समाजख़बर संसद, विधानसभा में महिलाओं की ना के बराबर भागीदारी भारतीय राजनीति के लिए नहीं है अच्छा संकेत

संसद, विधानसभा में महिलाओं की ना के बराबर भागीदारी भारतीय राजनीति के लिए नहीं है अच्छा संकेत

संविधान लागू होने के इतने दशकों बाद भी जहां महिलाओं के वोटर होने में बढ़ोतरी तो हुई, लेकिन राजनीति के क्षेत्र में उनकी उपस्थिति में बढ़ोतरी नहीं हो पाई है। इसी बात का खुलासा करते हैं हाल ही में राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व से जुड़े आंकड़े, जो भारत सरकार द्वारा पेश किए गए हैं।

हाल ही में गुजरात, हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे सामने आए हैं। साल 1998 के बाद हिमाचल प्रदेश में पहली बार पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने ज्यादा वोट किया लेकिन इस पूरे प्रदेश में जीती सिर्फ एक महिला है, बीजेपी से रीना कश्यप। कांग्रेस ने पूरी 40 सीट जीतकर सरकार बनाई है और 40 सीट में कोई भी महिला नहीं है यानी विधानसभा में जीती हुई पार्टी की ओर से महिला मत है ज़ीरो। वहीं, गुजरात के चुनावों में भी यही हाल रहा। बीजेपी पार्टी इस राज्य में फिर से सत्ता में आई है और मुख्यमंत्री हैं भूपेंद्र पटेल, उनके मंत्रिमंडल में सिर्फ़ एक महिला हैं, भानूबेन मनोहरभाई बाबरिया।

संविधान लागू होने के इतने दशकों बाद भी जहां महिलाओं के वोटर होने में बढ़ोतरी तो हुई, लेकिन राजनीति के क्षेत्र में उनकी उपस्थिति में बढ़ोतरी नहीं हो पाई है। इसी बात का खुलासा करते हैं हाल ही में राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व से जुड़े आंकड़े, जो भारत सरकार द्वारा पेश किए गए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक संसद और राज्यों की विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 15% से भी कम है। वहीं, 19 राज्यों की विधानसभा में यह आंकड़ा दस प्रतिशत से भी कम है। इसमें आंध्र प्रदेश, असम, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, केरल, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, ओडिशा, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना जैसे राज्य शामिल हैं। वहीं बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, झारखंड, पंजाब, राजस्थान, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली ऐसे राज्य हैं जहां महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10% से अधिक है। वहीं, लोकसभा में 14.94% महिला सदस्य हैं, राज्यसभा में 14.05% महिला सदस्य हैं और देशभर की सभी राज्यों की विधानसभा में महिला विधायकों की औसत संख्या केवल 8% है।

राजनीति में महिला प्रतिनिधित्व न होने के मायने

भारत में महिलाओं की जनसंख्या 662 मिलियन है। लेकिन इन महिलाओं में से मात्र आठ प्रतिशत महिलाएं ही राज्यों में विधायक के पद पर मौजूद हैं। हम इस बात से भली भांति परिचित हैं कि हम एक पितृसत्तात्मक समाज हैं। ऐसे समाज में बराबर रूप से बने रहने के लिए महिलाओं की भागीदारी हर क्षेत्र में ज़रूरी है। संसद और राज्यों की विधानसभा में महिला सदस्यों का ना के बराबर मौजूद होना राजनीति में मौजूद लैंगिक असमानता को दिखाता है और यह बताता है कि हम तक आनेवाली हर नीति, कानून में महिलाओं का मत शामिल ही नहीं है।

राजनीति में जो महिलाएं सक्रिय हैं भी वे किस वर्ग से आ रही हैं यह जानना भी जरूरी है क्योंकि एक तबके की महिलाएं, दूसरे तबके की महिला की तकलीफें, चुनौतियां और उसके हल कैसे समझ सकती हैं। जब समझ नहीं सकती हैं तो उस महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व कौन और कैसे करेगा?

महिला मुद्दों पर पुरुष ही बहस कर रहे हैं तब हमें इस बात से कैसे संतुष्टि हो सकती है कि जमीन पर महिलाओं के मुद्दों को हर तरीके से समझकर ही उनके लिए कानून लाए जा रहे हैं। राजनीति में ये असमानता महिलाओं की आवाज को उस जगह से चुप कर रही है जहां से उनके जीवन के बड़े फैसले होते हैं मसलन हिन्दू कोड बिल का अपने समय में पारित न होना, वर्तमान में महिला आरक्षण बिल का अभी तक लागू न होना इसी का परिणाम है।

दस प्रतिशत महिला प्रतिनिधित्व में भी किस वर्ग और समुदाय की महिलाएं हैं शामिल?

राजनीति में जो महिलाएं सक्रिय हैं भी वे किस वर्ग से आ रही हैं यह जानना भी जरूरी है क्योंकि एक तबके की महिलाएं, दूसरे तबके की महिला की तकलीफें, चुनौतियां और उसके हल कैसे समझ सकती हैं। जब समझ नहीं सकती हैं तो उस महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व कौन और कैसे करेगा? जो महिलाएं संसद में सक्रिय हैं उनमें आधे से ज्यादा महिलाएं तथाकथित उच्च जाति से हैं और उनकी जातिवादी मानसिकता का पता वक्त वक्त पर चलता रहता है चाहे वह सुश्री मायावती पर घटिया टिप्पणी करना हो या निर्मला सीतारमण का ‘ब्राह्मण हूं’ इसीलिए प्याज नहीं खाती कथित रूप से कहना हो या रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या में स्मृति ईरानी का बुत बने सब देखते रहना हो।

हम इस बात से भली भांति परिचित हैं कि हम एक पितृसत्तात्मक समाज हैं। ऐसे समाज में बराबर रूप से बने रहने के लिए महिलाओं की भागीदारी हर क्षेत्र में ज़रूरी है। संसद और राज्यों की विधानसभा में महिला सदस्यों का ना के बराबर मौजूद होना राजनीति में मौजूद लैंगिक असमानता को दिखाता है और यह बताता है कि हम तक आनेवाली हर नीति, कानून में महिलाओं का मत शामिल ही नहीं है।

दलित, बहुजन, आदिवासी महिलाएं जो जाति, जेंडर के आधार पर हाशिए पर हैं, हम कैसे संसद में मौजूद महिला नेताओं का उनका प्रतिनिधि मान सकते हैं? जो महिलाएं संपन्न आर्थिक घरों से आ रही हैं, वे रोज़ काम पर जाती मज़दूर महिला का संघर्ष कैसे समझ सकती हैं? क्या वे दलित, आदिवादी, बहुजन महिला के लिए, उनके नज़रिये से, उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव के लिए कोई बिल पेश कर सकती हैं? ऐसा मुमकिन होता नहीं नज़र आता है।

इसीलिए हम देखते हैं कि दलित, आदिवासी, बहुजन महिलाओं के साथ घटती हिंसा पर मौजूदा महिला सांसद कई बार चुप्पी साध लेती हैं। इससे यह साफ़ है कि समाज में विशेषाधिकार प्राप्त महिलाओं का प्रतिनिधित्व ही संसद में मौजूद है। जेंडर सिर्फ महिला पुरुष नहीं है। उसमें क्वीर तबका भी शामिल है तब उनके मुद्दों की बात कौन करेगा? क्योंकि जो लोग संसद में बैठे हुए हैं वे तो नहीं कर रहे हैं।

बात महिला आरक्षण बिल की

संविधान (एक सौ आठवां संशोधन) विधेयक, 2008 लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रयास करता है। उन्हीं सीटों में से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों की कुल संख्या का एक तिहाई लोकसभा और विधानसभाओं में उन समूहों की महिलाओं के लिए आरक्षित किए जाने की बात है।

साल 2008 से लेकर हम 2022 में हैं लेकिन यह बिल अभी तक ऐक्ट नहीं बन पाया है। यह बहुत हास्यास्पद भी मालूम होता है कि महिला प्रतिनिधत्व बिल पर पुरुषों से भरी संसद इसे कैसे पारित कर देगी। बरहाल सरकार को यह सोचना चाहिए कि जब हम ‘विश्व गुरु’ होने की बात बार-बार कर रहे हैं क्या यह बिना महिलाओं के संभव है? हर तबके की महिला की भागीदारी के बिना संभव है? महिला भागीदारी सिर्फ समावेशी दिखने का एक तरीका भर नहीं है बल्कि महिलाओं की भागीदारी व्यवस्था को बेहतर भी करती है।

महिला प्रतिनिधत्व बिल का पारित होना एक हल है जिसमें स्थान, जाति, धर्म, जेंडर, आर्थिक सामाजिक स्थिति को ध्यान में रख कर सीटें आवंटित हो। पारदर्शी व्यवस्था हो अथवा आदि फैसले लागू हो रहे हैं या नहीं उसके लिए एक कमिटी बनाए जाए जिसमें हर वर्ग की महिलाओं और क्वीयर समुदाय का भी प्रतिनिधित्व हो।

कोविड के वक्त में अमेरिका के जिन राज्यों में महिलाएं राजनीतिक शीर्ष पद पर थीं, वहां दूसरे राज्यों के मुकाबले जल्दी कदम उठाए गए थे। न्यूजीलैंड की महिला प्रधानमंत्री जसिंदा आर्डर्न के नेतृत्व वह देश तकरीबन हर सूचकांक में बेहतर कर रहा है। भारत में कोविड के वक्त भीलवाड़ा मॉडल एक नज़ीर बना जिसकी जिम्मेदारी आईएएस टीना डाबी पर थी। सुश्री मायावती जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं तब किसी भी दंगे के साक्ष्य उनके कार्यकाल से नहीं मिलते। ये सभी उदाहरण इस ओर इशारा करते हैं कि 669 मिलियन महिलाओं वाला ये देश जो बेहतरी के कितने शीर्ष छू सकता है वह दिनों-दिन गर्त में जा रहा है क्योंकि हम समावेशी होने पर, प्रतिनिधित्व पर ज़ोर नहीं दे रहे। वे वर्ग जो बहुत बेहतर कर सकते हैं हम उन्हें आगे ही नहीं आने दे रहे हैं।

आगे की राह क्या हो सकती है

प्यू रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट अपने सर्वे में ये पाती है कि भारतीय, महिलाओं के राजनीतिक नेतृत्व को स्वीकार करते हैं। रिपोर्ट में सामने आया कि 55% युवा मानते हैं कि महिला और पुरुष दोनों ही बराबर रूप से बेहतर नेता हो सकते हैं। वहीं, देश के 14% युवा मानते हैं कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में बेहतर नेता होती हैं। भारत ने दुनिया में पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रूप में चुनी थीं। जिस देश का युवा महिला नेतृत्व को लेकर सकारात्मक है उससे ये तो निश्चित है कि जब विकल्प होंगे तो वे महिला नेतृत्व को ज़िम्मेदारी सौंपने में पीछे नहीं हटेंगे।

669 मिलियन महिलाओं वाला ये देश जो बेहतरी के कितने शीर्ष छू सकता है वह दिनों-दिन गर्त में जा रहा है क्योंकि हम समावेशी होने पर, प्रतिनिधित्व पर ज़ोर नहीं दे रहे। वे वर्ग जो बहुत बेहतर कर सकते हैं हम उन्हें आगे ही नहीं आने दे रहे हैं।

इस सकारात्मक रवैए के बावजूद अल जज़ीरा की 21 सितंबर 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत संसद के लिए चयनित महिला सदस्यों की सूची में 193 देशों में से 148 वें पायदान पर है। रिपोर्ट से जाहिर है कि हम बहुत अच्छे पायदान पर नहीं हैं। इस स्थिति को सुधारने के लिए क्या कदम लिए जा सकते हैं? महिला प्रतिनिधत्व बिल का पारित होना एक हल है जिसमें स्थान, जाति, धर्म, जेंडर, आर्थिक सामाजिक स्थिति को ध्यान में रख कर सीटें आवंटित हो। पारदर्शी व्यवस्था हो अथवा आदि फैसले लागू हो रहे हैं या नहीं उसके लिए एक कमिटी बनाए जाए जिसमें हर वर्ग की महिलाओं और क्वीयर समुदाय का भी प्रतिनिधित्व हो।

महिलाएं जब चुनी जाएं अगर वे अधिक पढ़ी-लिखी नहीं हैं तो उन्हें भारत की मूल व्यवस्था से कम से कम परिचित करवाया जाए ताकि उनके नाम पर उनके घर के पुरुष सत्ता न चलाएं जो कि हम अक्सर ग्राम पंचायत के चुनावों में देखते हैं। निजी तौर पर अगर हम सच में बेहतर करना चाहते हैं तो केंद्र में युवा महिलाओं को रखा जा सकता है क्योंकि वे न सिर्फ रूढ़िवादी सोच को चुनौती दे सकती हैं बल्कि आधुनिक समस्याओं को भी बेहतर जानती हैं। राह बहुत आसान नहीं है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि करोड़ों की जनसंख्या को प्रतिनिधत्व के दायरे से ही बाहर कर दिया जाए और आधुनिक मानसिक गुलाम बनाकर नामभर स्वतंत्रता देकर उनकी हिस्सेदारी को गैर-जरूरी मान लिया जाए।


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