2 दिसंबर को ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने ‘सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार’ पर डॉ० आंबेडकर इंटरनैशनल सेंटर में आठवां डॉ० एल एम सिंघवी मेमोरियल लेक्चर दिया। लेक्चर में उन्होंने एक महत्वपूर्ण बयान दिया। उन्होंने कहा, “भारतीय संविधान एक नारीवादी दस्तावेज होने के साथ-साथ एक समतावादी सामाजिक रूप से परिवर्तनकारी दस्तावेज भी था, जिसमें इसने अपनी स्थापना के समय से ही उपेक्षित और वंचित लोगों के लिए सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की शुरुआत करके औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक विरासत से एक पूर्ण प्रस्थान को चिह्नित किया था।”
हम भारतीय परिपेक्ष्य में मताधिकार के मायने और महत्व जानते, समझते रहे हैं, मुख्यधारा में इसकी बात बहुत आम है। भारतीय संविधान नारीवादी कैसे है? समतावादी कैसे है? समाजवादी कैसे है? इन मूल्यों के साथ-साथ वह कैसे भारतीय समाज की कल्पना करता है? लेकिन हम आज के समय में कैसे समाज के रूप में विद्यमान हैं? इन सवालों से गुज़रते हुए ये भी समझेंगे कि समाज का कौन सा वर्ग इसके लिए खतरनाक है। वहीं, कौन सा वर्ग इसे उत्सव की तरह देखता है और इसकी रक्षा के लिए खड़ा है। आज इस लेख में हम बात करेंगे कि भारतीय संविधान एक नारीवादी, समतावादी, सामाजिक रूप से परिवर्तनकारी दस्तावेज किस तरह है।
नारीवादी दस्तावेज़ लेकिन अधिकारों तक कितनी पहुंच
संविधान नारीवादी है, लेकिन क्या महिलाओं तक इसकी पहुंच है? संविधान में महिलाओं के लिए, उनके साथ घटती घटनाओं, उनके अधिकार से जुड़े कई प्रावधान हैं मौजूद हैं। संविधान के मौलिक अधिकारों में ही पहले अनुच्छेद 14 के तहत समान अधिकार का दिया गया है। इसके अलावा अपनी मर्ज़ी से शादी का अधिकार, दहेज के खिलाफ प्रावधान, जघन्य अपराधों में जल्द से जल्द कार्यवाही आदि अधिकार महिलाओं के पास हैं।
संविधान में दिए अधिकार महिलाओं के लिए भी हैं लेकिन उनकी पहुंच तक नहीं हैं। अगर है भी तो हम व्यवस्था के रूप में उन्हें निराश कर चुके हैं। इसका मौजूदा उदाहरण बिलकिस बानो के गुनहगारों की जमानत और हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनकी पिटीशन को खारिज कर देना है। सिर्फ़ यह कहने भर से कि हम एक नारीवादी संविधान की छत्रछाया में हैं काम नहीं चलेगा। उसके प्रावधानों को हितकारी साबित करने के लिए उसकी पहुंच को बढ़ाना होगा। कानून तक पहुंच की राह को आसान करना होगा। इसके लिए एक महत्वपूर्ण कदम महिलाओं की भागीदारी को संसद में बढ़ाने से शुरू हो सकता है।
समतावदी मूल्यों की पैरवी करता भारतीय संविधान क्या हर व्यक्ति को एक पंक्ति में खड़ा कर सका है?
संविधान की प्रस्तावना में ही ‘प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए’ अंगित है। वहीं, गणतंत्र शब्द के मौजूद होने से यह भी सुनिश्चित होता है कि राज्य जन यानी जनता द्वारा चलाया गया तंत्र होगा जिसमें सभी की समान भागीदारी होगी। भारतीय समाज कितना विविध है इस बात से हम सभी परिचित हैं। ऐसे समाज में ‘समता’ का मूल्य आवश्यक हो जाता है। लेकिन क्या हम यह मूल्य सभी जन के लिए एक समान साबित हुआ है? संविधान में ‘एफिरमेटिव एक्शन’ पीढ़ियों से शोषित जातियों के लिए लाया गया ताकि वे अवसर की दौड़ में बराबरी पर रहें लेकिन EWS कोटा लाकर विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को और अवसर दिए गए। राष्ट्रीय सुरक्षा एक्ट, यूएपीए जैसे कानून का इस्तेमाल कर कार्यकर्ताओं, आदिवासी, दलितों को राजनीतिक बंदी बनाकर जेलों में ठूंसा गया है, क्या यह उनके साथ समानता का व्यवहार है। विधान के प्रावधानों के उलट चलकर हम लोकतंत्र से बेशक तानाशाही और मेजोरिटी की सरकार की ओर बढ़ रहे हैं।
संविधान ने समाज का रूप बदला है, इसमें दस्तावेज की कमी नहीं है लेकिन एक समाज के रूप में, इसके आसमान ढांचे में शीर्ष पर बैठे लोगों ने इसे प्रत्येक व्यक्ति नहीं पहुंचाया है बल्कि अभी तक इस पर हर रोज चोट की जा रही है। इसके प्रावधानों के उलट फैसले लिए जा रहे हैं, लोगों को लोकतांत्रिक नागरिक बनाने की बजाय धर्मांध बनाया जा रहा है
क्या हम समाजवादी प्रावधान के वाहक बने हैं?
प्रस्तावना में यह दर्ज है कि भारत एक ‘समाजवादी’ देश है। एक ऐसा देश जो संप्रभु है और भारतीय परिपेक्ष्य में जहां समाजवादी का अर्थ सामाजिक समानता और आर्थिक समानता से है। एक ऐसा समाज जिसमें जाति, धर्म, रंग, भाषा, लिंग के आधार पर कोई भेद न हो। आर्थिक तौर पर बहुत भेद न हो, संसाधनों की पहुंच सभी तक हो। लेकिन क्या ऐसा है? ऑक्सफैम इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट बताती है कि दस प्रतिशत भारतीय देश के 77% धन के मालिक हैं। यह आर्थिक समानता है किस तरीके से लिया है।
सितंबर 2022 में भारत में बेरोजगारी दर 6.5% रही। आज सरकार द्वारा यह मिथक भी खूब प्रचलित किया जा रहा है कि निजीकरण लाभदायक है। निजीकरण लाभदायक होता तो संविधान में समाजवादी की जगह निजीकरण लिख देना चाहिए था। बरहाल यह थोड़ा समझते हैं कि निजीकरण मिथक कैसे है? आत्मभारत निर्भर पॉलिसी चार वर्षीय राष्ट्रीय मोनेटाइजेशन पाइपलाइन, ये ऐसी पॉलिसी हैं जो राज्य के अधिकार को कमतर करती हैं और पब्लिक सेक्टर उद्यम को प्राइवेट सेक्टर व्यवसाय में धकेलती हैं। सरकार की जवाबदेही जब कम होती है तब जनता परेशानी से गुजरती है।
हमने कोविड के दौरान देखा कि भारतीय शहरी हेल्थकेयर 65% प्राइवेट हाथो में है। उसकी वजह से जनता कितनी परेशान हुई और उसे ही इन अस्पतालों में जाने का मौका मिल पाया जिनके पास मोटी रकम थी सरकार की ख़राब व्यवस्था के कारण मौतें होती रहीं। किसी भी सेक्टर के प्राइवेट होने का अर्थ है कि अब वह सिर्फ प्रॉफिट के लिए काम करेगा पब्लिक ‘वेलफेयर’ के नहीं जो संविधान के राज्यों की ड्यूटी में से एक है।
हम संविधान के लागू होने के 76 वें वर्ष में हैं। हम बहुत अच्छे दौर से नहीं गुजर रहे हैं लेकिन ब्रिटिश हुकूमत के ख़त्म होने के बाद, हर तरह से त्रस्त हो चुके देश ने अपना संविधान बनाया, लागू किया। इतने वर्षों में हम बेशक अपने इतिहास की बनावट से आगे आए हैं। दलित, बहुजन, आदिवासी अल्पसंख्यक समुदायों के लिए शिक्षण संस्थानों के दरवाजे खुले हैं। महिलाओं को तकरीबन हर जगह अपनी पहचान बनाने की आजादी हासिल हुई है। एक दलित महिला मुख्यमंत्री बन सकी है, एक आदिवासी महिला आज देश की राष्ट्रपति है। यह सब बिना संविधान के कभी मुमकिन नहीं हो पाता।
संविधान ने समाज का रूप बदला है, इसमें दस्तावेज की कमी नहीं है लेकिन एक समाज के रूप में, इसके आसमान ढांचे में शीर्ष पर बैठे लोगों ने इसे प्रत्येक व्यक्ति नहीं पहुंचाया है बल्कि अभी तक इस पर हर रोज चोट की जा रही है। इसके प्रावधानों के उलट फैसले लिए जा रहे हैं, लोगों को लोकतांत्रिक नागरिक बनाने की बजाय धर्मांध बनाया जा रहा है, तर्कशील शिक्षा की बजाय एक पार्टी का हुकुम बजाना सिखाया जा रहा है।
जिस वर्ग को संविधान ने रीढ़ दी है वही इसके लिए लड़ता आ रहा है चाहे एससी एसटी एक्ट के खिलाफ दलितों का सड़कों पर आ जाना हो या नागरिकता कानून के खिलाफ मुसलमानों का आंदोलन करना। यह कहना बिलकुल गलत नहीं होगा कि एक बेहतर समाज यही संविधान पैदा करेगा थोड़ा और देर से ही सही और इसमें अहम भूमिका निभाएगा वह वर्ग जिसे इसने अधिकार दिए हैं और बराबर रूप से इंसान माना है।