समाजकानून और नीति कितना अहम है अविवाहित महिलाओं के अबॉर्शन के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला

कितना अहम है अविवाहित महिलाओं के अबॉर्शन के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक अविवाहित महिला की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि अविवाहित महिलाओं के लिए भी विवाहित महिलाओं के समान, अबॉर्शन की 24 हफ्तों का समय उपलब्ध होना चाहिए।

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक अविवाहित महिला की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि अविवाहित महिलाओं के लिए भी विवाहित महिलाओं के समान, अबॉर्शन की 24 हफ्तों का समय उपलब्ध होना चाहिए। दुनिया के कई अन्य देशों की तरह भारत में भी आज भी लोगों का अपनी इच्छा से अबॉर्शन को चुनना, स्वास्थ्य और प्रजनन अधिकार नहीं, बल्कि किसी गलती को छिपाने की वजह समझी जाती है। अबॉर्शन से आज भी न जाने कितनी ही लड़ाइयां, चुनौतियां और मिथक आज तक जुड़े हुए हैं। पितृसत्तात्मक समाज के बनाए गए नियमों में अबॉर्शन सिर्फ किसी शादीशुदा महिला तक ही सीमित है। ध्यान देने वाली बात है कि यहां भी अबॉर्शन महिला की इच्छा या जरूरत के आधार पर नहीं, बल्कि पितृसत्तात्मक समाज के बनाए गए विभिन्न नियमों के अनुसार होते हैं।

भारतीय समाज शादी से पहले अपनी इच्छा और आज़ादी से यौन संबंध बनाने को गलत मानता है। इसलिए अविवाहित महिलाओं की अबॉर्शन तक पहुंच और भी ज्यादा मुश्किल हो जाती है। देश के सर्वोच्च न्यायालय की ओर से ऐसा फैसला न सिर्फ ज़रूरी माना जा सकता है, बल्कि सभी अविवाहित महिलाओं के लिए उम्मीद की एक किरण है। मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेगनेंसी एक्ट (एमटीपी) अधिनियम के तहत तत्काल यह समय सीमा सभी विवाहित, विधवा या तलाकशुदा महिलाओं के लिए 24 हफ्तों की है।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट का सभी महिलाओं को कानून की नज़र में एक समान बताया जाना एक सकारात्मक कदम है। लेकिन क्या कोर्ट के महज एक फैसले से सामाजिक रूढ़िवाद और पितृसत्ता को खत्म करना संभव हो सकता है? भारत में महिलाओं की कानून तक पहुंच के मद्देनज़र, क्या हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि अविवाहित महिलाओं के निजी जीवन पर सवाल किए बिना, उन्हें विवाहित महिलाओं के समान अबॉर्शन के अधिकार दिए जाएंगे?

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क्या है पूरा मामला

जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ की अगुआई में सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच एक 25 वर्षीय अविवाहित महिला के याचिका पर सुनवाई कर रहा था। इस महिला ने अपनी याचिका में दलील दी थी कि सिंगल महिलाओं को विधवा या तलाकशुदा महिलाओं के समान अनचाही गर्भावस्था को समाप्त करने का 24 हफ्तों की ऊपरी समय सीमा दी जानी चाहिए। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि किसी अविवाहित महिला को सुरक्षित अबॉर्शन के अधिकार से वंचित करना, उसकी व्यक्तिगत स्वायत्तता और स्वतंत्रता का उल्लंघन है। यह महिला अपने लिवइन रिश्ते के विफल होने के बाद, अबॉर्शन करवाना चाहती थी। इससे पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने महिला को 23 सप्ताह में अबॉर्शन करवाने की अनुमति नहीं दी थी।

लेकिन क्या कोर्ट के महज एक फैसले से सामाजिक रूढ़िवाद और पितृसत्ता को खत्म करना संभव हो सकता है? भारत में महिलाओं की कानून तक पहुंच के मद्देनज़र, क्या हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि अविवाहित महिलाओं के निजी जीवन पर सवाल किए बिना, उन्हें विवाहित महिलाओं के समान अबॉर्शन के अधिकार दिए जाएंगे?

सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को ख़ारिज करते हुए कहा कि लिवइन रिलेशनशिप को सुप्रीम कोर्ट पहले ही मान्यता दे चुका है। समाज में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो शादी से पहले यौन संबंध बनाने में कोई बुराई नहीं देखते। कोर्ट ने आगे कहा कि कानून का इस्तेमाल समाज की नैतिकता की धारणा को खत्म करने के लिए नहीं किया जा सकता और महिला को अबॉर्शन करवाने की मंजूरी भी दी।

क्या भारत के अबॉर्शन कानून को उदार माना जा सकता है?

आम तौर पर भारत के अबॉर्शन कानून को उदार माना जाता है। लेकिन, देश के कानूनी ढांचे और सामाजिक दृष्टिकोण के विश्लेषण से पता चलता है कि अबॉर्शन करवाना किसी महिला, विशेषकर अविवाहित महिला के लिए एक मुश्किल प्रक्रिया है। नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी ने साल 2021 में भारत में सुरक्षित अबॉर्शन सेवाओं तक पहुंच में, कानूनी बाधाओं पर एक अध्ययन जारी की। इस अध्ययन के अनुसार ऐसे कई कानूनी बाधाएं हैं जिसके कारण महिलाएं सुरक्षित अबॉर्शन को चुन नहीं पातीं। भारतीय दंड संहिता गर्भवती महिला की सहमति से गर्भपात (मिसकैरेज) होने पर भी इसे अपराध बताती है, जब तक कि यह अबॉर्शन महिला के जीवन को बचाने के लिए न किया जा रहा हो।

भारत में एक महिला जो अपने अबॉर्शन के लिए सहमति देती है या खुद अबॉर्शन करवाती है, वह भी आपराधिक रूप से जिम्मेदार मानी जाएगी। सुरक्षित अबॉर्शन सेवाओं तक सबकी पहुंच सुनिश्चित करने और कानून को उदार बनाने के लिए साल 1971 में एमटीपी अधिनियम बनाया गया था। यह अधिनियम आईपीसी के प्रावधानों में कुछ अपवाद मुहैया करवाता और उन शर्तों को निर्धारित करता है जिनके तहत कानूनी रूप से अबॉर्शन किया जा सकता है। लेकिन एमटीपी केवल कुछ निर्दिष्ट परिस्थिति में पंजीकृत चिकित्सकों के लिखे जाने पर ही अबॉर्शन की अनुमति देता है। अधिनियम उन शर्तों को भी निर्धारित करता है जिन्हें कानूनी रूप से अबॉर्शन के लिए पूरा किया जाना चाहिए।

आज भी देश की चिकित्सकीय व्यवस्था अबॉर्शन को नैतिकता, शर्म और अपराध के साथ जोड़ती है और महिला को दोषी ठहराया जाता है। इस तरह महिला की सहमति के बावजूद, अबॉर्शन करवा पाना तभी संभव हो सकता है, जब महिला की पहुंच किसी ऐसे चिकित्सक तक हो, जो पूर्वाग्रह और पितृसत्तात्मक मानसिकता का शिकार न हो।

नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया के अनुसार यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण करने के लिए पोक्सो (POCSO), आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 (सीआरपीसी) में अनिवार्य रिपोर्टिंग की आवश्यकता, पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (PCPNDT) अधिनियम और राज्य और राष्ट्रीय स्तर के ड्रग विनियम; सुरक्षित अबॉर्शन सेवाओं तक महिलाओं की पहुंच में अतिरिक्त कानूनी बाधाएं पैदा करते हैं।

हालांकि हमारे देश का कानून अबॉर्शन के लिए महिला की रजामंदी होना अनिवार्य मानता है। लेकिन अंतिम फैसला लेने का अधिकार आज भी डॉक्टरों के पास ही है। आज भी देश की चिकित्सकीय व्यवस्था अबॉर्शन को नैतिकता, शर्म और अपराध के साथ जोड़ती है और महिला को दोषी ठहराया जाता है। इस तरह महिला की सहमति के बावजूद, अबॉर्शन करवा पाना तभी संभव हो सकता है, जब महिला की पहुंच किसी ऐसे चिकित्सक तक हो, जो पूर्वाग्रह और पितृसत्तात्मक मानसिकता का शिकार न हो। ध्यान देने वाली बात है कि हमारा कानून ऐसा कोई प्रावधान नहीं देता कि महिला; चिकित्सक के रूढ़िवादी मानसिकता को नज़रअंदाज कर कानून के आधार पर अबॉर्शन करवा सके।

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क्या कोर्ट का निर्णय सभी के अबॉर्शन के अधिकार को सुनिश्चित करता है

हालांकि दुनिया में अबॉर्शन को मानवाधिकार का दर्जा दिया गया है, लेकिन भारत में मौजूदा अबॉर्शन कानून मूल रूप से महिलाओं के मद्देनज़र बनाए गए हैं। इसलिए स्वाभाविक रूप से दूसरे जेंडर जैसे ट्रांस या नॉन-बाइनरी लोगों के लिए सुरक्षित अबॉर्शन के विकल्प को चुनना आज भी कानूनन संभव नहीं। अबॉर्शन के विकल्प को चुनना उनके लिए और भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण और लम्बा हो सकता है। भारत में अमूमन अबॉर्शन को महिलाओं की गरिमा को बचाने का आखिरी तरीका के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इस रूढ़िवादी सोच के बावजूद, पबमेड सेंट्रल में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में लगभग सभी बलात्कार सर्वाइवर्स को सार्वजनिक अस्पतालों में सुरक्षित अबॉर्शन की मांग करने पर, उन्हें वह सुविधा मुहैया नहीं कराई गई।

इस रिपोर्ट में शामिल 74 लोग (72 महिलाएं और 2 बच्चे) बलात्कार के सर्वाइवर थे जिन्होंने अबॉर्शन की मांग की थी। 55 महिलाओं ने गर्भावस्था के 20 सप्ताह से पहले अबॉर्शन की मांग की, और दो बच्चे और 19 महिलाओं ने 20 सप्ताह के बाद यह मांग की थी। यह पाया गया कि गर्भावस्था के 20 सप्ताह के बाद, अबॉर्शन की मांग करने वालों में से कोई भी अबॉर्शन नहीं करवा पाया। इस सर्वेक्षण में शामिल उन दो बच्चों को भी अबॉर्शन करने की अनुमति नहीं दी गयी, जबकि वे उच्च न्यायालय से इसके लिए अनुमति पाने की प्रक्रिया का पालन भी कर चुके थे। जिन लोगों ने 20 सप्ताह से पहले अबॉर्शन की मांग की थी, उन 55 महिलाओं में से केवल 36 ही अबॉर्शन कराने में सफल रहे। बता दें कि कानूनन 20 हफ़्तों से पहले के गर्भावस्था के दौरान अबॉर्शन की अनुमति बिना किसी देरी या सवाल के दी जानी चाहिए। साफ़ तौर पर देश में आज भी पर कानून और ज़मीनी हकीकत बहुत अलग हैं।

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यह सवाल जरूरी है कि क्यों भारत में नीति निर्माताओं ने अबॉर्शन के कानून में महिलाओं को सर्वोपरि नहीं रखा। साथ ही, हमारे मौजूदा कानून से यह धारणा झलकती है कि अबॉर्शन का अर्थ ‘बच्चे की हत्या’ करना है। इसलिए, अबॉर्शन को सिर्फ ऐसी परिस्थिति में ही इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है, जहां बच्चे के जन्म से माँ के जीवन को कोई संभावित खतरा हो। यानि महिला के निजी विकल्प या मानसिक, आर्थिक और भावनात्मक हालात यहां गैर-जरूरी है। समस्या यह है कि हमेशा से अबॉर्शन को एक साधन के तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है। इसलिए इसे व्यक्ति के निजी यौन और प्रजनन अधिकार के रूप में नहीं देखा जाता।

वैज्ञानिक दुनिया से परे जब हमारी फिल्मों, धारावाहिकों और कथाओं में भ्रूण को बच्चे के तरह चित्रित किया जाता है, तो इस बात का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता कि इसका प्रभाव किन पर, कितना और कब तक रहेगा। असुरक्षित अबॉर्शन भारत में मातृ मृत्यु दर का तीसरा प्रमुख कारण है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) के UNFPA की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में असुरक्षित अबॉर्शन से संबंधित कारणों से हर दिन करीब 8 महिलाओं की मौत होती है। साल 2007 से 2011 के बीच भारत में हुए 67 प्रतिशत अबॉर्शन को असुरक्षित चिन्हित किया गया था। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि भारत में अबॉर्शन कानूनी होते हुए भी, इसका लाभ उठा पाना आसान नहीं है। जरूरत है कि हम सामाजिक नैतिकता और पितृसत्तात्मक मानदंडों को छोड़ अबॉर्शन को वैज्ञानिक नजरिए से सभी के मौलिक अधिकार के रूप में देखें।

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तस्वीर साभार: Centre for Reproductive Rights

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