मालती को अक्सर चक्कर आने की समस्या रहती थी। अपनी पहली प्रेग्नेंसी के बाद से मालती में ये समस्या और भी बढ़ती गई। लेकिन उसने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। कुछ समय के बाद समस्या बढ़ने पर जब वह डॉक्टर के पास गई तो मालूम हुआ कि मालती को एनिमिया की समस्या है। भदोही ज़िले के गोहिलाव गाँव की रहनेवाली मालती मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक़ रखती हैं। उसके पति को नॉनवेज बहुत पसंद है और क़रीब सप्ताह में दो-तीन दिन वह काम से वापस आते हुए नॉन वेज लेकर आते हैं। घर में पोषण की कोई कमी न होने के बावजूद मालती एनिमिया की शिकार है।
क्या आप जानते हैं भारत में 15 से 49 वर्ष की आयु की करीब 53.1 फीसद महिलाएं और युवतियां ऐसी हैं जो खून की कमी और एनीमिया की शिकार हैं। आंकड़े दर्शाते हैं कि भारत उन देशों में शामिल हैं जहां 15 से 49 वर्ष की युवतियों और महिलाओं में एनीमिया का प्रसार सबसे ज्यादा है।
पोषणयुक्त थाली बनाने वाली महिलाएं पोषण से दूर क्यों?
मालती अकेली नहीं हैं। ऐसी लाखों महिलाएं हैं जो परिवार के पोषण का तो ख़्याल रखती हैं, लेकिन इसके बावजूद उन्हें पोषण नहीं मिल पाता है। एनिमिया महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी एक समस्या है, जिसका स्तर महिलाओं में काफ़ी अधिक है। आंकड़े दर्शाते हैं कि भारत उन देशों में शामिल है जहां 15 से 49 वर्ष की युवतियों और महिलाओं में एनीमिया का प्रसार सबसे ज्यादा है। शोध के मुताबिक शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में एनीमिया का प्रसार कहीं ज्यादा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, इसी प्रजनन आयु वर्ग की वे महिलाएं जिनका हीमोग्लोबिन का स्तर 12 ग्राम प्रति डेसीलीटर (जी/डीएल) से कम है तथा पांच साल से कम उम्र के जिन बच्चों में हीमोग्लोबिन का स्तर 11.0 ग्राम/डीएल से कम है, उन्हें एनीमिक माना जाता है। एनीमिया ब्लड से जुड़ी एक बीमारी है, जिसका प्रभाव महिलाओं में अधिक देखने को मिलता है। एनीमिया में शरीर में आयरन की कमी हो जाती है, जिसकी वजह से हीमोग्लोबिन बनना भी कम हो जाता है, जिससे नसों में ऑक्सीजन का प्रवाह भी कम हो जाता है।
एनीमिया पोषण की कमी से संबंधित दुनिया में सबसे अधिक व्यापक समस्या है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें लाल रक्त कणिकाओं (आरबीसी) या उनमें मौजूद हीमोग्लोबिन की संख्या कम हो जाती है। आंकड़ों के अनुसार हर दूसरी महिला इससे ग्रसित है और हर पांच में से एक मातृ मृत्यु सीधे तौर पर इससे संबंधित है।
क्या आप जानते हैं भारत में 15 से 49 वर्ष की आयु की करीब 53.1 फीसद महिलाएं और युवतियां ऐसी हैं जो खून की कमी और एनीमिया की शिकार हैं। आंकड़े दर्शाते हैं कि भारत उन देशों में शामिल हैं जहां 15 से 49 वर्ष की युवतियों और महिलाओं में एनीमिया का प्रसार सबसे ज्यादा है।
इंडियास्पेंड की जुलाई 2017 की रिर्पोट में बताया गया था कि यह बीमारी महिलाओं द्वारा खाए जानेवाले भोजन की मात्रा से भी जुड़ी है। इसकी वजह से महिलाओं को कई तरह की पोषण संबंधित गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है। लेकिन इसमें हमें समझना होगा कि पोषणयुक्त थाली पकाने वाली महिलाओं की थाली से पोषण क्यों दूर है?
महिलाओं की थाली पर हावी पितृसत्ता
परिवार में खाने के समय में पहली थाली पुरुषों की लगाई जाती है, जिसमें खाने का ज़्यादा हिस्सा (ख़ासकर सब्ज़ी-दाल या नॉन वेज) पुरुषों की थाली में दिया जाता है और उसके बाद ही महिलाओं की थाली तैयार की जाती है। चूंकि पितृसत्तात्मक समय में पुरुषों का वर्चस्व संसाधन पर होता है, जिसमें पोषण भी शामिल है, इसलिए इस पर भी पुरुषों का कंट्रोल साफ़ दिखाई पड़ता है।
आमतौर पर जब हम एनिमिया या कुपोषण जैसी समस्या की बात महिलाओं के संदर्भ में करते हैं तो ये सिर्फ़ चिकित्सा से जुड़ी समस्या नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक समस्या भी है।
साथ ही, पुरुषों को हमेशा शारीरिक रूप से मज़बूत होना चाहिए- यह विचार भी महिलाओं की थाली से पोषण को पुरुषों की थाली में पहुंचाने का प्रमुख कारक है। इसके कारण बचपन से ही जहां महिलाओं को अच्छा-पोषणयुक्त खाना पकाने और घर के सारे काम करने की ज़िम्मेदारी सिखाई जाती है वहीं पुरुषों को मज़बूत शरीर बनाने की सीख दी जाती है। इसके तहत किशोरावस्था में जब किशोरियों को पीरियड के दौरान पोषण की ज़्यादा ज़रूरत होती है, उस दौरान किशोरियों को अपने घर के पुरुषों की पोषणयुक्त थाली तैयार करने की ज़िम्मेदारी दी जाती है।
महिला पोषण से जुड़ी समस्याएं सामाजिक भी हैं
आमतौर पर जब हम एनिमिया या कुपोषण जैसी समस्या की बात महिलाओं के संदर्भ में करते हैं तो ये सिर्फ़ चिकित्सा से जुड़ी समस्या नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक समस्या भी है। इसका ताल्लुक़ सीधेतौर पर हमारे पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था से है। वह व्यवस्था जो घर के भीतर तो पुरुषों के माध्यम से पोषण युक्त खाने का समान लाने को चलन को बढ़ावा देती है।
जो महिलाओं को पोषणयुक्त खाने पकाने की ज़िम्मेदारी सीखाती है और पोषण के अधिकतम भाग को जिसके तहत पुरुषों की थाली में पहुंचाया जाता है। इसलिए ज़रूरी है कि इन समस्याओं को सिर्फ़ चिकित्सा के नज़रिए से ही नहीं बल्कि सामाजिक नज़रिए से भी देखा और समझा जाए क्योंकि इन समस्याओं की जड़ें पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे से जुड़ी हुई हैं।