मेरी दादी जब हाल ही में हुए पंचायती चुनाव में वोट देने जा रही थीं तो मेरे बाबा ने कहा कि वोट उनके चुने हुए प्रतिनिधि को देना। बकायदा उन्होंने दादी को एक पंचायती चुनाव के प्रतिनिधि का चुनाव चिन्ह बताया और उसी का बटन दबाने को कहा। दादी को यह तक बताकर भेजा गया कि जब वह वोटिंग रूम में जाएंगी तो यह चुनाव चिन्ह किस तरफ पड़ेगा। दादी ने इसका विरोध किया। उन्होंने इसका विरोध करके दूसरे प्रतिनिधि को वोट करने की अपनी बात रखी। लेकिन बाबा ने उस प्रतिनिधि को गलत कहकर, अपने प्रतिनिधि को ही वोट देने का दबाव बनाया।
दादी जब वोट देकर आईं तो मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने बाबा के चुने हुए प्रतिनिधि को ही अपना वोट दिया क्या तो उनका जवाब हां था। तब मेरा ध्यान तब इस बात पर गया कि क्या गांव की सारी महिलाएं इसी तरह वोटिंग करती हैं? क्या सारी महिलाओं के वोट देने के अधिकार पर उनके घर के पुरुषों की ही मनमानी चलती है? घर के मर्द जिस बटन को दबाने को कहते हैं क्या गांव की हर महिला को वही बटन दबाना पड़ता है?
मैंने अपने बाबा से सवाल किया कि वोट देने का अधिकार तो दादी का अपना अधिकार है तो वह क्यों इसमें हस्तक्षेप कर रहे हैं? इस पर उनका कहना था कि औरतों को राजनीति की समझ नहीं होती है। लेकिन मेरी दादी का बाबा के कहे गए प्रतिनिधि को वोट न देने का फै़सला करना और अपने मर्ज़ी के प्रतिनिधि के पक्ष में तर्क देना इस पितृसत्तात्मक सोच को गलत साबित करता है। मैंने गांव की कई अलग-अलग उम्र की महिलाओं से इस बारे में बात की। अधिकतर महिलाओं ने यही कहा कि उनके घर के मर्द ही यह तय करते हैं कि उनका वोट किसे जाएगा।
“जहां पति कहते हैं बटन दबा देती हूं”
मैना देवी पंचायती चुनाव के अपने अनुभव साझा करते हुए कहती हैं, “चुनाव के दौरान प्रतिनिधि घर-घर अपना प्रचार-प्रसार करने आते हैं। घर के सभी सदस्यों का पैर छूते हैं और वोट मांगते हैं। लेकिन लगभग सारे प्रतिनिधि सारी बातें घर के पुरुषों से ही करते हैं क्योंकि घर की औरतें तो बाहर निकलती ही नहीं हैं। मुझे तो यह तक पता ही नहीं रहता कि कौन चुनाव में खड़ा है और कौन नहीं। मैं अपने गांव के किसी भी प्रधान को नहीं पहचानती न अब के और न पिछले। बस चुनाव जिस दिन रहता है वोट डालने चली जाती हूं। जहां वह (पति) कहते हैं वही बटन दबा देती हूं।”
सबकी कहानी एक जैसी है चाहे वह सीमा हो चंद्रावती, गीता, चंपा, शांति या सरला हो। ये सभी महिलाएं वही बटन दबाती हैं जो उनके घर के पुरुष कहते हैं। इसमें गांव की हर उम्र की महिलाए शामिल हैं। उनकी उम्र में फर्क है पर मतदान सभी एक तरह से ही करती हैं।
अवध के एक गांव बिनैका में शांता नाम की महिला से हमने पूछा कि जब वह वोट डालने जाती हैं तो प्रतिनिधि का चुनाव किस आधार पर करती हैं। इस पर वह कहती हैं, “भईया (बेटा) जिसे देने को कहता है उसी को दे देती हूं। मैंने कभी अपनी मर्ज़ी से चुनाव का बटन नहीं दबाया। घरवाले जिसे देने को कहते हैं उसे ही वोट देकर चली आती हूं। घर के सभी सदस्य किसे वोट करेंगे यह पुरुष ही तय कर देते हैं, हमारा काम बस उनके फै़सले को मानना है।
बिनैका गांव की गायत्री कहती हैं, “मैं अपने मर्ज़ी से वोटिंग करने जाती हूं और अपने मर्ज़ी का बटन दबाती हूं। जो प्रतिनिधि मेरे घर के पक्ष में रहता है और पंचायत में मेरे घर का विवाद जाने पर मेरे पक्ष में फैसला सुनाए उसी को चुनती हूं। मेरे घर प्रचार करने आए प्रतिनिधियों से मैं बातचीत भी करती हूं। मैं हर बार वोट डालने जाती हूं और अपनी मर्ज़ी से वोट देती हूं। गायत्री का मानना है कि वोट देना तो सबका अपना अधिकार होता तो प्रतिनिधि हमें अपनी मर्ज़ी से ही चुनना चाहिए, किसी के कहने पर नहीं। गायत्री अपने मत देने के अधिकार को लेकर जागरूक हैं और गांव की राजनीति को बखूबी समझती हैं।
“हमारे वोट देने से कुछ बदलता कहां है”
उधर विमला कहती हैं, “मुझे तो चुनाव से कोई मतलब ही नहीं है। मैं कभी वोट करने जाती हूं तो कभी नहीं। इस पंचायत चुनाव से हमारा क्या फायदा होता है। मुझे तो इसमें कोई फायदा नहीं दिखाई देता। मेरा तो आज तक कोई भला नहीं हुआ है चुनाव से। बस चुनाव के समय लोग आते हैं और कहते यह कर दूंगा, वह कर दूंगा, मुझे ही अपना वोट देना और अंत में होता कुछ भी नहीं है।”
विमला गांव के एक बेहद गरीब परिवार से आती हैं। उनके घर तक कोई मूलभूत सुविधा भी नहीं पहुंच पाई है। उनके घर बिजली, राशन कार्ड जैसी चीज़ें भी हमें नदारद नज़र आई। वह कहती हैं, “हर बार के प्रधान से बस वायदे ही मिलते हैं पर वह करते कुछ भी नहीं हैं। इस बार आया एक उम्मीदवार कह रहा था कि आप वोट दीजिए मुझे मैं आपकी कालोनी पास करवा दूंगा पर हुआ कुछ भी नही। इसलिए मैं वोट करने नहीं जाती हूं। मेरे घर में चुनावी बातें कोई करता ही नहीं है। मुझे तो किसी पर विश्वास नही है।”
किसी भी महिला की बातचीत से यह नहीं लगेगा कि यह कोई अन्याय है या उनके अधिकारों का हनन। पितृसत्तात्मक कंडीशनिंग इतनी मज़बूत है कि औरतें इसे बिल्कुल एक सामान्य बात मानती हैं। वे अपने अधिकार पर किसी और के कब्जे को सहर्ष स्वीकार करती हैं और आसानी से कहती हैं कि उन्हें इस सब की समझ कहां है।
नाभीपुर गांव की सीमा की भी यही कहानी है। उनके वोट देने के अधिकार पर उनके घर के पुरुषों का कब्जा है। गांव की कई औरतें से सवाल पूछने पर जवाब एक ही मिला कि वह अपना प्रतिनिधि खुद नही चुनती हैं। सबकी कहानी एक जैसी है चाहे वह सीमा हो चंद्रावती, गीता, चंपा, शांति या सरला हो। ये सभी महिलाएं वही बटन दबाती हैं जो उनके घर के पुरुष कहते हैं। इसमें गांव की हर उम्र की महिलाए शामिल हैं। उनकी उम्र में फर्क है पर मतदान सभी एक तरह से ही करती हैं। आश्चर्य की बात यह निकलकर आती है कि जो पढ़ी-लिखी भी हैं वह भी अपनी मर्ज़ी से वोट नहीं दे पाती। इसका कारण यह नहीं है कि उन्हें राजनीति की समझ नहीं है। इस मर्दवादी समाज ने उन्हें हमेशा इन सब से दूर रखा है और कंडीशन किया है कि राजनीति उनका क्षेत्र नहीं है।
किसी भी महिला की बातचीत से यह नहीं लगेगा कि यह कोई अन्याय है या उनके अधिकारों का हनन। पितृसत्तात्मक कंडीशनिंग इतनी मज़बूत है कि औरतें इसे बिल्कुल एक सामान्य बात मानती हैं। वे अपने अधिकार पर किसी और के कब्जे को सहर्ष स्वीकार करती हैं और आसानी से कहती हैं कि उन्हें इस सब की समझ कहां है। वे इन सब में पड़ना नहीं चाहती हैं। इस पुरुषवादी समाज ने महिला के वोट देने के अधिकार को स्वीकार तो किया पर इस अधिकार का इस्तेमाल भी वह अपने नियंत्रण रखता है। महिला वोट तो देगी पर वह किसे देगी इसका निर्णय पुरुष के हाथ में होगा