अधिक बारिश की वजह से सितंबर के आखिर में अचानक उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में प्रशासन की ओर से स्कूल बंद करने की ख़बर सामने आई। उत्तर प्रदेश के लगभग 19 ज़िलों में भारी बारिश के येलो अलर्ट के बाद स्कूलों को बंद करना पड़ा। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। साथ ही यह सिर्फ उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है कि जब मौसम के इस तरह के बदलावों की वजह से स्कूल जानेवाले बच्चों की शिक्षा बाधित हुई हो। इससे पहले असम में आई भीषण बाढ़ की वजह से धुबरी में 1000 से ज्यादा स्कूल क्षतिग्रस्त होने की ख़बरें आई थी। इसी साल हीट वेव्स की वजह से सरकार ने स्कूलों के लिए गाइडलाइंस जारी की थी जिस वजह से स्कूल के समय को घटाने के लिए कहा गया था।
बदलते मौसम की वजह से मनुष्य के जीवन पर कई तरह का असर पड़ता है। इसी में से एक है आपदा और मौसम में हुए बदलावों की वजह से स्कूल जाने वाले बच्चों की शिक्षा का प्रभावित होना। यह बाधा एक-दो दिन की छुट्टी से लेकर महीनों-महीनों तक स्कूल बंद होने के अलावा प्रभावित क्षेत्र के बच्चों की हमेशा के लिए शिक्षा से दूरी में भी बदल जाती है।
जलवायु परिवर्तन की वजह से अनियमित बारिश, हीटवेव्स, बाढ़, चक्रवात और तूफान आदि बच्चों की शिक्षा तक पहुंच को गंभीर तौर पर बाधित कर रहे हैं। हाशिये पर रहने को मजबूर परिवार से ताल्लुक रखने वाले बच्चे इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। प्राइमरी और माध्यमिक शिक्षा पाने वाले बच्चों की पढ़ाई पर सीधा असर पड़ता है। पढ़ाई में होने वाली बाधा बच्चों में तनाव पैदा करती है।
यूनिवर्सिटी ऑफ आक्सफोर्ड में प्रकाशित डेटा लाइव्स में भारत के आंकड़ों के हवाले से कहा गया है कि प्राकृतिक आपदाएं बच्चों के सीखने की क्षमता को भी प्रभावित करती हैं। गर्भवती माँ अगर सूखा, बाढ़ या तूफान का अनुभव करती है तो वह बच्चे की शब्दावली (वोकैब) सीखने पर पांच साल की उम्र तक असर डालता है। इसका लंबा असर बच्चे के बुनियादी गणित और सामाजिक-भावनात्मक कौशल सीखने पर भी पड़ता है। जलवायु परिवर्तन से हुए बदलाव की वजह से हुआ सदमा बच्चों और युवाओं की सीखने और शिक्षा को उनके पूरे जीवन में कई स्तरों पर प्रभावित करता है।
जलवायु परिवर्तन किस तरह है शिक्षा में बाधा
जलवायु परिवर्तन से आई आपदाओं का शिक्षा के क्षेत्र पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोंनो तरीके से गहरा असर पड़ता है। मौसम के बदलाव सीधे स्कूल और शिक्षण सामग्री को तबाह कर देते हैं। आपातकालीन शेल्टर के तौर पर बनाए स्कूल, सबकी शिक्षा को जारी रखने में नाकामयाब होते हैं। यही नहीं, स्कूल तक पहुंचने वाली सड़कों की क्षति भी बच्चों से स्कूल की दूरी की एक वजह बनती है। दूर-दराज के क्षेत्र में रहनेवाले बच्चों का तेज हवा, भारी बारिश की वजह से सड़क से संपर्क खत्म हो जाता है।
साथ ही प्राकृतिक आपदा की वजह से जीवनयापन के लिए लोग दूसरी जगहों पर रोज़गार के लिए जाते हैं जिससे बच्चों का स्कूल बीच में ही छूट जाता है। आपदा की वजह से रोज़गार की तलाश में पलायन सबसे ज्यादा होता है। इंटरनेशनल डिसप्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर के अनुसार 2020 में दुनिया के 149 देशों में युद्ध और जलवायु परिवर्तन की वजह से 40.8 मिलियन लोग विस्थापित हुए हैं। अकेले भारत में 38 लाख से अधिक लोग आपदा की वजह से विस्थापित हुए हैं।
जलवायु परिवर्तन की वजह से अनियमित बारिश, हीटवेव्स, बाढ़, चक्रवात और तूफान आदि बच्चों की शिक्षा तक पहुंच को गंभीर तौर पर बाधित कर रहे हैं। हाशिये पर रहने को मजबूर परिवार से ताल्लुक रखने वाले बच्चे इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं।
विस्थापन के बाद अगर दूसरी जगह बच्चा पढ़ने जाता है तो कई जगह शिक्षा हासिल करने में उसे भाषा की बाधा का भी सामना करना पड़ता है। जलवायु संकट से गरीबी का संकट बढ़ता है जिस वजह से शिक्षा हासिल करने में बाधा उत्पन्न होती है। यही नहीं, इस वजह से तनाव की स्थिति भी पैदा होती है जो उनकी पढ़ाई को पूरी तरह बाधित करती है। आपदा की वजह से स्कूल में पीने का साफ पानी की समस्या भी होती है। पानी की व्यवस्था न होने की वजह से किशोरी लड़कियों को मेंस्ट्रुएशन साइकल के दौरान और भी ज्यादा परेशानी उठानी पड़ती है। इसका असर उनकी स्कूल में उपस्थिति पर पड़ता है। प्राकृतिक आपदा से प्रभावित क्षेत्रों में अस्थायी शेल्टर भी शिक्षा को प्रभावित करते हैं। प्राकृतिक आपदा से पीड़ित लोगों को स्कूलों की इमारतों में शरण दी जाती है जिस वजह से बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं।
प्राकृतिक तबाही से प्रभावित होते स्कूल
यूनिसेफ के अनुसार खेती पर अधिक निर्भरता की वजह से जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को लेकर दक्षिण एशिया सबसे अधिक संवेदनशील जगहों में से एक है। इस क्षेत्र में 600 मिलियन से अधिक बच्चे रहते हैं। यूनिसेफ के फर्स्ट चिल्डे्स क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स (सीसीआरआई) के अनुसार जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाओं की वजह से बच्चे शोक और तनाव का अधिक सामना करते हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और भारत उन देशों में शामिल हैं जिनमें जलवायु परिवर्तन से होनेवाले खतरे सबसे ज्यादा हैं।
बदलते मौसम की वजह से मनुष्य के जीवन पर कई तरह का असर पड़ता है। इसी में से एक है आपदा और मौसम में हुए बदलावों की वजह से स्कूल जाने वाले बच्चों की शिक्षा का प्रभावित होना। यह बाधा एक-दो दिन की छुट्टी से लेकर महीनों-महीनों तक स्कूल बंद होने के अलावा प्रभावित क्षेत्र के बच्चों की हमेशा के लिए शिक्षा से दूरी में भी बदल जाती है।
इस सूची में 163 देशों में भारत 26वें नंबर पर है। साल 2019 में ओडिशा में चक्रवात फैनी ने प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के 5,735 स्कूलों को क्षतिग्रस्त किया था। पुरी ज़िले में 86.2 प्रतिशत स्कूल तबाह हो गए थे। शिक्षा क्षेत्र को पूरे 814 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था।
जलवायु परिवर्तन के सब्मिट्स में बच्चों की शिक्षा पर चर्चा
जलवायु परिवर्तन, पूरे विश्व के लिए एक बड़ी भीषण समस्या है। मानव विकास के मार्ग में से एक शिक्षा क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। जलवायु संकट से निपटने के लिए दुनिया के देश एक मंच पर इकठ्ठा होकर इस मुद्दे पर चर्चा करते भी दिखते हैं। हालांकि, इन सम्मेलनों से धरातल पर कितनी तस्वीर बदलती है यह हमें मौसम के बदलते मिजाज़ से ही समझ लेना चाहिए। दूसरी ओर, जलवायु संकट के लिए तैयार नीतियों में बच्चों की शिक्षा पर पड़ने वाले प्रभाव को उस तरह से संबोधित नहीं किया जाता है जितनी इसकी ज़रूरत है।
साल 2021 में ग्लासको में कॉप-26 सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में कहा था कि जलवायु परिवर्तन हमें अपने स्कूली पाठ्यक्रम में जलवायु परिवर्तन के अनुकूल नीतियों को शामिल करने की ज़रूरत है। प्रधानमंत्री मोदी के भाषण से इतर भारत सरकार ही इस बात पर अमल करती ही नहीं दिखी।
द हिंदू में प्रकाशित ख़बर के अनुसार नैशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) ने अपने पाठ्यक्रम में बदलाव में कई कक्षा में पर्यावरण शिक्षा के चैप्टर हटाए हैं। इसमें कक्षा-11 का ‘ग्रीनहाउस इफैक्ट’, कक्षा-7 में ‘वेदर, क्लाइमेट एंड वाटर’ और कक्षा-9 में ‘द इंडियन मानसून’ शामिल है। पाठ्यक्रम में बदलाव को विद्यार्थी के ऊपर से बोझ कम करने का तर्क दिया गया। पर्यावरण के मुद्दे पर सरकार कितनी संवेदनशील है इससे साफ जाहिर होता है। हालांकि, सरकार ने आलोचना के बाद इस फैसले को पलटकर पाठ्यक्रम को पहले जैसा रखा था।
जलवायु परिवर्तन को लेकर बड़ी बहसें और चिंतन अंतर्रराष्ट्रीय मंचों के माध्यम से हर देश में चल रही हैं। इसी के तहत हर दक्षिण एशियाई देश में नैशनल क्लाइमेट चेंज पॉलिसी और स्ट्रेटजी के डॉक्टूमेंट विकसित किए गए हैं। पाकिस्तान, दक्षिण एशिया का अकेला देश है जहां क्लाइमेट चेंज ऐक्ट मौजूद है। भारत में नैशनल एक्शन प्लॉन ऑन क्लाइमेट चेंज (2008) डॉक्यूमेंट के तहत स्कूल और कॉलेज लेवल पर पाठ्यक्रम के तहत ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट तैयार करना है। हालांकि रिपोर्ट यह भी कहती है कि कुल मिलाकर दक्षिण एशिया में अधिकांश जलवायु परिवर्तन नीति और रणनीति से जुड़े दस्तावेजों में बच्चों और युवाओं का उल्लेख बिल्कुल नहीं है।
भारत में केरल में राज्य सरकार द्वारा स्थानीय नीति-निर्माण में बच्चों और युवाओं को शामिल करके जलवायु परिवर्तन से जुड़ी नीतियों में शामिल किया गया है। सभी क्षेत्रों में चाइल्ड फ्रेंडली स्थानीय शासन को साकार करने के लंबे प्रयासों में से एक है। इन प्रयासों में वायनाड़ जिले में कार्बन-न्यूट्रल पंचायत मॉडल बनाना भी है। स्थानीय सरकार के इस मॉडल में युवा, बच्चों और शैक्षिक संस्थाओं को प्रमुख तौर पर शामिल किया गया है।
जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणामों को लेकर सरकार को नीतियों के निर्माण में इस पक्ष को शामिल करने की सबसे ज्यादा ज़रूरत है। यू-रिपोर्ट के सर्वे के अनुसार दक्षिण एशियाई देशों 62 फीसदी युवा का मानना है कि सरकार को जलवायु परिवर्तन के लिए ज्यादा सजग होकर कदम उठाने चाहिए। 64 फीसदी सोचते हैं कि यह कम से कम कोविड-19 के बाद सरकारें जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को और गंभीरता से संबोधित करने की ज़रूरत है।