संस्कृतिकिताबें एक कोशिश, माया एंजेलो और सुशीला टाकभौरे की कविताओं में समानता ढूंढने की

एक कोशिश, माया एंजेलो और सुशीला टाकभौरे की कविताओं में समानता ढूंढने की

सुशीला टाकभौरे और माया एंजिलो ने अपने समय के, अपने आसपास का चित्रण कविताओं से किया है, पर्सनल इज पॉलिटिकल का नारा जो नारीवाद के दूसरी वेव में हमें सुनाई दिया उसकी गूंज दोनों कवयित्रियों की कविताओं में मिलती है, और वह आत्मिक भाव भी जो उन्हें उनकी पाठक से हर तरह जोड़ लेता है।

माया एंजेलो, यह नाम आपने कभी न कभी ज़रूर पढ़ा या सुना होगा लेकिन सुशीला टाकभौरे का नाम विरले ही जानते होंगे। दोनों ही कवयित्रियां हैं लेकिन दो अलग देशों से, ज़मीन से। दोनों कवयित्रियों के जीवन को सतही तौर पर जानते हुए आज हम उनकी कविताओं में समानता खोजते हुए उस कारण को पहचानने की कोशिश करेंगे जो दो अलग-अलग औरतों को शोषण झेलते हुए एक करता है, जो उनकी कला में भी देखने मिलता है। 

माया एंजिलो, एक ब्लैक कवयित्री, लेखिका, अभिनेत्री, निर्देशक, नर्तकी, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता थीं। इनका जन्म 4 अप्रैल 1928 में हुआ था और 28 मई 2014 में इन्होंने दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था। इनका पूरा नाम मार्गरेट एनी जॉनसन था। वहीं, सुशीला टाकभौरे एकदम अलग समय की पैदाइश हैं। वह स्वतंत्र भारत के मध्य प्रदेश में 4 मार्च 1954 में जन्मी थीं। वह दलित साहित्य, स्त्री साहित्य की महत्वपूर्ण कवयित्री, लेखिका हैं जो एक निर्धन वाल्मीकि दलित परिवार में जन्मी थीं। 

सुशीला टाकभौरे का सतही जीवन देखें तो पिता को मामूली अक्षर ज्ञान था और माताजी एकदम अशिक्षित थीं। बड़ी दो बहनें भी दूसरी, चौथी कक्षा तक पढ़ी थीं। बहनों में सिर्फ़ सुशीला ही थीं जो कॉलेज तक पढ़ी और आगे चलकर प्रधानाध्यापिका बनीं। स्कूल के दौरान अध्यापकों से लेकर साथ पढ़ने वाले बच्चों तक ने उनका अपमान किया और यहां तक कि रिक्शेवाला तक उन्हें अपने रिक्शे में उनकी जाति की वजह से नहीं बैठाता था।

ब्लैक और दलित, दोनों ही अपने देशों की संस्कृति के तथाकथित निचले पायदान पर आते हैं और शोषण झेलने की पहली इकाई हैं। माया एंजिलो आठ वर्ष की भी नहीं हुई थीं जब उनकी मां के प्रेमी ने उनका बलात्कार किया था। इसका पता चलने पर उस व्यक्ति का मर्डर कर दिया गया था लेकिन इस ट्रॉमा का असर उन पर इतना गहरा हुआ था कि वह कुछ सालों तक कुछ बोल ही नहीं पाई थीं।

अपने जीवन के इस हिस्से के बारे में उन्होंने अपनी काफ़ी आत्मकथाओं में से एक और पहली आत्मकथा ‘आई नो वाई द केज बर्ड सिंग्स‘ में विस्तार से लिखा है। एंजिलो की कविताओं के भी कई संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें-जस्ट गिव मी ए कूल ड्रिंक ऑफ़ वॉटर फॉर आई डाई (1971), स्टिल आई राइज (1978), नाउ शेबा सिंग्स द सॉन्ग (1978) और आई शेल नॉट बी मूव्ड (1990), आदि शामिल हैं जो आर्थिक, नस्लभेद, यौन शोषण जैसे विषयों पर लिखे हैं।

सुशीला टाकभौरे का सतही जीवन देखें तो पिता को मामूली अक्षर ज्ञान था और माँ एकदम अशिक्षित थीं। बड़ी दो बहनें भी दूसरी, चौथी कक्षा तक पढ़ी थीं। बहनों में सिर्फ़ सुशीला ही थीं जो कॉलेज तक पढ़ी और आगे चलकर प्रधानाध्यापिका बनीं। स्कूल के दौरान अध्यापकों से लेकर साथ पढ़नेवाले बच्चों तक ने उनका अपमान किया और यहां तक कि रिक्शेवाला तक उन्हें अपने रिक्शे में उनकी जाति की वजह से नहीं बैठाता था। टाकभौरे ने कई कहानियां, उपन्यास, नाटक, आदि लिखे। कविता संग्रहों में ‘स्वाति बूंद’ और ‘खारे मोती’ (1993), ‘यह तुम भी जानो’ (1994) और ‘हमारे हिस्से का सूरज’ (2005) दलित स्त्री वेदना, जाति वेदना, आदि विषयों को लेकर प्रकाशित हुए हैं और आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द’, 2011 प्रकाशित हुई थी।

बात करते हैं आख़िर कैसी समानताएं, क्या मूल्य, कैसी भाषा शैली, विषय हमें दो एकदम अलग ‘टाइम फ्रेम’ की कवयित्रियों में देखने को मिलते हैं, जिसे अलग-अलग कविताओं से समझने की कोशिश करते हैं। दोनों ही कवयित्रियों की कविताएं लंबी हैं, लेकिन जिन्हें देखा जाना ज़रूरी है उन कविताओं के कुछ कवितांश हमने यहां लिखे हैं। आप अपनी ओर से पूरी कविता इंटरनेट पर पढ़ सकते हैं। 

माया एंजिलो अपनी कविता “मैं ही हूं सपना और उम्मीद गुलामों की” (मनोज पटेल द्वारा अंग्रेजी से हिंदी में अनुवादित) में लिखती हैं-

“तुम दर्ज कर सकते हो मेरा नाम इतिहास में
अपने तीखे और विकृत झूठों के साथ
कुचल सकते हो मुझे गन्दगी में
लेकिन फिर भी धूल की तरह
मैं उड़ती जाऊंगी।
क्या मेरी बेबाकी परेशान करती है तुम्हें?
क्यों घिरे बैठे हो उदासी में?
क्योंकि मैं यूं इतराती चलती हूं
गोया कोई तेल का कुआं उलीच रहा हो तेल
मेरी बैठक में।
जैसे उगते हैं चाँद और सूरज
जैसे निश्चितता से उठती हैं लहरें
जैसे उम्मीदें उछलती हैं ऊपर
उठती जाऊंगी मैं भी।
क्या टूटी हुई देखना चाहते थे तुम मुझे ?
झुका सर और नीची निगाहें किए ?
आँसुओं की तरह नीचे गिरते कन्धे
अपने भावपूर्ण रुदन से कमज़ोर…..”

सुशीला टाकभौरे अपनी कविता “उगते अंकुर की तरह जियो” में लिखती हैं – 

“स्वयं को पहचानो
चक्की में पिसते अन्न की तरह नहीं
उगते अंकुर की तरह जियो
धरती और आकाश सबका है
हवा प्रकाश किसके वश का है
फिर इन सब पर भी
क्यों नहीं अपना हक़ जताओ
सुविधाओं से समझौता करके
कभी न सर झुकाओ
अपना ही हक़ माँगो
नयी पहचान बनाओ
धरती पर पग रखने से पहले
अपनी धरती बनाओ।”

माया एंजिलो अपनी कविता में पुरुषों की ओर, समाज के ठेकेदार वर्ग की ओर इशारा कर रही हैं, ज़िक्र कर रही हैं कि इस प्रभुत्व वर्ग के हथकंडे उन्हें कमज़ोर, लाचार बनाने के लिए हैं लेकिन बावजूद इस सबके वह हिम्मत करती हैं, हर हथकंडे के खिलाफ़ उठती हैं, इतना उठती हैं कि उनका चलना तक इस वर्ग को उनके अंहकार पर चोट देता है। 

वहीं सुशीला टाकभौरे स्वयं के अस्तित्व से परिचित होकर खुलकर जीने की हिमायत कर रही हैं और अपने हिस्से के हक, अधिकार लेकर खुद की ज़मीन तैयार करने के पक्ष में है। दोनों कवयित्रियों के महिला और ब्लैक/दलित होते हुए तकरीबन एहसास और ज़ुल्म के खिलाफ़ मुखरता एक समान है। 

कविता “जब तुम आते हो” (विपिन चौधरी द्वारा अनुवादित) में माया प्रेम का जिक्र करती हैं लेकिन यह प्रेम अपनी उधेड़ आधी अवस्था में उन तक आता है जो उन्हें ऐसे अवसाद में घेरता है जहां प्रेम दर्शाने की सबसे छोटी क्रिया तक उन्हें भाव विभोर कर देती है जो इस बात का संकेत है कि महिलाओं से प्रेम इतना दूर रखा गया है, प्रेम से इतना वंचित कर दिया है कि थोड़े से प्रेम का एहसास उन्हें बहुत ज्यादा लगने लगता है। इस भाव को इस कविता में समेटते हुए एंजेलो लिखती हैं- 

“जब तुम मेरे पास आते हो अनामंत्रित
मुझे लम्बे समय तक कमरे में धकेल देते हो
जहाँ स्मृतियाँ बैठी हुई हैं
पेश करते हो
बच्चे को जैसे सौंपी हो अटारी,
कुछ दिनों के समारोह
चोरी के चुम्बन-सी तुच्छ चीज़
उधार दे प्रेम का गहना
गुप्त शब्दों के लोहे की पेटी
और मैं रोती हूं”

माया जहां रत्ती रत्ती प्रेम पाकर भाव विभोर हो जाती हैं, सुशीला टाकभौरे इस रत्ती रत्ती प्रेम का नमूना नहीं बनना चाहती हैं, वे अपनी कविता “नमूना” में लिखती हैं कि – 

“मैं रह सकती हूं
समुद्र की तलहटी में
जल वनस्पति की तरह
अपार जल के भार को
वहन करते
थल-नभ के सभी सुखों से दूर
अंधेरों से प्रकाश में
कभी न आ पाने के दुख से बोझिल
हिंसक जन्तुओं के बीच
साहचर्य जताते
गलने-सड़ने की बात से निरपेक्ष
मैं सब कुछ सह सकती हूं
मगर यह नहीं कि बरबस
मुझे किसी छोटे गमले में लगाया जाये
या किसी नर्सरी में
मात्र अर्थोपार्जन के लिए
एक नमूने के रूप में रखा जाए!”

सुशीला हर तरह के वातावरण में, शिकस्ता माहौल में कैसे भी रह सकती हैं लेकिन ऐसी जगह रहना कतई मंज़ूर नहीं कर रही हैं जहां उनका कद छोटा है, उनकी कद्र निम्न हो, एकेडमिया की भाषा में कहें तो टोकेनिस्टिक ज़िंदगी जीने में सुशीला यकीन नहीं रखतीं। सुशीला टाकभौरे की कविता “मैं तत्पर हूं” सरलतम शब्दों में गहन बात का सर्वोच्च उदाहरण महसूस होती है, वे लिखती हैं-

“तुममें और मुझमें यही फर्क है
तुम डरते हो
अपनी क्रीज अपनी इमेज खराब हो जाने से
और मैं तत्पर हूं
हरिश्चंद्र की पत्नी की तरह
अपनी आधी साड़ी फाड़ कर
दे देने के लिए
हरिश्चंद्र की पत्नी की तरह
चाहे मरघट का टैक्स हो
या कफन
बिके हुए पुत्र के
कफन के दावेदारों
तुम बात करते हो
नियम और कानून की
पर मेरा प्रश्न है नियम और कानून के
औचित्य पर
तुम बात को
अपनी नज़र से देखते हो
और मैं
सबकी नज़र बनना चाहती हूं…!”

सुशीला बहुत साफ़ शब्दों में उस इमेज को तोड़ने की बात कर रही हैं जो सही न्यायपूर्ण बात तक इस वजह से नहीं करते कि सामने वाला व्यक्ति प्रभावशाली व्यक्ति है चाहे वह गलत ही है, उसके सामने खुद को अच्छा दिखाने की होड़ है लेकिन सुशीला इस सब पर सवाल करती हैं और चाहती हैं कि उनकी नज़र से भी यथा स्थिति देखी जाए, कहा जा सकता है कि महिला ख़ासकर दलित महिला की नज़र से भी चीजें देखी जाएं, समझी जाएं। 

माया एंजिलो अपनी कविता “कर्मरत स्त्री” (बालकृष्ण काबरा ‘एतेश’) में लिखती हैं – 

“करती मैं बच्चों की देखभाल
अच्छे से रखती हूं कपड़े
पोंछती हूं फर्श
ख़रीदती हूं खाने-पीने के सामान
तलती हूं चिकन
रखती हूं बेबी को साफ़-सुथरा
कराती हूं भोजन साथ-साथ
करती हूं बगीचे की साफ़-सफ़ाई
करती मैं शर्टों की प्रेस
पहनाती मैं बच्चों को ड्रेस
करती हूं गन्ने के टुकड़े
रखती मैं घर को साफ़
फिर ध्यान देती बीमार पर….”

पूरी कविता एक घरेलू महिला की दिनचर्या की कहानी है जो सारे कामों से थक कर अंत में प्रकृति से खुद को साझा करती है और उसी में शांति का अनुभव करती है। हम में से कितनी ही महिलाएं हैं जो थककर हवा की बयार महसूस करने उस कोने में खड़ी जाती हैं जहां हवा चेहरे पर आकर लगे हालांकि ऐसा महसूस कर पाना भी एक विशेषाधिकार से कम नहीं है। 

सुशीला टाकभौरे और माया एंजिलो ने अपने समय के, अपने आसपास का चित्रण कविताओं से किया है, ‘पर्सनल इज पॉलिटिकल’ का नारा जो नारीवाद की दूसरी वेव में हमें सुनाई दिया उसकी गूंज दोनों कवयित्रियों की कविताओं में मिलती है। साथ ही वह आत्मिक भाव भी जो उन्हें उनकी पाठक से हर तरह जोड़ लेता है। सवाल ये भी है कि इन दोनों कवयित्रियों की काव्य रचनाओं को एक साथ लाकर पढ़ना, लिखना और समझने की कोशिश की क्यों गई?

इसका कारण ये है कि भारतीय सवर्ण साहित्यकार, प्रकाशक तो दलित कवयित्रियों को खासतौर से ‘दलित महिला’ के सांचे से परे देखेंगे नहीं, इससे उनकी आभा खतरे में आएगी। लेकिन हमें इस डब्बे से निकलकर देखना ही होगा कि जिस दलित साहित्य को रूदन का नाम दे दिया गया है क्या वह दुनिया के और शोषित वर्ग के साहित्यकारों से क्या इसका कोई जोड़ नहीं है? अगर है तो क्यों न इनकी समानताओं को खोजा जाए और ये गलत साबित किया जाए कि दलित साहित्यकारों, हाशिके के वर्ग का साहित्य रूदन नहीं बल्कि आत्मीय, मार्मिक, राजनीतिक साहित्य है। 


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