‘यौनिकता’ एक ऐसा शब्द और एक ऐसी धारणा है जिस पर बात करने से हमारा समाज हमेशा दूर भागता है। बात अगर हम स्त्री की यौनिकता की करें तो पुरुष की नज़रों में स्त्री मात्र एक देह है। उसे लगता है वहीं से उसकी स्वतंत्र चेतना जन्म लेती है। इसलिए पितृसत्तात्मक हर प्रकार से उसकी यौनिकता को नियंत्रित करने की कोशिश करता है।
पितृसत्तात्मक समाज स्त्री को उसकी यौनिकता के बगैर संपूर्णता में नहीं देखता। जैसे एक पुरुष की खूबियों और खामियों का लेखा-जोखा मिलाकर उसके व्यक्तित्व की संपूर्णता सुनिश्चित की जाती है वैसा स्त्री के मामले में नहीं किया जाता। पितृसत्तात्मक समाज स्त्री के व्यक्तित्व को केवल उसके देह की ‘तथाकथित शुद्धता’ के आधार पर पूर्ण या अपूर्ण घोषित करता है। समाज के परंपरागत नियम या मानदंड स्त्री को उसकी देह के बगैर संपूर्णता में नहीं देख पाते।
पितृसत्तात्मक समाज ने स्त्री के शरीर को दो हिस्सों में बांटा है। पहला कमर से ऊपर की स्त्री दूसरा कमर से नीचे की स्त्री। पितृसत्तात्मक समाज की नज़रों में स्त्री का शरीर उसके लिए वरदान भी है और अभिशाप भी। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि हमारा पितृसत्तात्मक समाज यह स्वीकार करता है कि स्त्री का शरीर और उसकी यौनिकता जब तक पुरुष के नियंत्रण में रहती है तब तक वह सौंदर्य और आकर्षण है, लेकिन जैसे ही वह उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर निकल जाती है तब वह दंडनीय और आलोचनीय है।
पितृसत्तात्मक समाज स्त्री को उसकी यौनिकता के बगैर संपूर्णता में नहीं देखता। जैसे एक पुरुष की खूबियों और खामियों का लेखा-जोखा मिलाकर उसके व्यक्तित्व की संपूर्णता सुनिश्चित की जाती है वैसा स्त्री के मामले में नहीं किया जाता। पितृसत्तात्मक समाज स्त्री के व्यक्तित्व को केवल उसके देह की ‘तथाकथित शुद्धता’ के आधार पर पूर्ण या अपूर्ण घोषित करता है।
पुरुष ने स्त्री की जिस एक चीज को सबसे ज्यादा शोषित किया है वह है उसकी यौनिकता, जहां से किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्र चेतना की शुरुआत होती है। पितृसत्तात्मक समाज हर प्रकार से औरतों की यौनिकता पर कब्ज़ा करना चाहता है। तो प्रश्न यहां यह उठता है कि पुरुष हर तरह से स्त्री की यौनिकता पर अपना अधिकार क्यों स्थापित करना चाहता है?
क्यों एक स्त्री समाज के सामने अपने ऑर्गैज़म पर बात करने से हिचकिचाती है? जब स्त्री अपनी सेक्स लाइफ या अपने चरम सुख पर बात करना चाहती है तो क्यों ये समाज उसे अश्लील और बदचलन घोषित कर देता है? उत्तर बस इतना सा है कि यह पितृसत्तात्मक समाज समझता है कि स्त्री की यौनिकता ही एक ऐसी चीज है जहां से उसकी स्वतंत्रता को काबू में किया जा सकता है।
हाल ही में अभिनेता मुकेश खन्ना का एक वीडियो सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुआ। इस वीडियो में उन्होंने कहा था कि जो लड़की किसी लड़के को सेक्स के लिए कह रही है, वह धंधा करती है। ऐसी चीजों में लोगों को नहीं पड़ना चाहिए।’ मुकेश खन्ना आगे कहते हैं, ‘अगर कोई लड़की ऐसा कहती है तो इसका सीधा मतलब है कि वह लड़की सभ्य समाज की नहीं है, क्योंकि सभ्य समाज की लड़की ऐसा नहीं कहेगी।’ ऐसी आपत्तिजनक और विवादित टिप्पणियों से पितृसत्तात्मक समाज का वह घिनौना रूप सामने आता है जो एक ओर तो स्त्रियों के शरीर पर अपना पूर्ण अधिकार स्थापित करना चाहता है वहीं दूसरी ओर उसकी चेतना को भी अपने काबू में रखना चाहता है।
हमारा पितृसत्तात्मक समाज यह स्वीकार करता है कि स्त्री का शरीर और उसकी यौनिकता जब तक पुरुष के नियंत्रण में रहती है तब तक वह सौंदर्य और आकर्षण है, लेकिन जैसे ही वह उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर निकल जाती है तब वह दंडनीय और आलोचनीय है।
पितृसत्तात्मक समाज स्त्री की यौनिकता को उसकी शारीरिक और मानसिक शुद्धता का प्रतीक मानता है। अगर कोई स्त्री अपनी यौनिकता को ‘सुरक्षित’ रखने की परीक्षा में असफल सिद्ध होती है तो यह समाज उसे हीन भावना से देखता है। समाज की नज़र में वह स्त्री सम्मान के लायक नहीं रह जाती।
स्पष्ट होता है कि पितृसत्तात्मक समाज स्त्री को पुरुष की दैहिक इच्छाओं की पूर्ति करनेवाली मात्रा एक वस्तु समझता है। वह हर तरह से उसको अपने अधिकार क्षेत्र में रखना चाहता है। उसके शरीर, मन, एवं भावनाओं पर अपना पूर्ण नियंत्रण स्थापित करना चाहता है ताकि वह इसे अपने तरीके से जैसा चाहे वैसा रूप दे सके। वह ऐसा इसलिए करता है ताकि खुद समाज का मुखिया बन उस पर अपने अनियंत्रित और निरंकुश शासन को एक नई दिशा दे सके।