ये कुछ साल पहले की बात है हमारे गाँव-जवार में एक बहुत अच्छे डॉक्टर साहब हुआ करते थे। कहा जाता था कि मरीजों के लिए वह भगवान हैं। वह पहले के जमींदार परिवार से थे, पूरे जवार में उनका वैसे भी बड़ा मान था। उस पर इतने बड़े डॉक्टर, एलोपैथी और आयुर्वेद के भी बड़े जानकार। जवार में बहुत सारे उनके सिखाए हुए डॉक्टर भी थे। गाँव में मेरे घर से उनका पारिवारिक सदस्य जैसा स्नेह था घर के लोग भी उनको अपना आदर्श मानते थे। उनका हमारे घर आना सौभाग्य की बात मानी जाती थी। कुछ दिन बीते, वह नहीं रहे हार्ट अटैक से उनकी मौत हुई। डॉक्टर साहब की मौत हमारे घर के लिए बहुत दुखद घटना थी।
उनके मरने के कुछ दिन बाद एक दिन मैं अपने गाँव की एक स्त्री से उनकी चर्चा करने लगी कि जवार भर में लोग कैसे उनको याद करते हैं। मैं उनकी महानता के कुछ किस्से बताने लगी, तब उस स्त्री ने जो बात कही वह मेरे अनुभव से एकदम अलग थी। वह बुजुर्ग थीं, उन्होंने कहा, “वह तो थे ही बड़े आदमी और डॉक्टर भी बहुत बड़े। लेकिन मेरे बेटे का लंबा इलाज किया, वह ठीक नहीं हो पाया और उसकी मौत हो गई। ख़ैर, उसकी बीमारी भी बहुत खराब थी। लेकिन डॉक्टर साहब ने मौत के बाद मेरे बेटे की लाश को ले जाने से मना कर दिया और कहा कि पहले इतने दिन के इलाज के पैसे दीजिए।”
मुझे विश्वास नहीं हुआ इस बात पर कि कोई गाँव-घर का आदमी ऐसा करेगा, वह भी डॉक्टर साहब जैसा महान व्यक्ति जिनके पास पैसे की कोई दिक्कत नहीं थी। जब मैंने इस बात की चर्चा घर में की तो घरवालों के जवाब से कुछ अचरज़ हुआ। उन्होंने कहा कि इस मामले में डॉक्टर साहब की क्या गलती थी। इतने दिन के इलाज का पैसा इनको पहले दे देना चाहिए था। साथ ही और भी कुछ-कुछ बातें कहीं जिसका आशय मात्र यह था कि गाँव में डॉक्टर साहब हम लोगों को सगा मानते थे तो हमारे घर के जिससे झगड़े थे उस झगड़े को भी सगा मानते थे। मरीज के घरवालों से उनका कठोर व्यवहार इसलिए किया क्योंकि उनका हमारे घर से पुराना झगड़ा था।
अब रामायण तो हमारे घर में ऐसा धर्मग्रंथ है कि जिसे बिना स्नान के कोई छू नहीं सकता, पीरियड्स के दौरान औरतें तो बिल्कुल नहीं। जिस ग्रंथ की एक-एक पंक्ति को साक्षात ईश्वर की कही बात माना जाता है तो भला गाँव की कोई स्त्री उसकी महिमा पर कोई सवाल कैसे कर सकती है।
यहां कोई धर्म, जाति, संस्कृति और राजनीति की बात नहीं है। यहां एक सीधी सी बात है कि एक व्यक्ति बहुत लोगों के लिए बेहद आदरणीय है लेकिन कुछ और लोग भी हैं जिनके लिए वही व्यक्ति यातना की स्मृति है। अब मैं इस बात को सोचती हूं तो रामचरितमानस की आलोचना कौन करेगा और कौन नहीं करेगा यह बात एकदम साफ हो जाती है कि जिनका महिमामंडन हुआ है, जिनको नायक बनाया गया है वह उसपर लहालोट होंगे। लेकिन जिनका तिरस्कार हुआ है वह निश्चित ही रामचरितमानस की आलोचना करेंगे। कोई काव्य कौशल, भाषाई चमत्कार साहित्य प्रेमियों की दुनिया में महान हो सकता है लेकिन जहां मनुष्य की सदियों की पीड़ाओं का हिसाब होगा तो उस पर सवालिया निशान होगा ही।
इसमें भी बहुत सी परिस्थितियों का दखल रहेगा क्योंकि सत्तावानों के धर्म, उनके रीति-रिवाज, रहन सहन और यहां तक कि उनके उत्सव का समाज पर बहुत गहरा असर पड़ता है तो जाहिर सी बात है बाकी समाज उनके धर्मग्रंथों को भी अपना लेता है। शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण इससे जनमानस को उबार सकती है लेकिन उसका स्तर समाज में कितना है यह शायद दर्शाने की जरूरत नहीं है। समाज का कोई भी वर्ग रामचरित मानस को सुंदर कह सकता है। एक काव्य ग्रंथ के रूप में वह अद्वितीय हो सकता है लेकिन स्त्रियों और दलितों के लिए पीड़ा देने का हथियार भी है। मैं अपने ही गाँव में देखती हूं कि एक आजी हैं, अभी जिंदा भी हैं बिस्तर पर पड़ीं हैं। गाँव में कभी किसी स्त्री को पीटा जाता तो उसे सांत्वना देने के लिए कहतीं हैं-“ढोल गंवार शुद्र पशु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।” साथ ही वह बड़े गर्व से कहती हैं कि रामायण में लिखा गया है अभी जाकर पढ़वा लो।
कोई ग्रंथ हो, व्यक्ति हो या मान्यताएं हो अगर वह समाज के किसी वर्ग के मनुष्य के साथ अन्याय होने के ज़िम्मेदार हो तो मनुष्यों का वह वर्ग उनकी आलोचना क्यों नहीं करेगा।
अब रामायण तो हमारे घर में ऐसा धर्मग्रंथ है कि जिसे बिना स्नान के कोई छू नहीं सकता, पीरियड्स के दौरान औरतें तो बिल्कुल नहीं। जिस ग्रंथ की एक-एक पंक्ति को साक्षात ईश्वर की कही बात माना जाता है तो भला गाँव की कोई स्त्री उसकी महिमा पर कोई सवाल कैसे कर सकती है। इस तरह के जाने कितने लोगों को मैं देखती हूं जो स्त्रियों या दलितों के अपमान, उनके साथ हिंसा और अन्याय को रामचरित मानस ग्रंथ की पंक्तियों से सही ठहराते रहते हैं। जब से रामचरितमानस पर टीवी सीरियल्स बने तब से इसका असर इतना बढ़ गया है कि हर घर में इसे आधार बनाया जाता है रीति रिवाजों, रहन-सहन, परंपरा आदि के लिए।
इस तरह की अनगिनत कहानियां आपको हर घर गाँव में मिलेगी जहां अन्याय की बात को रामचरितमानस से उठा लिया जाता है और स्त्रियों या दलितों का अपमान किया जाता है। ऐसे में जाहिर सी बात है कि जब कभी उनमें कुछ सच समझने की चेतना आएगी तो वे आलोचना करेंगे ऐसे ग्रंथ की। साथ ही यह बात एकदम स्पष्ट है कि उत्तर भारत के हर घर में रामचरितमानस को महज ग्रंथ नहीं माना जाता है बल्कि सीधे-सीधे धर्मग्रंथ माना जाता है बाकायदा उसकी पूजा होती है।
सत्तावानों के धर्म, उनके रीति-रिवाज, रहन सहन और यहां तक कि उनके उत्सव का समाज पर बहुत गहरा असर पड़ता है तो जाहिर सी बात है बाकी समाज उनके धर्मग्रंथों को भी अपना लेता है। शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण इससे जनमानस को उबार सकती है लेकिन उसका स्तर समाज में कितना है यह शायद दर्शाने की जरूरत नहीं है।
कोई भी समाज हो वह आदर्श तभी हो सकता है जब वहां इंसानों के बीच किसी भी आधार पर कोई भेदभाव न हो। उस समाज में किसी भी तरह का अन्याय या भेदभाव हो तो उसे वे लोग अनदेखा करके आगे बढ़ सकते हैं जिनके साथ वह अन्याय नहीं हुआ है लेकिन जिनके साथ वह अन्याय सदियों से होता आया है वे उसे कभी नहीं भूल सकते। कोई ग्रंथ हो, व्यक्ति हो या मान्यताएं हो अगर वह समाज के किसी वर्ग के मनुष्य के साथ अन्याय होने के ज़िम्मेदार हो तो मनुष्यों का वह वर्ग उनकी आलोचना क्यों नहीं करेगा। महज इसलिए कि उसमें कुछ विशेष जातियों का महिमामंडन है। अगर कोई मनुष्य यह सोचता है कि कोई ग्रंथ या उसकी भाषा का चमत्कार, कवि का काव्य कौशल मनुष्य की पीड़ा से बढ़कर है तो यह सोच मानवीय नहीं हो सकती। जब चेतना न हो तबकी बात अलग है लेकिन जब चेतना आ जाती है तो भेदभाव और अन्याय के लिखित दस्तावेजों को तो कभी क्षमा नहीं किया जा सकता।
रामचरित मानस की कितनी पंक्तियों में स्त्रियों का बार-बार अपमान है उनकी स्वतंत्रता और चेतना को भयावह बताया गया है-“महावृष्टि चलि फूटि कियारी, जिमिसुतन्त्र भये बिगरहिं नारी।” इसका अर्थ है कि जैसे बहुत बारिश होने पर खेतों, क्यारियों की मेड़ें फूट जाती हैं और तब खेत का बहुत नुकसान होता है वैसे ही स्वतंत्र होने पर स्त्रियां बिगड़ जाती हैं। कोई भी संवेदनशील मन, अपनी अस्मिता, अपनी स्वतंत्रता पर ऐसे विचार की आलोचना ही करेगा। अगर वे स्त्रियों को स्वतंत्र नहीं रखना चाहते हैं तो निश्चित ही वे उनको मनुष्य नहीं समझते। तो जो ग्रंथ हमे मनुष्य की श्रेणी में भी नहीं रखता वह हमारे लिए श्रेष्ठ कैसे हो सकता है। सदियों से जिस समाज ने इसी ग्रंथ का सहारा लेकर हमें अपमानित किया है ,हमें हमारे अधिकार से वंचित किया। यहां हमारे साथ होती आई हिंसा को जायज ठहराया गया तो वह ग्रंथ हमें प्रिय कैसे हो सकता है।
बहुत अधिक लोकप्रियता या बहुत बड़े जनसमूह में पूजा जाना या बहुत बड़ी काल अवधि पर काबिज़ रह जाना भी महान कैसे हो सकता है। अगर वहां कमजोरों की आह को अनदेखा किया गया, बलवानों का गुणगान हुआ है, मनुष्य-मनुष्य का भेद केवल जन्म को लेकर हुआ है। जहां बार-बार यह कहा जा रहा है कि उनके नायक का जन्म किसी विशेष जाति के उद्धार के लिए हुआ है। रामचरितमानस को काव्य कौशल के लिए के लिए महान कहा जा सकता है लेकिन एक मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों के आधार पर महान नहीं कह सकते क्योंकि तब बहुत से शोषितों वंचितों की आह सामने आ जाएगी। वे इस ग्रंथ के उद्धरणों को लेकर खुद पर हुए अन्याय पर प्रश्न करेंगे तो हम क्या जवाब देगें कि इसका लेखक बहुत अबोध था कि उसमें मानवीय मूल्यों का बोध नहीं था या उसकी काव्य प्रतिभा पर अपनी सारी पीड़ाओं को न्योछावर कर दो ।
इस तरह की अनगिनत कहानियां आपको हर घर गाँव में मिलेगी जहां अन्याय की बात को रामचरितमानस से उठा लिया जाता है और स्त्रियों या दलितों का अपमान किया जाता है। ऐसे में जाहिर सी बात है कि जब कभी उनमें कुछ सच समझने की चेतना आएगी तो वे आलोचना करेंगे ऐसे ग्रंथ की।
लोकप्रियता का आधार हमेशा सार्थक या महान हो ऐसा कहां होता है। आज कितने सारे गीत बन रहे हैं जो बहुत लोकप्रिय हो जाते हैं लेकिन क्या हमेशा बेहतर होते हैं। कई बार स्त्रीद्वेष और अश्लीलता से भरे होते हैं लेकिन खूब चलन में होते हैं। इसी तरह लोक में भी देखती हूं कि पहले भी कुछ बहुत ही जातिगत और स्त्री से जोर जबर्दस्ती के गीत गाए जाते हैं। बहुत से होली गीत तो सारी सीमाएं पार कर देते हैं। खैर यह बात किसी भी ग्रंथ की लोकप्रियता और काव्य कौशल की बात के संदर्भ में याद आई लेकिन कोई भी गीत-संगीत कितना भी मोहक हो, पीड़ा और रुलाइयों की आवाज़ को भले कम कर दे लेकिन खत्म नहीं कर सकता।
अगर अवध में ही देखा जाए तो काफी हद तक रामचरितमानस के कारण भी यहां के बहुत बड़े हिस्से में न्याय, विवेक और विज्ञान की दिशा से बननेवाली संस्कृति का निर्माण नहीं हो पाया। समाज में किसी भी जाति, जेंडर या समुदाय को रामायण की चौपाइयों में क्या लिखा है उदाहरण देते हुए बताया जाता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता को मनुष्य की प्रकृति से नहीं देखा जाता, सामाजिक न्याय उनका भेदभाव और गैरबराबरी के मूल्यों पर निर्धारित होता है। अवध के गाँव में पंचायतों में आज भी कोई औरत बोल नहीं सकती अगर बोले भी आवाज नीची करके।
जो ग्रंथ हमे मनुष्य की श्रेणी में भी नहीं रखता वह हमारे लिए श्रेष्ठ कैसे हो सकता है। सदियों से जिस समाज ने इसी ग्रंथ का सहारा लेकर हमें अपमानित किया है ,हमें हमारे अधिकार से वंचित किया। यहां हमारे साथ होती आई हिंसा को जायज ठहराया गया तो वह ग्रंथ हमें प्रिय कैसे हो सकता है।
इतिहास ताकतवरों का लिखा जाता है, कमजोरों की बात नहीं होती। लेकिन कभी न कभी उन्हें भी दृष्टि मिलती है उनके साथ हुए अन्याय और अपमान को कहा जाता है तब हर धर्म के वे ग्रंथ जो शोषितों को अपमानित करते हैं झूठे लगते हैं। साहित्य और कविता के क्षेत्र में रामचरितमानस का महत्वपूर्ण स्थान रहेगा लेकिन जो समाज या वर्ग रामचरित मानस को लेकर स्त्री और दलित आलोचना को ठीक नहीं मानता तो यह एकदम यही बात है कि वे चाहते हैं कि मार खाए हुए रोए भी नहीं, चुप रहें या हंसकर उस हिंसा का गुणगान करें। कला और सौंदर्य कितना भी श्रेष्ठ हो लेकिन वह न्याय और समानता की दुनिया से श्रेष्ठ नहीं हो सकता।