समाजकैंपस कॉलेज में शाकाहारी भोजन परोसने के पीछे की रणनीति कैसे एक ख़ासवर्ग और विचारधारा से प्रेरित है!

कॉलेज में शाकाहारी भोजन परोसने के पीछे की रणनीति कैसे एक ख़ासवर्ग और विचारधारा से प्रेरित है!

20 जनवरी को दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज के सामने विद्यार्थियों ने साल 2021 की फरवरी से (कोविड के बाद दोबारा संस्थान खुलने पर) कैंटीन, मेस में नॉन-वेज खाने के प्रतिबंध को लेकर विरोध प्रदर्शन किया। इसमें कुछ गिरफ्तारियां भी हुई लेकिन बाद में छोड़ दिया गया। हंसराज कॉलेज की प्रधानाध्यापिका ने “नो नॉन वेज रूल” (मांसाहार प्रतिबंध) का नियम कॉलेज में लागू किया है, विरोध के बावजूद प्रधानाध्यापिका रमा शर्मा ने प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया से कहा है, “हम नॉन-वेज फूड को लेकर नोटिस वापस नहीं लेने जा रहे हैं। यह एक आर्य समाज कॉलेज है। हमारा अपना सिद्धांत है और इसीलिए हम नॉन-वेज खाना नहीं परोसेंगे। हम नियमित रूप से ‘हवन’ करते हैं। हम अपने नियमों का पालन करते हैं। छात्रावास के विवरणिका में लिखा है कि छात्रावास में मांसाहारी भोजन नहीं परोसा जाएगा।”

इसके अलावा उनका कहना था, “हमने कोविड के बाद कैंपस में नॉन-वेज खाना बंद कर दिया है; यह है कमेटी का फैसला है। जो लोग मांसाहारी खाना चाहते हैं, वे कॉलेज परिसर के बाहर जाकर खा सकते हैं। लगभग 90% छात्र शाकाहारी हैं, शाकाहारी छात्र या कर्मचारी हर किसी को समायोजित नहीं कर सकते। उन्हें असुविधा का सामना करना पड़ता है।”

ऐसा ही कुछ मेरे कॉलेज (मिरांडा हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय) में देखा गया था जहां कोविड के बाद कॉलेज खुलने पर अचानक से कैंटीन में से अंडा तक खाने की सूची में से गायब हो गया था। हालांकि इसे लेकर छात्राओं में बातचीत ज़रूर थी लेकिन कोई विरोध-प्रदर्शन नहीं हुआ था। शायद ये बात उन्हें ‘सामान्य’ लगी थी। हालांकि ये बात तब सामान्य नहीं थी, हंसराज कॉलेज में सामान्य नहीं है और न ही किसी और संस्थान के लिए सामान्य होनी चाहिए। अचानक से शाकाहारी होने, बनने, बनाने की नीति थोपी क्यों जा रही है? इसे थोपकर किस वर्ग के लोगों को निशाना बनाने की साजिशें हैं? क्या शाकाहार अधिकांश भारतीयों के लिए ‘सस्ता’ है? इन्हीं सवालों से जूझते हुए कोशिश करते हैं शाकाहार की अन्य राजनैतिक रणनीति को समझने की।

शाकाहार थोपना क्यों संविधान के ख़िलाफ़ है?

मोटे तौर पर शाकाहारी होना या शाकाहार अपनाने का मतलब किसी भी तरह के मांस का उपभोग ना करना और सब्ज़ी, फल, अनाज, दालें, मावे(ड्राई फ्रूट्स) पर जीने के लिए निर्भर रहा जाता है। इसी शाकाहार का एक हिस्सा वीगनिज़म है जिसमें न सिर्फ़ मांस बल्कि जानवरों द्वारा प्राप्त किए जाना वाला कोई भी खाद्य, सामान जैसे दूध, पनीर, चमड़ा, सिल्क, शहद, ऊन आदि इस्तेमाल नहीं किए जाते हैं। वेजिटेरियन या वीगन होना किसी की व्यक्तिगत इच्छा या चुनाव ज़रूर हो सकता है लेकिन इसे थोपा जाना कतई व्यक्तिगत नहीं है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 जिसमें जीवन के अधिकार में भोजन के चुनाव का अधिकार भी शामिल है। यह उसका सीधा उल्लंघन है। प्रधानाध्यापिका ने बिना किसी आधिकारिक सर्वे के यह कहा है कि नब्बे प्रतिशत छात्र शाकाहारी हैं। ऐसा ही कुछ हम आसपास भी सुनते हैं कि “फलां धर्म, जाति के लोग ही मांस खाते वरना तो ज़्यादा लोग शाकाहारी ही हैं।” यह वाक्य यूं ही नहीं गढ़ा गया है, इसमें ये बात को पुख़्ता करना जुड़ा हुआ है कि भारत एक शाकाहारी देश है और यहां रहते हुए जो मांस खाते हैं वे लोग देशहित में नहीं हैं।

प्रमुख इतिहासकार डीएन झा अपनी किताब “द मिथ ऑफ़ द होली कॉउ” में लिखते हैं “पशु बलि बहुत आम थी, उनमें से सबसे महत्वपूर्ण प्रसिद्ध अश्वमेध और राजसूय थे।” और “वेदों में लगभग 250 जानवरों का उल्लेख है, जिनमें से कम से कम 50 को बलि के लिए उपयुक्त माना गया था, जिसका अर्थ ईश्वरीय और साथ ही मानव उपभोग के लिए था।

इस भ्रम को बीबीसी की 4 अप्रैल 2018 की ख़बर तोड़ती है। अमेरिका आधारित मानव विज्ञानवेत्ता बालमुरली नटराजन और भारत आधारित अर्थशास्त्री सूरज जैकब द्वारा की गई रिसर्च में यह सामने आया है कि 20% भारतीय वास्तव में शाकाहारी हैं जो कि सामान्य दावों के मुकाबले बेहद कम है। हिंदू, जो भारतीय आबादी का 80% हिस्सा हैं, प्रमुख रूप से मांस खाने वाले लोग हैं। यहां तक ​​कि केवल एक तिहाई विशेषाधिकार प्राप्त उच्च जाति के भारतीय ही शाकाहारी हैं यानी यह कहना अब अतिश्योक्ति नहीं है कि उच्च जाति वर्ग के लोग ही शाकाहार अपना पा रहे हैं और संस्कृति के नाम पर थोपना भी चाह रहे हैं लेकिन क्या हमेशा से यही इनकी संस्कृति रही है? इतिहास के प्रमाण बताते हैं कि वैदिक काल में पशु बलि भेंट स्वरूप देवताओं को चढ़ाई जाती थी।

द हिंदू में प्रकाशित लेख के अनुसार प्रमुख इतिहासकार डीएन झा अपनी किताब “द मिथ ऑफ़ द होली काउ” में लिखते हैं “पशु बलि बहुत आम थी, उनमें से सबसे महत्वपूर्ण प्रसिद्ध अश्वमेध और राजसूय थे। वेदों में लगभग 250 जानवरों का उल्लेख है, जिनमें से कम से कम 50 को बलि के लिए उपयुक्त माना गया था, जिसका अर्थ ईश्वरीय और साथ ही मानव उपभोग के लिए था। डीएन झा की ये किताब इस भ्रम को भी ख़त्म कर देती है कि मांस कभी हिंदू घर घरानों की थालियों में था ही नहीं। इतिहास से इसके साक्ष्य मिलते हैं तो फिर आज अचानक से शाकाहार थोपना उस धर्म को निशाने पर लाना है जिसमें खुले रूप से लोग मांस का उपभोग कर रहे हैं और बीफ आदि के शक में भीड़ हत्या की भेंट चढ़ रहे हैं।

शाकाहार और विशेषाधिकार

बालमुरली नटराजन और सूरज जैकब की रिसर्च भी यह बताती है कि निचली जातियां, दलित और जनजाति के लोग मुख्य रूप से मांस खाने वाले होते हैं। ऐसा लेकिन क्यों है? और किस तरह का मांस इनके हिस्से आ रहा है? पुराने समय में दलित, जनजाति समूहों के लोगों के लिए अनाज, फल सब्ज़ी से ज़्यादा जल्दी और ज़्यादा मात्रा में सिर्फ मांस ही मिल पाता था जिसमें अधिकतर मरे हुए जानवरों का मांस शामिल था। धीरे-धीरे यही मांस दलित क्यूज़ीन बन गया। जाति व्यवस्था में भी खाद्य ने अहम भूमिका निभाई। ब्राह्मणों ने वैदिक काल के बाद खुद को शाकाहार घोषित कर उच्च उपाधि पाते हुए शाकाहार को भी उच्च उपाधि दी। मांसाहारी व्यवस्था के बीच स्थान में आए और गाय, सूअर आदि का मांस खाने वाले को निचले पायदान पर रखा। उत्तर प्रदेश, बिहार के मुसहर आज भी चूहे खाने को मजबूर हैं। ये लोग जानबूझकर सड़ा मांस खाने के इच्छुक नहीं है बल्कि साफ़ अच्छा खाना इन तक मुहैया ही नहीं है।

भारत के पश्चिम बंगाल राज्य में एक खाद्य कार्यकर्ता, जेसुइट फादर इरुधया जोथी, जो अब त्रिपुरा में एक मिशनरी हैं। वह कहते हैं, “भूखे मूल रूप से आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यक हैं क्योंकि वे इन दिनों सरकार की तमाम नीतियों और फैसलों के लगातार शिकार हो रहे हैं। उनमें से अधिकांश भूख प्रेरित प्रवासन के शिकार हैं।” पब्लिक हेल्थ प्रैक्टिसनर, बेंगलुरु आधारित शोधकर्ता सिल्विया करपागम ने भी संपूर्ण भारतीय आहार की प्रमुख जाति धारणाओं को लेकर महत्वपूर्ण काम भी किए हैं।

सिल्विया सभी लोगों के गुणवत्तापूर्ण पोषण तक पहुंच के अधिकारों की वकालत करने वाली, जाति व्यवस्था की तीखी आलोचक और खाद्य संप्रभुता की हिमायती हैं। वह ग्लोबल फूड जस्टिस एलायंस की सदस्य हैं। उन्होंने सरकारी स्कूलों में जाते बच्चों में एनीमिया, कुपोषण के कारणों में एक महत्वपूर्ण कारण मिड डे मील में परोसे जाने वाले खाने के पीछे की राजनीतिक विचारधारा को ज़िम्मेदार माना है जो इस्कॉन की विचारधारा है, इस्कॉन मंदिरों द्वारा चलाए जाने वाले अक्षय पात्रों द्वारा ये भोजन जिसमें अंडे तक शामिल नहीं होते बच्चों में कुपोषण का कारण है।

अमेरिका आधारित मानव विज्ञानवेत्ता बालमुरली नटराजन और भारत आधारित अर्थशास्त्री सूरज जैकब द्वारा रिसर्च में यह सामने आया है कि 20% भारतीय वास्तव में शाकाहारी हैं जो कि सामान्य दावों और रूढ़िवादिता से बहुत कम संख्या है। हिंदू, जो भारतीय आबादी का 80% हिस्सा हैं, प्रमुख मांस खाने वाले लोग हैं।

उच्च जाति के लोग जो शाकाहार को थोपना चाह रहे हैं क्या वह शाकाहारी थाली जिसमें अनाज, मावा शामिल है क्या ये चीज़ें सस्ती हैं? क्या वह दलित, जनजाति समूहों के लिए मुहैया हो सकती है? करपागम फेमिनिज़म इन इंडिया को एक दिए इंटरव्यू में इन सवालों के जवाब में कहती हैं “शाकाहार पूरे मंडल में समान नहीं है। धनी, उच्च जाति के शाकाहारी विभिन्न प्रकार के मेवे, दालें, मसाले, सब्जियां और वसा के स्रोत का खर्च उठा सकते हैं, लेकिन खाद्य योजनाओं और सरकारी नीतियों पर निर्भर समुदाय इस विविधता से वंचित हैं। अक्सर, गरीबी का सामना कर रहे लोगों पर उनका थोपा गया आहार अधिकांश अनाज या अधिक से अधिक बाजरा तक ही सीमित होता है। यहां तक ​​कि शाकाहारवाद पर भी उसी जाति समूह का उसी पश्चिमी दृष्टिकोण से एकाधिकार है। उनकी नैतिक स्थिति जातिवाद की छाया से पूरी तरह से बाहर नहीं निकली है।” वह नीति बनने की प्रक्रिया में ख़ास तरह के समूह के एकाधिकार के विरोध में हैं जो यह गढ़ने में जान लगा देते हैं कि भारत एक वेजिटेरियन देश है। रमा शर्मा जैसे तमाम व्यक्ति, वर्ग शाकाहार का इस्तेमाल ख़ास वर्ग के लोगों के दमन के लिए हर तरह से कर रहे हैं जबकि उनका खुद का वर्तमान, अतीत मांसाहार से परिपूर्ण है।


संदर्भः

  1. Death In The Garden
  2. Homegrown

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