पूरब के गंवई इलाकों में आज भी लौंडा नाच का रिवाज़ है। लौंडा नाच का अर्थ है जिसमें पुरुष ही स्त्री की वेश-भूषा धारण कर नाचता है। वह एक तरह से स्त्री होने का अभिनय करता है उसके सारे हाव-भाव स्त्रियों की तरह होते हैं। उन्हें शादी-विवाह आदि उत्सव में बुलवाया जाता है और वह नाचता-गाता लोगों से मसखरी भी करता है। अवध और बिहार के गंवई समाज में यह एक पारंपरिक कला रही है और इससे जुड़े लोगों की रोजी-रोटी भी। यह एक बात हो गई एक परंपरागत मनोरंजन विधा के परिचय मात्र की। लेकिन जब हम इस कला के भीतर की परतों को देखेंगे तो पुरुष लिप्साओं की अनेकानेक परतें खुलती हैं। इस तरह की लिप्साओं, दबी यौन कुंठाओं के आधुनिक रूपों को बाज़ार कैसे भुना रहा है हम सब लगभग जानते हैं। भोजपुरी के अश्लील गीत समाज की यौन कुंठा का ही परिणाम हैं।
मैं जिस क्षेत्र से आती हूं वहां भी यह लौंडा नाच अभी चलन में है। बारात, मुंडन आदि उत्सवों में ये अभी चल रहा है जिसमें स्त्री बने पुरुष नाचने गाने के लिए आते हैं। इस कला में अभिनय के साथ नृत्य और गायन का एक समवेत स्वरूप बनता था और कई बार आप इनकी कला को देखकर हैरान रह जाएंगे। इस नृत्य को करता हुआ पुरुष स्त्री स्वर और स्त्री नृत्य में आपको इतना पारंगत दिखेगा कि लगता है कि यथार्थ में कोई स्त्री ही है। ये कलाकार अपनी इस कला में ऐसे रम जाते हैं कि जैसे उन्हें ही याद नहीं कि वे पुरुष हैं। वास्तव में ये कलाकार ही होते हैं अपनी कला में निपुण। इसका इतिहास अगर भिखारी ठाकुर से देखा जाए तो लौंडा नाच एक अद्भुत और महान कला थी जिसमें समाज की जाने कितनी पीड़ा, कुरीतियां, भेदभाव ,अन्याय आदि का बेहद मार्मिक चित्रण होता था। लेकिन समाज की अपनी कुंठा, मनोविकार और पूर्वाग्रह अपना काम करते रहते हैं। मनुष्य की जरूरतें भी काफ़ी हद तक अपना काम करती हैं और एक कला को क्या से क्या बना देते हैं।
यौन हिंसा का सामना करते कलाकार और कोई सुनवाई नहीं
मैं इस लौंडा नाच से जुड़ी कुछ हाल की घटनाओं को याद करती हूं तो मेरे आसपास की स्त्रियां जाने कितनी घटनाओं की चर्चा करती हैं जो एक सत्ताधारी समाज की दबी यौन कुंठाओं की दास्तान होती है। हो सकता है यह किसी को एक सांस्कृतिक चलन का अपमान लग सकता है लेकिन यहां इस तरह के आयोजनों में कितनी बार यौन उत्पीड़न के गम्भीर अपराध हुए हैं जिन्हें लोग मसख़री की तरह सुनते और कहते आ रहे हैं। एक बार हमारी ही एक दूर की रिश्तेदारी से गाँव में बारात आई थी, खूब शोर-शराबे वाली बारात। द्वारपूजा में आया कलाकार एकदम लड़की जैसा लग रहा था। गाँव की स्त्रियों में यह भी एक चर्चा का विषय था। बारात में हो रही लगातार हर्ष फायरिंग से गाँव के कुछ लोग बेहद उत्साह में थे जबकि स्त्रियां,बच्चे और पशु पक्षी सहम से गए थे। जनवासे में सारी रात उस कलाकार के लगातार गाने की आवाज आ रही थी कि आधी रात में एक उन्नीस-बीस साल का लड़का दौड़ता-हांफता ओसारे में आता है और बदहवास सा रोता हुआ बताने लगा कि कैसे बारात में आए कुछ लोगों ने उसके साथ यौन हिंसा की।
देखा जाए तो लौंडा नाच एक अद्भुत और महान कला थी जिसमें समाज की जाने कितनी पीड़ा, कुरीतियां, भेदभाव ,अन्याय आदि का बेहद मार्मिक चित्रण होता था। लेकिन समाज की अपनी कुंठा, मनोविकार और पूर्वाग्रह अपना काम करते रहते हैं। मनुष्य की जरूरतें भी काफ़ी हद तक अपना काम करती हैं और एक कला को क्या से क्या बना देते हैं।
मैं इस घटना के आगे के दृश्य को याद करती हूं जहां वह लड़का बदहवासी में अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न को कहते हुए बार-बार कह रहा है, “अब जीवन में कभी इस गाँव की बारात में नचनिया नहीं बनूंगा।” इसी तरह की पछतावे की बातें वह किए जा रहा है और रोता जा रहा है। घर के सभी पुरुष ओसारे में पलंग पर बैठे हैं और इस घटना पर खेद या शर्मसार होने की जगह हंसे जा रहे हैं। कुछ-कुछ कहकर उस लड़के को और उत्पीड़ित किए जा रहे हैं क्योंकि वे इस तरह के यौन अपराध को आजीवन देखते-सुनते आए हैं। उन्हें इसके लिए कोई दुख या अचरज़ नहीं है। यह महज एक घटना नहीं थी, एक समाज का वास्तविक चेहरा था जो बताता है कि यौन अपराधों को लेकर वह कितना सहज है, ऐसे अपराधों की संवेदना को लेकर वो कितना गम्भीर है। यह घटना मेरी आँखों के सामने की है। आप जब पुरुषों की ऐसी बतकहियों में बैठेंगे तो महज हास्य भाव में वे ऐसी कितनी घटनाएं बताएंगे जो एक मानवीय मूल्यों से बने समाज के लिए शर्म का विषय होना चाहिए।
कौन दर्ज करेगा अपराध की इन घटनाओं को?
इसी तरह एक घटना अभी हाल ही में घटी। गाँव में बारात आई थी, अब जिस तरह गाँव में पैसेवालों की बारातें होती हैं दिखावे से भरी, बहुत खर्चीली और शोर-शराबे से भरी वैसी ही। उनकी बारात में आर्केस्ट्रा आया था जिसमें लड़कियां नाचती हैं। गाँव में आर्केस्ट्रा का नाच शान की बात समझी जाती है। इसमें किशोर उम्र की लड़कियों के साथ घर के बड़े, बुजुर्ग अश्लीलता की हदें पार करते हैं। इस विद्रूप मनोरंजन के अनगिनत किस्से हैं जो आए दिन बढ़ते जा रहे हैं। एक समाज के बाज़ार बनने और वह स्त्री देह को कैसे-कैसे ये उपयोग करता है इसके नित्य नये रूप दिखेंगे। यहां अभी मैं एक और बारात की घटना में नाच का ज़िक्र कर रही थी वहां यह हुआ कि जब द्वारपूजा के लिए घर के सामने बारात पहुंच गई और आर्केस्ट्रा नहीं पहुंचा था तो दुवार पर नाचने के लिए लौंडा नाच कलाकार को बुलाया गया जो कि गाँव का ही एक कहार समुदाय का लड़का था और कभी -कभी शादियों में नाचता था।
इस तरह के सामाजिक यौन उत्पीड़न में सीधे-सीधे दिखता है कि यह लड़ाई ताकतवरों और कमजोरों की है। समाज में जहां सत्ता को निर्बल दिखता है वहीं वह अपनी लिप्साओं को लेकर उतरता है। हम महज कुछ घटनाओं को जानते, देखते हैं या सुनते हैं लेकिन थोड़ा और गहरे उतरने पर देखेगें ऐसे अपराध कहीं दर्ज ही नहीं होते होगें। कौन दर्ज करेगा ऐसे अपराधों को?
दुबला-पतला सा वह लड़का जब अपने साथ हुई हिंसा की बात बताता है तो समाज के घृणा और बढ़ती जाती है। यहां मैं उन तरह-तरह की हिंसाओं का ज़िक्र नहीं कर रही हूं। वह लड़का किशोर ही था, खूब खुश होकर नाच रहा था। गाँवभर के लोग देख रहे थे। कुछ दूर पर खड़ी स्त्रियां भी देख रही थी कुछ लड़कियां और नवविवाहिता छत से देख रही थीं। तभी साथ ही नाच रहे कुछ लोग उसे ताल की तरफ अंधेरे में खींच ले गए। अब यहां मैं इस बात पर ध्यान दिलाने की कोशिश कर रही हूं कि अन्याय और हिंसा किस तरह से कंडीशनिंग के कारण समाज में सामान्य सी एक घटना बन जाती है जिसका ज़िक्र सिर्फ़ एक हास्य की तरह वहां होता है। लड़का किसी तरह उनकी पकड़ से निकलकर भाग आया और बच गया। लेकिन प्रश्न फिर वही उठता है कि आखिर समाज इन हिंसाओं को अपराध क्यों नहीं मानता। हालांकि इसका जवाब हम सब जानते हैं। पितृसत्तात्मक समाज इसी तरह के ढांचे का निर्माण करता है जिसकी नींव ही गैरबराबरी की बुनियादी पर खड़ी होती है।
इस तरह के सामाजिक यौन उत्पीड़न में सीधे-सीधे दिखता है कि यह लड़ाई ताकतवरों और कमजोरों की है। समाज में जहां सत्ता को निर्बल दिखता है वहीं वह अपनी लिप्साओं को लेकर उतरता है। हम महज कुछ घटनाओं को जानते, देखते हैं या सुनते हैं लेकिन थोड़ा और गहरे उतरने पर देखेगें ऐसे अपराध कहीं दर्ज ही नहीं होते होगें। कौन दर्ज करेगा ऐसे अपराधों को? समाज और उससे निकलनेवाले दर्जकर्ता जो इस तरह के अपराधों को अपराध मानते ही नहीं हैं। उनकी दुनिया में स्त्री और समाज के तमाम ऐसे लोग सारे हाशिये के वर्ग, उनकी संवेदनाएं, उनकी इच्छाएं, उनकी स्वतंत्रताओं, उनके अधिकारों का कोई अर्थ नहीं है। वे एक समावेशी समाज का निर्माण होने में बाधा की तरह खड़े रहते हैं। बस अपनी परंपरा, रीति-रिवाज और धर्म, सभ्यता, संस्कार को ही संस्कृति मानते हैं। अन्य उनके लिए मनुष्य होने की गरिमा में नहीं होते। समाज में पुरुष सत्ता की यौन कुंठा का स्तर देखना हो अवध के उत्सवों या शादी-ब्याह आदि में लौंडा नाच में होती आ रही यौन हिंसा की घटनाओं को देखना-समझना भी बहुत ज़रूरी है।