अधिकार है।
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