अनेक पूर्वाग्रहों और रूढ़िवादिता से घिरे समाज में न्याय व्यवस्था एक आम इंसान की सबसे बड़ी उम्मीद होती है। एक लोकतंत्र में लैंगिक समानता की लड़ाई के लिए जो आवाज़ उठती है उसके हित में आनेवाले अदालतों के फै़सले उसे और मज़बूत करते हैं। इस साल कई ऐसे फैसले अदालतों की ओर से लिए गए जो महिलाओं के अधिकारों का सरंक्षण करते हैं। इस लेख में हम बात करेंगे साल 2022 के उन फैसलों के बारे में जिन्होंने लैंगिक समानता के संघर्ष को मज़बूत किया।
1. टू फिंगर टेस्ट- पितृसत्तात्मक मानसिकता पर आधारित टू फिंगर टेस्ट पर सुप्रीम कोर्ट ने लगाई रोक
बलात्कार के लिए टू-फिंगर टेस्ट को झारखंड राज्य बनाम शैलेंद्र कुमार राय उर्फ पांडव राय मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गैरकानूनी घोषित किया गया। अदालत ने बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामलों में टू फिंगर टेस्ट के उपयोग की निंदा की। कोर्ट ने कहा था कि ऐसे परीक्षण का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, इसके बजाय यह महिलाओं को फिर से आघात पहुंचाता है। अदालत ने कहा था कि सच्चाई से आगे कुछ भी नहीं हो सकता है यह तय करने में कि क्या आरोपी ने उसका बलात्कार किया है और यहां एक महिला का यौन इतिहास पूरी तरह से महत्वहीन है। कई बार एक महिला पर विश्वास नहीं किया जाता है जब वह बताती है कि उसके साथ बलात्कार किया गया, सिर्फ इसलिए कि वह यौन रूप से सक्रिय है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ऐसे परीक्षण करने वाला कोई भी व्यक्ति कदाचार का दोषी होगा। न्यायालय ने केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों को भी तीन दिशा-निर्देश जारी किए। जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड और जस्टिस हेमा कोहली की पीठ ने यह फैसला सुनाया था।
2.आरोप पत्र दाखिल करने से पहले बलात्कार सर्वाइवर के बयान का खुलासा नहीं किया जाना चाहिए
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक मामले में कहा कि जब तक आरोप पत्र या अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की जाती है, धारा 164 सीआरपीसी के अनुसार बलात्कार सर्वाइवर के बयान को आरोपी सहित किसी को भी नहीं बताना चाहिए। एससी बेंच ने आगे सिफारिश में कहा कि उच्च न्यायालय आपराधिक अभ्यास और परीक्षण नियमों को इस तरह से बदलते या संशोधित करते हैं जो निर्णयों के निर्देशों के अनुरूप प्रावधानों को शामिल करते हैं। परिणामस्वरूप न्यायालय ने वकील की राय से सहमति व्यक्त की कि विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा स्थापित अभ्यास नियमों में पूर्वोक्त निर्णयों में बताए गए कानूनी सिद्धांतों के अनुरूप खंड शामिल और शामिल होने चाहिए।
3.केरल उच्च न्यायालय ने बेटे को दस्तावेज़ में अविवाहित मां का नाम अकेले रखने की अनुमति दी
केरल हाई कोर्ट ने एक व्यक्ति को उसके जन्म प्रमाणपत्र, पहचान पत्र और अन्य दस्तावेजों में केवल उसकी माँ का नाम इस्तेमाल करने की अनुमति दी है। केरल उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि एक व्यक्ति को अपने दस्तावेज़ो में अपनी मां का नाम इस्तेमाल करने का अधिकार है। इस मामले में याचिकाकर्ता की माँ नाबालिग उम्र में गर्भवती हो गई थी। याचिकाकर्ता की माँ उस वक्त अविवाहित थीं इसलिए अलग-अलग दस्तावेजों में उनके पिता का नाम अलग-अलग दर्ज किया गया है। इस संदर्भ में अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के अलग-अलग फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि अविवाहित माँ का बच्चा भी इस देश का नागरिक है और कोई भी उसके मौलिक अधिकारों का उल्लघंन नहीं कर सकता है, जो उसे भारतीय संविधान की तरफ से दिए गए हैं। अदालत ने यह भी कहा है कि केरल हाई कोर्ट सरकार को आदेश देता है कि जो पिता के नाम से संबधित जानकारी नहीं उपलब्ध करा सकते हैं उसके लिए अलग से एक फॉर्म हो जिसमें पिता से संबंधित जानकारी की मांग न हो। अदालत ने यह भी कहा कि अविवाहित माताओं और बलात्कार सर्वाइवर के बच्चों को निजता, स्वतंत्रता और सम्मान के मौलिक अधिकारों के साथ इस राष्ट्र में रहने का अधिकार है।
4. सभी महिलाओं को अबॉर्शन का है समान अधिकारः सुप्रीम कोर्ट
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि सभी महिलाओं, चाहे विवाहित हों या अविवाहित, सभी को गर्भावस्था के मेडिकल टर्मिनेशन एक्ट, 1971 (एमटीपी एक्ट) के प्रावधानों के अनुपालन में 24 सप्ताह तक अबार्शन कराने का समान अधिकार है। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने कहा विवाहित और अविवाहित महिलाओं के बीच कृत्रिम अंतर को बनाए नहीं रखा जा सकता है। महिलाओं को इन अधिकारों का स्वतंत्र रूप से उपयोग करने की स्वायत्तता होनी चाहिए।” अदालत ने कहा कि अविवाहित महिलाओं को अबॉर्शन की समान पहुंच से वंचित करना भारत के संविधान के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। इस मामले में पहले दिल्ली हाई कोर्ट ने एक अविवाहित महिला होने की वजह से वह एमटीपी एक्ट कानून के दायरे में नहीं आती।
5. सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू परिवार, अविवाहित जोड़ों एवं एलजीबीटीक्यूए+ समुदाय को भी दिया परिवार की अवधारणा
सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा कि अविवाहित जोड़े और क्वीयर रिलेशनशिप को भी परिवार माना जा सकता है। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड और जस्टिस एएस बोपाना की बेंच ने कहा कि घरेलू, अविवाहित जोड़े और क्वीयर रिलेशनशिप, अडॉप्शन, दोबारा शादी सभी पारिवारिक रिश्ते हैं और कानून को इन्हें स्वीकार करना चाहिए। इस मामले में कहा गया कि कानून और समाज दोनों में ‘‘परिवार’’ की अवधारणा की प्रमुख समझ यह है कि ‘‘इसमें मां और पिता (जो कि आजीवन संबंध है) और उनके बच्चों के साथ एक एकल, अपरिवर्तनीय इकाई होती है।’’ कोर्ट ने कहा कि ‘‘ कई परिस्थितियां है जो किसी के पारिवारिक ढांचे में बदलाव ला सकती हैं, और यह तथ्य कि कई परिवार इस अपेक्षा के अनुरूप नहीं हैं। पारिवारिक संबंध घरेलू, अविवाहित जोड़े या क्वीयर रिलेशनशिप का भी रूप ले सकते हैं।’’
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पारिवारिक संबंध घरेलू, अविवाहित सहजीवन या क्वीयर रिश्ते के रूप में भी हो सकते हैं। साथ ही अदालत ने उल्लेख किया कि एक इकाई के तौर पर परिवार की ‘असामान्य’ अभिव्यक्ति उसके पारंपरिक समकक्ष के रूप में वास्तविक है और कानून के तहत सुरक्षा के योग्य है। ऐसे परिवारों तक भी समान न्याय पहुंचाना चाहिए।
6.किसी महिला को प्रजनन करने या ना करने के विकल्प के अधिकार पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है
केरल उच्च न्यायालय ने एक 23 वर्षीय कॉलेज छात्रा को यह कहते हुए उसकी गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति दी कि महिलाओं को संतान पैदा करने या न करने की स्वतंत्रता है। उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने एक एमबीए छात्रा के 27 सप्ताह के गर्भ को चिकित्सकीय रूप से समाप्त करने के अनुरोध को सुनने के बाद यह निर्णय लिया। अदालत ने घोषणा की, “एक महिला की प्रजनन करने या न करने के लिए कोई बाध्य नहीं कर सकता है।” इस मामले में महिला को किसी भी अस्पताल में मेडिकल टर्मिनेशन एक्ट के साथ अबॉर्शन कराने की इजाजत दी गई है।
कोर्ट ने कहा कि चिकित्सक आमतौर पर जोर देते हैं कि अबॉर्शन चाहने वाले अतिरिक्त कानूनी शर्तों का पालन करना है, जैसे कि अबॉर्शन चाहने वाले के परिवार की सहमति प्राप्त करना, दस्तावेजी सबूत पेश करना, या न्यायिक प्राधिकरण और अगर ऐसी शर्तें पूरी नहीं होती हैं, तो अबॉर्शननहीं हो सकता। अदालत ने टिप्पणी की कि डॉक्टरों को ऐसी आवश्यकताओं को लागू करने से बचना चाहिए और केवल महिला की सहमति ही महत्वपूर्ण है, “जब तक कि वह नाबालिग या मानसिक रूप से बीमार न हो।” यह भी कहा गया है कि “प्रत्येक गर्भवती महिला को किसी तीसरे पक्ष की सहमति या प्राधिकरण के बिना अबॉर्शन कराने या न करने का अधिकार है। अगर महिला अबॉर्शन कराना चाहती है तो महिला ही एकमात्र और “आखिरी फैसला लेने वाली हो सकती है।”
7. हॉस्टल कर्फ्यू से नहीं होगी लड़कियों की सुरक्षा
केरल हाईकोर्ट ने कहा कॉलेज में आवासीय छात्रों पर सुरक्षा के नाम पर उनके अधिकारों को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है। अदालत ने ऐसा हॉस्टल में रहने वाली छात्राओं पर लगे नाइट कर्फ्यू के नियम पर कहा है। साथ ही गर्ल्स हॉस्टल में कर्फ्यू पर सवाल उठाते हुए केरल हाईकोर्ट ने नराजगी जताते हुए कैंपस में लड़कियों के लिए चलने वाले प्रतिबंध पर प्रशासन से सवाल पूछा है। सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा है कि यह तभी हो सकता है जब कोई ज़रूरी वजह हो। केरल में गवर्मेंट मेडिकल कॉलेज की लड़कियों के लिए रात 9:30 बजे तक सभी लड़कियों को हॉस्टल में आ जाना है और उसके बाद किसी भी लड़की को बाहर जाने की अनुमति नहीं है। इसके बाद कुछ लड़कियों ने केरल उच्च न्यायालय में याचिका दायर की जिसकी सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा आज के समय में किसी भी तरह की पितृसत्तात्मक सोच की कोई जगह नहीं है। लड़कियो की सुरक्षा के लिए सरकार उचित कदम उठाए और सुरक्षा की व्यवस्था करें और उन्हें सक्षम बनाए। छात्राओं के लिए नाइट कर्फ्यू पर जस्टिस रामचंद्रन ने कहा कि लड़कियां, लड़कों की तरह अपनी देखभाल करने में पूरी तरह समर्थ है।
8. बलात्कार को बलात्कार ही कहा जाएगा चाहे वो पति ने ही क्यों ना किया होः कर्नाटक हाई कोर्ट
कर्नाटक हाई कोर्ट की सिंगल बेंच ने मैरिटल रेप से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि बलात्कार, बलात्कार ही होता है, चाहे यह पति ने ही किया हो। हाई कोर्ट ने संसद को भी इस मामले में कानून बनाने का सुझाव दिया है। दरअसल कर्नाटक हाई कोर्ट ने बलात्कार के मामले पर एक पति की याचिका को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की है। अदालत ने आरोपपत्र में बलात्कार की धारा को हटाने से इनकार कर दिया। यह मामला एक पति पर उसकी पत्नी द्वारा बलात्कार के मामले की धारा हटाने से संबंधित है। दरअसल पति पर उसकी पत्नी की शिकायत के बाद यह केस शुरू हुआ था। पत्नी के आरोप के अनुसार उसके पति ने शादी की शुरुआत से ही उसे सेक्स स्लेव यानी गुलाम बना लिया था। इस पर आरोपी पति का कहना है कि आईपीसी की धारा 375 में दिए गए अपवाद की वजह से मैरिटल रेप एक स्वीकृत अपराध की श्रेणी में नहीं आता। अदालत ने कहा कि कोई भी पुरुष किसी महिला का यौन उत्पीड़न या बलात्कार करता है तो वह धारा 376 के तहत सजा के लिए उत्तरदायी है।
समाज की प्रगति में, जब तक महिलाओंं को हम साथ लेकर नहीं चलेंगे ,तब तक एक बेहतरीन और स्वस्थ्य समाज में चैन की साँस नहीं ले सकते ।
आपने लेख के द्वारा जिस प्रकार से लैंगिक समानता पर प्रकाश डाला है ,सराहनीय योग्य है ।इसी तरह के लेख की अपेक्षा हम सब बेसब्री से कर रहे हैं ।
From first to the second last, I could see a step forward, but he last one (marital rape) is stuck and still needs IPC codification.
And dear Sarla Asthana, thank you for bringing all of this in a single article. I appreciate your efforts. Keep writing.
From first to the second last, I could see a step forward, but he last one (marital rape) is stuck and still needs IPC codification.