लैंगिक असमानता को खत्म करने के लिए आज तमाम कोशिशें भले की जा रही हैं लेकिन आज भी लड़कियों को भारतीय समाज गर्भ में ही मारने के अनेक प्रयास करता है। कन्या भ्रूण हत्या हमेशा से ही लैंगिक समानता की राह में भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक रहा है। ऐसे में अमेरिका के थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट काफी राहत देने वाली है। प्यू रिसर्च सेंटर की एक स्टडी में बताया गया है कि भारत में बेटे की चाहत रखने की सोच में गिरावट आ रही है।
हाल ही में जारी अमेरिकी थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों के हवाले से बताती है कि भारतीय परिवारों द्वारा जन्म से पहले भ्रूण का जेंडर पता लगाकर अबॉर्शन करवाने की संभावना पहले की तुलना में कम हो गई है। इस स्टडी के अनुसार लोगों में कन्या भ्रूण हत्या को लेकर काफी जागरूकता बढ़ी है। रिपोर्ट के मुताबिक साल 1970 में लिंग जांच तकनीक आई तो उसके बाद से लिंगानुपात में जो अंतर बढ़ना शुरू हुआ था, अब वह घटने लगा है।
रिपोर्ट की ओर से श्रेय भारतीय सरकार के किए गए उपायों को दिया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है, “ये सालों से किए गए सरकारी प्रयासों जैसे कि भ्रूण की लिंग जांच पर रोक, बेटी बचाओ जैसे विशेष अभियान और समाज में आ रहे विभिन्न आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों का” परिणाम है। रिपोर्ट में भारत की सरकार की सराहना की गई है।
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DW हिंदी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में साल 1901 में हर हजार पुरुषों पर 972 महिलाएं जन्म लेती थीं। वहीं, 1950 और 60 के दशक में भारत में हर 100 लड़कियों पर लगभग 105 लड़के जन्म लेते थे। ये उस समय के आंकड़े हैं, जब भारत में भ्रूण के लिंग परीक्षण की सुविधा नहीं थी। 1970 के दशक में थी भी तो आम लोगों के लिए बहुत महंगी और दुर्लभ थी। लेकिन फिर 1980 के दशक में अल्ट्रासाउंड तकनीक की शुरुआत के बाद से लिंग परीक्षण अधिक व्यापक और किफायती हो गया है।
हाल ही में जारी अमेरिकी थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों के हवाले से बताती है कि भारतीय परिवारों द्वारा जन्म से पहले भ्रूण का जेंडर पता लगाकर अबॉर्शन करवाने की संभावना पहले की तुलना में कम हो गई है। इस स्टडी के अनुसार लोगों में कन्या भ्रूण हत्या को लेकर काफी जागरूकता बढ़ी है।
भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार 100 लड़कियों पर लगभग 111 लड़कों के बड़े असंतुलन को पाटते हुए जन्म के समय लिंग अनुपात पिछले एक दशक में थोड़ा सामान्य हुआ है। बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र के अनुमानों और प्यू रिसर्च सेंटर के विश्लेषण से पता चलता है कि 2000 और 2020 के बीच के दो दशकों के दौरान भारत लिंगानुपात में सबसे खराब रहा है। अजरबैजान, चीन, आर्मेनिया, वियतनाम और अल्बानिया के बाद भारत दुनिया में छठे नंबर पर था।
प्यू की रिसर्च के मुताबिक सबसे बड़ा बदलाव भारत के सिख समुदाय में देखा गया है। साल 2000 के आंकड़ों को देखने पर पता चलता है कि सिख समुदाय में हर सौ लड़कियों पर 130 लड़कों ने जन्म लिया। साल 2011 में यह संख्या 121 पर आ गई थी और अब 110 पर है। यह राष्ट्रीय औसत 108 के काफी नजदीक है। वहीं, हिंदुओं में यह अनुपात 109 का है, ईसाइयों में 105 है और मुसलमानों में हर सौ लड़कियों पर 106 लड़के जन्म ले रहे हैं।
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भारत के उत्तर, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, मध्य और उत्तर-पूर्व राज्यों का हाल
पूरे भारत को इस अध्ययन में भौगोलिक कारकों के आधार पर उत्तर, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, मध्य और उत्तर-पूर्व छह क्षेत्रों में बांटा गया है। द प्रिंट की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर में- पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर और लद्दाख आते हैं। यहां जन्म के समय लिंग अनुपात हर 100 लड़कियों के लिए 2001 में पैदा हुए औसतन 118 लड़कों से घटकर 2019-21 में 111 लड़कों पर ठहर गया है।
प्यू की रिसर्च के मुताबिक सबसे बड़ा बदलाव भारत के सिख समुदाय में देखा गया है। साल 2000 के आंकड़ों को देखने पर पता चलता है कि सिख समुदाय में हर सौ लड़कियों पर 130 लड़कों ने जन्म लिया। साल 2011 में यह संख्या 121 पर आ गई थी और अब 110 पर है।
आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक जो पांच दक्षिणी राज्य है वहां यह अनुपात में वृद्धि देखी गई है। वर्ष 2019-21 में यहां प्रत्येक 100 लड़कियों पर 108 लड़के थे और वर्ष 2001 में यह अनुपात 106 रहा था। पूर्वी क्षेत्रों में बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के लिंगानुपात को बताया गया है। यहां वर्ष 2001 में लिंगानुपात 107 रहा फिर वर्ष 2019-21 में 109 और अब और भी खराब स्तर पर पहुंच गया है। पश्चिम भारत में आने वाले गुजरात, महाराष्ट्र और गोवा में यह अनुपात 116 से घटकर 108 हो चला है। पूर्वोत्तर के राज्यों अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड, मिजोरम, त्रिपुरा और सिक्किम में यह 105 से घटकर 104 है।
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भले ही भारत में 1996 से डॉक्टरों और अन्य चिकित्सकों और भ्रूण के माता-पिता के लिए भ्रूण लिंग का जानना गैरकानूनी है, लेकिन इसी कारण से साल 2000 और 2019 के बीच कम से कम 90 लाख लड़कियां लापता हो गई यानी वो जन्म नहीं ले सकी। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2010 में भारत में ‘लापता लड़कियों की संख्या’ 4.8 लाख थी जो साल 2019 में घटकर 4.1 लाख हो गई। लापता लड़कियां वे थीं जो जन्म नहीं ले पाई गर्भ में ही मार दी गई।
प्यू की रिपोर्ट यह भी बताती है कि NHFS का डेटा बताता है कि जो महिलाएं ज्यादा अमीर और ज्यादा शिक्षित हैं, उनके बेटे पैदा करने की संभावना कम होती है। NHFS के अनुसार, शहरों में रहनेवाले परिवारों में भी अपने ग्रामीण समकक्षों की तुलना में बेटों के पक्ष में होने की संभावना कम होती है, ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि वे अमीर और अधिक शिक्षित हैं।
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बेटे को माना जाता है वंश चलाने वाला
हमारे समाज में अक्सर बेटे के जन्म पर खुशियां मनाई जाती है और बेटी को घृणा की नजरों से देखा जाता है। लेकिन कई मामलों में भ्रूण हत्या का कारण परिवार की आर्थिक स्थिति या कोई रूढ़िवादी परंपरा भी होती है, जिसके चलते लोग बेटियों से अधिक बेटों को प्राथमिकता देते हैं। वहीं, बात अगर भारत की करें तो यहां माना जाता है कि बेटे से अधिक बेटी पर खर्चा होता है। भारतीय पितृसत्तात्मक समाज का मानना है कि केवल बेटे ही परिवार को आगे बढ़ा सकते हैं, बेटे ही वंश चलाते हैं। समाज द्वारा से बेटे के हाथों से ही मृत माता-पिता के लिए अंतिम संस्कार करने की अपेक्षा की जाती है, जैसे माता-पिता की चिता को मुखाग्नि देना आदि। बेटों का जन्म देना पैतृक संपत्ति को संरक्षित करने का एक तरीका रहा है क्योंकि पुरुष आमतौर पर विरासत के हकदार माने गए हैं। भले ही अधिकांश भारतीय कानून अब इसके ख़िलाफ़ मौजूद हैं।
भले ही भारत में 1996 से डॉक्टरों और अन्य चिकित्सकों और भ्रूण के माता-पिता के लिए भ्रूण लिंग का जानना गैरकानूनी है, लेकिन इसी कारण से साल 2000 और 2019 के बीच कम से कम 90 लाख लड़कियां लापता हो गई यानी वो जन्म नहीं ले सकी। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2010 में भारत में ‘लापता लड़कियों की संख्या’ 4.8 लाख थी जो साल 2019 में घटकर 4.1 लाख हो गई।
दूसरी तरफ हमारे घरों में बेटियों को ‘पराया धन’ माना जाता है और बेटियों के ससुराल वालों को शादी के समय दहेज़ दिया जाता है। कभी कभी दहेज़ देने के लिए परिवार को जीवनभर कर्ज चुकाना पड़ता है। लेकिन लड़के शादी के बाद भी माता-पिता के घर में रहना जारी रखते हैं। एक बेटी से उसके माता-पिता द्वारा दूसरे घर यानी अपने पति के परिवार के घर जाने की उम्मीद की जाती है। जानकारों का इस पर कहना है कि हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराएं अक्सर भौगोलिक मानदंडों से जुड़ी होती हैं। उदाहरण के लिए अगर देखें तो उत्तरी और पश्चिमी भारत में पितृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था भारत के अन्य हिस्सों विशेष रूप से दक्षिण की तुलना में अधिक प्रभावशाली हैं।
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तस्वीर साभार: The Telegraph