इतिहास आज़ादी की लड़ाई में मुस्लिम औरतों की हिस्सेदारी

आज़ादी की लड़ाई में मुस्लिम औरतों की हिस्सेदारी

हम इस लेख के ज़रिये उन कुछ औरतों से आपका तार्रुफ़ करवा रहे हैं जिन्हें शायद आप जानते होंगे लेकिन आज़ादी के आंदोलन के उनके संघर्षों को न के बराबर याद किया जाता है। ये अब इतिहास के अभिलेखागार में खोने को हैं जबकि वे अस्ल में तो अमर औरतें हैं।

हम आज़ादी का 75वां महोत्सव मना चुके हैं। लेकिन हम आज़ादी के पूरे संघर्ष और आंदोलन में महिलाओं के संघर्ष, खासतौर पर मुस्लिम औरतों को भूल जाते हैं। हम गिनती के एक दो लोगों की शहादत और उनके संघर्ष के बारे में बात करते हैं जो काफ़ी नहीं है। आज़ादी के संघर्षों में शामिल औरतों की कुर्बानियां क्यों नहीं बताई जाती हैं। बेगम हज़रत महल, आबादी बनो और थोड़ा देखें तो अरुणा आसफ़ के बारे में लिखा या कहा जाता है। लेकिन ज़मीनी संघर्ष में शामिल, राजनीतिक दखल और मैदान में लड़नेवाली, आज़ादी के आंदोलन को ताक़त देनेवाली, हमारे ही देश की अनेक औरतों के बारे में जानने से हमें महरूम रखा गया है। हम इस लेख के ज़रिये उन कुछ औरतों से आपका तार्रुफ़ करवा रहे हैं जिन्हें शायद आप जानते होंगे लेकिन आज़ादी के आंदोलन के उनके संघर्षों को न के बराबर याद किया जाता है। ये अब इतिहास के अभिलेखागार में खोने को हैं जबकि वे अस्ल में तो अमर औरतें हैं।

कुलसुम सयानी

तस्वीर साभार: कौमी आवाज़

21 अक्टूबर 1900 को गुजरात में कुलसुम सयानी की पैदाइश हुई थी। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लिया और सामाजिक अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी। साल 1917 में कुलसुम और उनके पिता महात्मा गांधी से मिले। पूरे राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान, उन्होंने सामाजिक बदलाव की वकालत की। उन्होंने साक्षरता के लिए भी लोगों के साथ काम करना शुरू किया और चरखा वर्ग में शामिल हो गईं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जन जागरण अभियानों में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।

हजारा बीबी

हजारा बीबी, आंध्र प्रदेश के गुंटूर ज़िले के तेनाली क्षेत्र की एक स्वतंत्रता सेनानी थीं। हजारा बीबी और उनके शौहर इस्माइल, इस जोड़ी पर महात्मा गांधी का ख़ासा असर पड़ा। उन्होंने खादी अभियान आंदोलन से खुद को जोड़ा। गुंटूर ज़िले में, उनके पति मोहम्मद इस्माइल ने पहला खद्दर स्टोर खोला, जिससे उन्हें ‘खद्दर इस्माइल’ उपनाम मिला। उस वक़्त आंध्र क्षेत्र में मुस्लिम लीग का काम विशेष रूप से सक्रिय था। चूंकि हजारा और उनके शौहर ने गांधी का समर्थन किया, इसलिए उन्हें मुस्लिम लीग से ज़बरदस्त दुश्मनी का सामना करना पड़ा। राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने के लिए अपने शौहर की बार-बार गिरफ्तारी के बावजूद हजारा बीबी ने कभी हिम्मत नहीं हारी।

बाजी जमालुन्निसा

बाजी जमालुन्निसा का जन्म साल 1915 में हैदराबाद में हुआ था और 22 जुलाई 2016 को 101 वर्ष की आयु में इसी शहर में उनका निधन हो गया। बाजी जमालुन्निसा सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ अमन और आज़ादी की एक मज़बूत आवाज़ थीं। उन्होंने एक उदार/प्रगतिशील माहौल में अपने माता-पिता की परवरिश के साथ बचपन से ही प्रगतिशील साहित्य पढ़ना शुरू कर दिया था। निज़ाम के दमनकारी शासन और अपने ससुरालवालों की आपत्तियों के बावजूद उन्होंने आज़ादी के आंदोलन में भाग लेना जारी रखा। उन्होंने अंग्रेज़ी हूकूमत से गिरफ्तार होने से बचने की कोशिश कर रहे स्वतंत्रता सेनानियों को जगह भी मुहैया करवाई। उच्च शिक्षा की कमी के बावजूद, वह उर्दू और अंग्रेजी में पारंगत थीं और उन्होंने साहित्यिक समाज ‘बज़्मे एहबाब’ की शुरुआत की थी। बाजी प्रगतिशील लेखक संघ और महिला सहकारी समिति की संस्थापक सदस्य भी थीं।

बेगम निशातुन्निसा मोहनी

तस्वीर साभार: Muslims of India

बेगम निशातुन्निसा मोहनी साल 1884 में अवध, उत्तर प्रदेश में पैदा हुई थीं। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई के लिए प्रतिबद्ध, मौलाना हसरत मोहनी से शादी की। ब्रिटिश सत्ता की सख्त खिलाफ़त करनेवाली बेगम ने आज़ादी की लड़ाई में बाल गंगाधर तिलक का समर्थन किया। ब्रिटिश हूकूमत के ख़िलाफ़ लेख प्रकाशित करने के लिए उन्हें जेल तक भेज दिया गया था। बेगम निशातुन्निसा मोहनी ने अपने शौहर हसरत मोहानी के हौसले बुलंद किए। जब उनके पति जेल में थे तो उन्होंने अपने दैनिक, उर्दू-ए-मुल्ला के प्रकाशन को भी बख़ूबी संभाला।  

बेगम अनीस किदवई

तस्वीर साभार: Sabrang India

बेगम अनीस किदवई की पैदाइश 1906 को उत्तर प्रदेश में हुई। बेग़म अनीस किदवई ने अपनी पूरी ज़िंदगी नये आज़ाद भारत की ख़िदमत करने, अमन के लिए काम करने और विभाजन के पीड़ितों के पुनर्वास के लिए लगा दी। उन्होंने 1956 से 1962 तक राज्यसभा में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिनिधित्व किया। साल 1947 में आज़ादी हासिल करने के बावजूद, भारत को बंटवारे का सामना करना पड़ा। तब तक, उनके शौहर शफी अहमद किदवई की सांप्रदायिक ताकतों ने मुसलमानों और हिंदुओं के बीच सौहार्द को बढ़ावा देने और देश के बंटवारे को रोकने के प्रयासों के लिए हत्या कर दी थी। पति के चले जाने से वह बुरी तरह टूट गई थीं लेकिन उन्होंने अमन के लिए अपना काम जारी रखा।

बीबी अम्तुस सलाम

बीबी अम्तुस सलाम महात्मा गांधी की ‘दत्तक बेटी’ और एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं। बंटवारे के बाद सांप्रदायिक हिंसा का मुकाबला करने और विभाजन के बाद भारत आनेवाले शरणार्थियों के पुनर्वास में उन्होंने ख़ास भूमिका निभाई थी। कई मौकों पर कलकत्ता, दिल्ली और दक्कन में सांप्रदायिक दंगों के दौरान संवेदनशील क्षेत्रों में अपनी जान जोखिम में डालकर पुनर्वास और अमन के काम में वह लगी रहीं। द ट्रिब्यून में प्रकाशित एक लेख में उल्लेख किया गया है कि कैसे इन्होंने दंगों के अपराधियों यह महसूस करवाने के लिए कि वे कितने ग़लत हैं 25 दिनों तक उपवास किया था। हिंसा के दौरान अपहृत महिलाओं और बच्चों को बचाने की कोशिश में राज्य के अधिकारियों की लापरवाही के विरोध में, वह बहावलपुर के डेरा नवाब में अनिश्चितकालीन अनशन पर भी बैठ गई थीं।  

सैयद फकरूल हाजिया हसन

तस्वीर साभार: Facebook

सैयद फकरूल हाजिया हसन, एक ऐसे परिवार में पैदा हुई थी जो इराक से भारत में आकर बसा था। हाजिया ने आमिर हसन से शादी की थी जिसके बाद वे उत्तर प्रदेश से हैदराबाद आकर बस गईं। उन्होंने भारत में औरतों की पीड़ा को देखा। उन्होंने विदेशी सामान के ख़िलाफ़ चले आंदोलन के समर्थन में हैदराबाद के ट्रूप बाजार में अपनी आबिद मंजिल में मौजूद विदेशी कपड़ों को जला दिया। उन्होंने असहयोग और खिलाफ़त आंदोलनों में हिस्सा लिया। सरोजिनी नायडू के साथ मिलकर फकरूल हाजिया ने साथ में आज़ाद हिंद फौज के नायकों को रिहा कराने में काफी मेहनत की।

बेखौफ़ अजीजन बाई

अजीजन बाई के बचपन के बारे में दो अलग-अलग बातें सामने आती हैं। पहला- अजीजन का जन्म साल 1832 में लखनऊ में एक तवायफ़ के घर में हुआ था।  उनकी मां की जल्द ही मृत्यु हो गई थी। कुछ बड़ी होने पर मां की जगह उन्होंने संभाली, बाद में वह कानपुर में आ गई और यहीं मुजरा करने लगीं।  दूसरी बात यह है कि जीजन बाई का जन्म 22 जनवरी सन 1824 को मध्य प्रदेश के मालवा राज्य के राजगढ़ में हुआ था। उनके पिता शमशेर सिंह एक ज़ागीरदार थे। अजीजन का मूल नाम अंजुला था। एक दिन वे अपनी सहेलियों के साथ मेला घूमने गयी थीं। वहां पर अचानक एक अंग्रेज़ टुकड़ी ने हमला कर दिया और उन्हें अगवा कर लिया। अंजुला को लेकर जब अंग्रेज सिपाही नदी पर बने पुल से गुजर रहे थे, तो उसी वक्त जान बचाने के लिए अंजुला नदी में कूद गई। जब अंग्रेज वहां से चले गए, तो एक पहलवान ने नदी में कूद कर अंजुला की जान बचाई। वह पहलवान कानपुर के एक चकलाघर के लिए काम करता था। उसने अंजुला को ले जाकर वहां बेच दिया। इस प्रकार अंजुला का नाम बदल कर अजीजन बाई हो गया और उन्हें तवायफ की ट्रेनिंग दी जाने लगी। 

उनकी परवरिश और हालात जैसे भी रहे हो लेकिन ये सब मिलकर उनके हौसले को कम नहीं कर सके। वह बेहतरीन नर्तकी कलाकार होने के साथ साथ वे निडर और बेबाक थीं। यह उन्होंने बेबाकी से अपनी जान गंवाते हुए साबित किया। इतना ही नहीं वह एक बेखौफ़ लीडर भी साबित हुईं। उन्होंने 400 महिलाओं की ‘मस्तानी टोली’ तैयार कर उन्हें ट्रेनिंग दी और सबको आज़ादी के आंदोलन में शामिल किया। उन्होंने इस लड़ाई में पहले अपना घर रणबांकुरों को सौंप दिया और फिर खुद भी जंग के मैदान में कूद गईं। अंग्रेज जंग तो जीत गए, मगर अजीजन बाई का सिर न झुका पाए।

आबादी बानो बेगम

तस्वीर साभार: Wikipedia

आबादी बानो बेगम उन पहली मुस्लिम महिलाओं में से एक थीं जिन्होंने सक्रिय रूप से राजनीति में भाग लिया और भारत को ब्रिटिश राज से आज़ादी दिलाने के आंदोलन का भी हिस्सा थीं। आबादी बानो बेगम की पैदाइश 1850 में उत्तर प्रदेश के अमरोहा में हुई थी। अपने शौहर की मौत के बाद, बानो ने अपने बच्चों को अपने दम पर पाला। उनके बेटे, मौलाना मोहम्मद अली जौहर और मौलाना शौकत अली खिलाफत आंदोलन और भारतीय आज़ादी के आंदोलन के ख़ास चेहरे बन गए। उन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ असहयोग आंदोलन के दौरान एक ख़ास भूमिका निभाई। 1917-1921 तक आबादी बानो ने अपनी वित्तीय हालात खराब होने के बावजूद, सरोजिनी नायडू की गिरफ्तारी के बाद, ब्रिटिश रक्षा अधिनियम के तहत हर महीने 10 रुपये का दान दिया। फिर 1917 में, बानो भी एनी बेसेंट और उनके बेटों को रिहा करने के आंदोलन में शामिल हो गईं, जिन्हें 1917 में उनके गृह शासन आंदोलन को शांत करने के असफल कोशिशों के बाद अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया था। बानो बेगम भारत की आज़ादी के संघर्ष में मुस्लिम महिलाओं के सबसे प्रमुख चेहरों में से एक थीं। बानो ने खिलाफत आंदोलन और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए धन उगाहने में बहुत ख़ास भूमिका निभाई।

बेग़म हज़रत महल

अवध फैज़ाबाद की बहादुर औरत बेग़म हज़रत महल ने खुद युद्ध के मैदान में उतरकर अंग्रेज़ी हुकूमत का सामना किया था।  उस दौरान कुछ अंग्रेज़ी अधिकारी मारे गए और कुछ जख्मी हो गए। बेग़म हज़रत महल ने हमेशा अपनी सेना के हौसले बुलंद करने और उनकी हौसला अफजाई के लिए लगातार बैठकें बुलाईं।  उन्होंने आंदोलन की सक्रियता के लिए कई ख़त लिखे।  25 फ़रवरी 1858 को वह एक हाथी पर सवार होकर युद्ध के मैदान में पहुंच गई थीं, हालांकि इस युद्ध में अंग्रेजी ताक़त जीत गई।  अंग्रेज़ी हुकूमत ने केसर बाग़, मूसा बाग़ और चार बाग़ पर कब्ज़ा कर लिया। मुश्किल हालात के चलते बेग़म नेपाल पलायान कर गईं।  बेग़म हज़रत महल ने उनके सामने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया। अंग्रेज़ी हुकूमत की कड़ी शर्तों के चलते वह भारत नहीं आ सकीं और उन्हें स्थाई रूप से नेपाल में रहना पड़ा।


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